प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा कांग्रेस पार्टी की यह कहकर आलोचना करते हैं कि यह एक परिवार द्वारा नियंत्रित पार्टी है, लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है. कर्नाटक में अपने तूफानी चुनावी अभियान में मोदी ने कहा था कि वह कामदार नेता हैं जबकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एक नामदार शख्स हैं. एक अन्य रैली में, प्रधानमंत्री ने दावा किया कि 'वंशवादी राजनीतिक के खात्मे' और 'परिश्रमवादी राजनीति के उत्थान' के कारण उनकी पार्टी के लिए जनसमर्थन बढ़ा. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह- जो वंशवाद के खात्मे को अपनी पार्टी की उपलब्धियों में गिनाते हैं, समेत अन्य नेताओं ने भी इसी तरह का बयान बार-बार दोहराया.
यह विरोधाभास ही है कि मोदी को लगे ज्यादातर झटके वंशवादी राजनीति से ही मिले हैं, और झटका देने वाले इन लोगों में से कोई भी कांग्रेस पार्टी से नहीं है. इसके अलावा दो मामलों में जहां भारतीय जनता पार्टी को धूल चाटनी पड़ी, वहां मुकाबले में इसके खुद के खेमे में वंश परंपरा के ही लोग थे. उदाहरण के लिए नौ राज्यों की चार लोकसभा सीटों और दस विधानसभा सीटों पर हुए हालिया चुनाव को ही देख लीजिए.
पिछले कुछ चुनावों में नए वंशों से मिली है बीजेपी को हार
बीजेपी की समस्या तीन गैर-कांग्रेसी परिवारों के वंश हैं- अखिलेश यादव, जयंत चौधरी और इस लिस्ट में शामिल नए मेहमान तेजस्वी यादव, जिनके पिता को अदालत द्वारा मुजरिम ठहराए जाने के कारण राजनीति में जल्दबाजी में आगमन हुआ. इनमें से दो यादव वंश की दूसरी पीढ़ी के हैं, जबकि चौधरी जयंत चरण सिंह द्वारा स्थापित वंश की तीसरी पीढ़ी से हैं.
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कैराना की चुनौती का सामना करने के लिए बीजेपी ने भी सांसद हुकुम सिंह, जिनके निधन के कारण यहां चुनाव हो रहे थे, की वंश परंपरा में उनकी बेटी मृगांका सिंह को मैदान में उतारा. कुछ समय उन्हें पहले राजनीति में उतारा गया था और 2017 में बीजेपी प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने और हार जाने के बाद अनौपचारिक रूप से उनकी उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया.
बिजनौर की नूरपुर विधानसभा सीट पर बीजेपी प्रत्याशी अवनी सिंह परंपरागत अर्थों में वंशज नहीं कहीं जा सकतीं, लेकिन वह विधायक लोकेंद्र सिंह की विधवा हैं, जिनकी फरवरी में सड़क हादसे में मौत के बाद इस सीट पर उपचुनाव कराना पड़ा.
कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी के सरकार नहीं बना पाने में एक और वंशज एचडी कुमारस्वामी की बड़ी भूमिका थी, जिन्होंने कांग्रेस से गठबंधन करके तीसरी पार्टी होने के बाद भी सरकार बनाई. बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा, जो समर्थन जुटा पाने में नाकामयाब रहे और इस्तीफा दे दिया, के बड़े बेटे बीवाई राघवेंद्र भी खानदानी चश्मो-चिराग हैं, जो विधानसभा के सदस्य रह चुके हैं, लेकिन इस बार उनकी दावेदारी खारिज कर दी गई थी.
इस साल पहले भी हुए उप चुनावों में बीजेपी राजस्थान में एक और वंशज सचिन पायलट द्वारा जनता को लगातार आंदोलित करने की कोशिशों के चलते बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी. फरवरी माह में दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मिली हार मोदी-शाह द्वय के साथ ही एक और बीजेपी वंशज, स्वर्गीय विजय राजे सिंधिया की बेटी वसुंधरा राजे के लिए राजनीतिक झटका देने वाली थी. उनकी दूसरी बेटी यशोधरा मध्य प्रदेश में बीजेपी सरकार में मंत्री हैं.
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कांग्रेस का राजनीतिक वंशवाद अपने आप में अनोखा नहीं है. इस सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की हर राज्य इकाई में वंशवाद है. इसके साथ ही कोई भी राज्य ऐसा नहीं है, जहां वंशवाद का अस्तित्व नहीं है. जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला एक दूसरे से मुकाबिल हैं, और तमिलनाडु में भी द्रविण मुन्नेत्र कड़गम और पट्टालि मक्कल काची में भी वंशवाद चल रहा है और मशहूर मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कह सकते हैं तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक राजनीति में वंशवाद मौजूद है.
