केन्द्र में एनडीए की सरकार बनने के बाद दिल्ली तक किसान चल कर आए हैं. सरकार के सामने पहली बार इस तरह की चुनौती सामने आई है. अन्नदाता सरकार की नीतियों के खिलाफ सड़क पर हैं. किसानों की समस्या का निदान सरकार नहीं कर पा रही है. गन्ने की फसल की कटाई शुरू होने वाली है, लेकिन चीनी मिलों ने अभी तक पिछला बकाया नहीं चुकाया है.
सरकार ने किसानों की नौ में से सात मांग मानने पर सहमति जताई है. लेकिन किसान संतुष्ट नहीं है. आंदोलन खत्म हो गया है लेकिन गुस्सा कम नहीं हुआ है. किसान इस बार सरकार से आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं. हालांकि बीजेपी के लिए किसान का संगठित होना खतरे का संकेत देता है.
भारतीय किसान यूनियन की बढ़ी ताकत
चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत की मौत के बाद से ही बीकेयू की ताकत कम हो गई थी. पश्चिम यूपी में हुई सांप्रदायिक हिंसा ने इसे और कमजोर बना दिया था. अब किसान एक बार फिर बीकेयू के झंडे के नीचे खड़े हो गए हैं. इसके पीछे कुछ कारण हैं. किसान को अब समझ में आ रहा है कि धार्मिक आधार पर बंटने से उनका ही नुकसान हो रहा है. इसमें राजनीतिक दल फायदे में है. किसान के बंटने से चीनी मिल मालिक मजे ले रहें हैं.
किसानों का आंदोलन शुरू हुआ था, तो तादाद इतनी नहीं थी लेकिन धीरे-धीरे ये संख्या बढ़ गई है. इसका कारण है, हिंदू-मुस्लिम के बीच दूरी कम हुई है. जिस तरह का समाज बंटा था, उसमें किसानों ने मेहनत किया है. जिसका नतीजा है कि किसान एकजुट हुए हैं. इस पूरे किसान क्रांति यात्रा में जिस तरह हर-हर महादेव और अल्लाहो अकबर के नारे गूंजे हैं, वो किसानों के बीच धर्म के आधार पर बनी खाई के खत्म होने का संकेत देता है.
बीकेयू की रैलियों में ये नारे पहले भी लगते रहे हैं. इस बार इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि पश्चिम यूपी में हिंसा के बाद पहली बार इस तरह का नजारा दिखाई दे रहा है. किसान दोनों तरफ हैं. ज्यादातर जाट बड़े किसान हैं, जिनका काम काज मुस्लिमों के बगैर नहीं चल पा रहा है. खेती का काम यही लोग देखते थे. पैसों के मामले में दोनो तबका लगभग बराबरी पर है. जिसकी वजह से संघर्ष भी रहा है.
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अब इस खाई को पाटने का प्रयास किया जा रहा है. जिसकी सफलता की निशानी ये आंदोलन है, जिसने बंदिशे तोड़ दी हैं. हालांकि इस एकजुटता के राजनीतिक मायने भी हैं. पश्चिम यूपी में जाट-मुस्लिम समीकरण कई दशकों से चला आ रहा था. इस समीकरण का पूरा लाभ पहले चौधरी चरण सिंह बाद में उनके पुत्र अजित सिंह को मिलता रहा है.
क्या हैं इसके राजनीतिक मायने?
2014 में बीजेपी के उदय की कई वजहें रही हैं. लेकिन उत्तर भारत में बीजेपी के लिए आई सुनामी की वजह मुजफ्फरनगर के दंगे थे. जिसकी वजह से पूरे यूपी में बीजेपी की लहर चल गई. यूपी के विधानसभा चुनाव तक बीजेपी का जलवा कायम था. हालांकि अब परिस्थिति बदल रही है. दंगों के दाग भुलाने का प्रयास दोनों तरफ से चल रहे हैं. बीजेपी सरकार की नाकामी ने इस प्रयास को सफलता तक पहुंचा दिया है.
