18 दिसंबर की मतगणना से पहले ही जीत के जश्न में ‘केसरिया लड्डू’ दिखाई दे रहे हैं. इस बार भी गुजरात में कांग्रेस का 22 साल का वनवास टूटता नहीं दिखाई दे रहा है तो हिमाचल प्रदेश के रूप में एक और राज्य 'हाथ' से छूटता दिख रहा है. देश की सर्वे एजेंसियों और न्यूज चैनलों के एग्जिट पोल के मुताबिक गुजरात और हिमाचल में बीजेपी की सरकार के आसार हैं. सबसे ज्यादा चाणक्य ने बीजेपी को गुजरात में 135 सीटें दी हैं. जबकि बाकी 7 एग्जिट पोल ने बीजेपी को सौ से ज्यादा सीटें दी हैं. हालांकि सभी एग्जिट पोल में सीटों को लेकर अंतर भी दिखाई दे रहा है. जहां एक तरफ सिर्फ चाणक्य का एग्जिट पोल कांग्रेस को साल 2012 से भी कम सीटें दे रहा है वहीं दूसरे एग्जिट पोल का अनुमान कांग्रेस की सुधरती हालत का संकेत दे रहा है.
गुजरात की जीत का मतलब मोदी पर महाभरोसा
एग्जिट पोल के अनुमान के बाद नतीजे भले ही कुछ भी हों लेकिन गुजरात में बीजेपी और कांग्रेस के लिए हार और जीत के मायने बहुत हैं. एग्जिट पोल के अनुमानों की ही तरह अगर नतीजे आते हैं तो साफ है कि बीजेपी जिन मुद्दों के साथ मैदान में उतरी उस पर जनता ने मुहर लगाई. बीजेपी ने विकास के नाम पर वोट मांगे लेकिन बाद में बदलते सियासी घटनाक्रम में मामला वंशवाद से लेकर औरंगजेब की सल्तनत तक पहुंचा. ऐसे में ये माना जा सकता है कि भले ही इस बार हिंदुत्व के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण नहीं किया गया लेकिन गुजरात में आम जनता के जेहन में सिर्फ पुराना एक तार छेड़ने भर से ही बीजेपी गुजराती अस्मिता के नाम पर पहली पसंद बन गई.
पीएम मोदी ने जिस तरह से प्रचार की कमान संभाली और गुजराती में लोगों से संवाद किया वो तरीका आम अवचेतन में भावनात्मक अपील करने में कामयाब रहा. मोदी ने खुद पर की गई अभद्र टिप्पणियों को न सिर्फ ढाल बनाया बल्कि उसे हथियार भी बनाया. 'मौत के सौदागर' जैसे बयानों पर कांग्रेस को खारिज करने वाली जनता दस साल बाद भी मोदी के लिए अनर्गल अलाप सुनने को राजी नहीं दिखाई देती है.
मोदी अपने प्रचार में आम गुजरातियों को ये समझाने में कामयाब दिखते हैं कि वो गुजरात छोड़कर जाने के बाद सिर्फ दिल्ली के होकर ही नहीं रह गए. मोदी बार-बार खुद को गुजरात का बेटा बताते हुए गुजरात के लिए किए गए विकास को याद दिलाते रहे. मोदी जानते हैं कि गुजरात में बीजेपी को जीत की सख्त दरकार है क्योंकि 22 साल बाद छठी बार जीत हासिल करने से उन विरोधियों को जवाब मिल जाएगा जो गुजरात में सत्ता विरोधी लहर की बात करते हैं तो साथ ही मोदी के नोटबंदी और जीएसटी के फैसले से गुजरात की जनता में नाराजगी बताते रहे हैं. गुजरात में मिलने वाली जीत भी नोटबंदी और जीएसटी पर जनमत संग्रह की तरह देखी जा सकती है.
पीएम के गृहराज्य में मोदी लहर पर सवाल
8 राज्यों में सरकार बनाने वाली बीजेपी पर गुजरात चुनाव को लेकर बहुत ज्यादा दबाव रहा है. इसकी वजह सिर्फ सत्ता विरोधी लहर, सरकार के फैसलों और पाटीदार आरक्षण आंदोलन ही नहीं हैं बल्कि पीएम मोदी के गृहराज्य होने की वजह से भी बीजेपी पर ‘मोदी लहर’ साबित करने का सवाल है. 17 साल बाद गुजरात में नरेंद्र मोदी सीएम उम्मीदवार नहीं हैं. बीजेपी को 17 साल बाद बिना मोदी के चुनाव लड़ना पड़ा है. इस बार सत्ता में कोई पटेल मुख्यमंत्री भी नहीं है और साथ में पाटीदार आरक्षण आंदोलन का दो साल पुराना इतिहास अलग चस्पा है. मोदी हमेशा ही अपने दम पर चुनाव जिताने का काम करते आए. लेकिन इस बार सीएम की जगह वो देश के पीएम और राज्य में बीजेपी के स्टार प्रचारक की भूमिका में रहे हैं. ऐसे में बीजेपी के लिए गुजरात का चुनाव सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा माना जा सकता है क्योंकि पाने को कम लेकिन खोने को बहुत कुछ है. वहीं एग्जिट पोल के अनुमान सही साबित होते हैं तो इसके नतीजों का असर साल 2019 के लोकसभा चुनावों पर पड़ना तय है.
कांग्रेस के 'हाथ' खाली भी और मजबूत भी!
एग्जिट पोल के अनुमानों में कांग्रेस के साथ ज्यादा सहानुभूति नहीं दिखाई गई है. सरकार न बना पाने के अनुमानों के बावजूद एग्जिट पोल कांग्रेस में उम्मीद की लौ जलाने का काम कर रहे हैं. कांग्रेस के लिए इस बार गुजरात चुनाव से सीखने के लिए बहुत कुछ है.कांग्रेस खुद में ये भरोसा जगा सकती है कि 22 साल बाद भी वो वापसी की शुरुआत करने में सक्षम है. कांग्रेस के नए अध्यक्ष के लिए भी एग्जिट पोल के अनुमान हौसला बढ़ाने वाले हो सकते हैं. पीएम मोदी की तरह ही गुजरात के नतीजों से राहुल की भी साख जुड़ी हुई है. कांग्रेस अगर गुजरात में थोड़ा भी सीटों को बढ़ाने में कामयाब होती है तो उसे राहुल की मेहनत का ही नतीजा माना जाएगा. गुजरात चुनाव में राहुल के आक्रमक प्रचार ने उनके नए मिजाज को सामने रखा था. ऐसे में सरकार न बना पाने का गम पहले से ज्यादा सीटें मिलने की खुशी से कम ही होगा. कांग्रेस के हाथ भले ही खाली हों लेकिन पहले के मुकाबले मजबूत माने जाएंगे. लेकिन व्यवहारिक तौर पर देखा जाए तो कांग्रेस 22 साल बाद मिले मौके को अपनी गलतबयानी और जल्दबाजी की वजह से गंवाने के लिए भी याद की जा सकती है.
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