किसानों के मुद्दों पर सरकार टाल मटोल करती रही है. जिसका पहला चुनावी नतीजा कैराना के संसदीय उपचुनाव थे. जिसमें बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा लेकिन सरकार ने इससे कोई सबक नहीं लिया है. केन्द्र सरकार बड़े वायदों के साथ सत्ता में आई थी, लेकिन किसान की समस्या जस की तस है. डीजल और खाद के दाम बढ़ने से कृषि की लागत बढ़ गई है. जिसे सरकार नजरअंदाज कर रही है. फसल के उत्पादन के बाद खरीद में बिचौलिए हावी हैं. जिससे किसान को लाभ नहीं मिल पा रहा है. ये सब मुद्दे किसान के हैं.
सरकार समझती रही कि पुरानी बात जनता को घर कर गई है. पश्चिमी यूपी में कई संगठन सरकार के वरदहस्त पर गैर कानूनी काम अंजाम दे रहे हैं. जिनके बहुत सारे नाम हैं. कोई पशुओं के नाम पर उगाही कर रहा है, तो कोई लव जिहाद का नारा बुलंद कर रहा है. लेकिन जनता और खासकर किसान के मुद्दे गायब हैं. अब किसान सड़क पर हैं तो सरकार के हाथ पांव फूल गए हैं. कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है. सरकार को भी शायद उम्मीद नहीं थी कि धार्मिक बंटवारे का तिलिस्म टूट सकता है.
पश्चिम यूपी का राजनीतिक समीकरण
पश्चिम यूपी में मौजूदा हालात में बीजेपी की स्थिति मजबूत है. कैराना को छोड़कर सभी संसदीय सीट पर बीजेपी का कब्जा है. 2014 में धार्मिक ध्रुवीकरण की वजह से चौधरी अजित सिंह अपनी अजेय सीट बागपत से चुनाव हार गए थे. पूरी हरित पट्टी में भगवा का जलवा है. 2014 से पहले इस इलाके में बीएसपी और अजित सिंह की धमक थी. सपा की हैसियत कमजोर थी. जाट मुस्लिम समीकरण के मुकाबले बीएसपी का जाटव वोटबैंक था.
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बीजेपी की ताकत कम थी. लेकिन समाजवादी पार्टी की यूपी सरकार ने दंगो को संभालने में कोताही और देरी बरती. जिसकी राजनीतिक वजह थी. समाजवादी पार्टी को लगा कि जाट मुस्लिम समीकरण टूटने से अजित सिंह का सफाया हो जाएगा. मुस्लिम टूट कर समाजवादी पार्टी की तरफ आ जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस पूरे घटनाक्रम का फायदा बीजेपी को मिल गया. बीजेपी ने कई ऐसे मुद्दे उठाए, जो राजनीतिक तौर पर सटीक बैठा, लेकिन सपा का सफाया हो गया था. मुलायम सिंह ये समझने मे नाकाम रहे कि धार्मिक ध्रुवीकरण का नुकसान आखिर में उनको ही झेलना पड़ेगा.
2019 के बनते-बिगड़ते समीकरण
कैराना और नूरपुर के उपचुनाव को अगर पैमाना मान लिया जाए, तो बीजेपी के खिलाफ एसपी-बीएसपी और आरएलडी को गठबंधन के साथ मैदान में उतरना पड़ेगा. बीजेपी को शिकस्त देने के लिए जाट मुस्लिम और जाटव का समीकरण ही काम कर सकता है. बीजेपी अभी पहले से कमजोर हुई लेकिन खत्म नहीं हुई है. जाट में भी दो समूह हैं एक जो बुज़ुर्ग है वो पुराने ढर्रे यानि अजित सिंह के समर्थन में है. लेकिन युवा का रूझान अभी बीजेपी की तरफ है. जिससे बीजेपी अभी भी जाटों के बीच मजबूत है. किसानों ने बीजेपी के खिलाफ मेहनत की है. वहीं चौधरी अजित सिंह और उनके बेटे जयंत ने गांव-गांव जाकर जाटों की पंचायत की है. जिसका असर हो रहा है. जाटों और मुस्लिम के बीच दूरियां घट रही हैं.
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