लेकिन बीजेपी में और उसकी सहयोगी पार्टियों में खुद वंशवाद
मौजूदा समय में बीजेपी ने कई सहयोगियों का साथ ले रखा है, जिनमें से कई वंशवाद के सहारे चल रहे हैं. पंजाब में सुखबीर बादल काफी समय पहले ही शिरोमणी अकाली दल पर पूर्ण नियंत्रण कर चुके हैं. बीजेपी से असहज रिश्ते रखने के बावजूद शिवसेना अभी भी केंद्र सरकार में पार्टनर है और राजनीति में देरी से प्रवेश करने के बावजूद उद्धव ठाकरे को मिला दर्जा इस कारण है, क्योंकि भतीजे पर बेटे को वरीयता दी गई. बिहार में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी एक प्रमुख साझीदार है और उनके बेटे चिराग पासवान को समय आने पर उनकी जगह लेने के लिए तैयार किया जा रहा है. हिमाचल प्रदेश में एक और वंशज अनुराग ठाकुर पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे हैं, हालांकि इन दिनों बाप-बेटे दोनों के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं. यहां तक कि मोदी के अपने राज्य की बीजेपी सरकार में मंत्री जयेश राधड़िया लोकसभा सदस्य विठ्ठलभाई राधड़िया के बेटे हैं.
मेघालय में भी बीजेपी वंशज कोनार्ड संगमा की सरकार में साझीदार है. एन. चंद्रबाबू नायडू, जिन्होंने हाल ही में अचानक नाराज होकर नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) से नाता तोड़ लिया, भी वंशवादी परंपरा से आए नेता माने जाएंगे, क्योंकि राजनीति में उनका प्रवेश मुख्यतः अपने ससुर एनटी रामाराव के कारण हुआ था. यह अलग बात है कि बाद में दोनों की राहें जुदा हो गईं और नायडू ने अपना रास्ता खुद बनाया. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी ने भाई-बहन विजय बहुगुणा और रीता बहुगुणा जोशी को पार्टी में लिया, जो स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा की संतानें हैं.
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एकाध राज्यों की बात छोड़ दें तो हर क्षेत्रीय राजनीतिक दल में वंशवाद के सिद्धांत से उत्तराधिकार तय होता है. इनमें से कई तो बड़ी पार्टियों से टूट कर बनी हैं, क्योंकि एक ऐसे देश में जहां राजनीति एक कारोबार और आजीविका का मुख्य साधन है, इनके नेता अपनी खुद की ‘राजनीतिक कंपनी’ बनाना चाहते थे.
'वंशवाद खराब है, लेकिन कुछ लोगों के लिए अच्छी चीज है'
फिर भी बीजेपी के नेता उन राज्यों की गिनती करते हुए जहां कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई है, दावा करते हैं कि पार्टी के चार साल के शासन में देश में वंशवाद खत्म हुआ है. वो लोग नहीं जानते कि उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू का यह कहा कि 'वंशवाद खराब है, लेकिन कुछ लोगों के लिए अच्छी चीज है' वापस घूम कर उनके नेताओं पर ही आता है. अभी तक कांग्रेस केंद्रीय नेतृत्व को लेकर वंशवाद के आरोपों पर रक्षात्मक रुख रखती थी, लेकिन अब पार्टी में आई आक्रामकता को देखते हुए नहीं लगता कि यही आरोप वापस बीजेपी पर लगाए जाएं. हकीकत यह है कि कम्युनिस्ट और विचारधारा से प्रभावित दलों को छोड़ कर करीब-करीब हर राजनीतिक दल वंशवाद को बढ़ावा देता है. इस बात पर ध्यान देना होगा कि जनसंघ में शुरू में वंशवाद नहीं देखने को मिलता है. और यही बात बीजेपी में लंबे समय तक देखने को मिली, जब तक कि इसका विस्तार सीमित था. लेकिन एक बार इसका विस्तार होने के बाद, इसमें विचारधारा के कठोर दायरे से बाहर के लोग भी शामिल किए गए. इसमें वरिष्ठ नेताओं के बेटे और बेटियां भी शामिल किए जाने लगे.
पिता के पदचिह्नों पर बेटे के चलने का सबसे यादगार उदाहरण पीयूष गोयल का है, जिन्होंने पार्टी कोषाध्यक्ष का कामकाज संभाला. जयंत सिन्हा, पूनम महाजन और पंकजा मुंडे जैसे और भी बहुत से नाम हैं, जिन्होंने अपने पार्टी में अपने पिता की विरासत संभाली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी शिखर पर ‘परिवार’ मौजूद हैं.
वंशवाद पुरानी चीज और किसी एक पार्टी की निशानी नहीं
भारतीय राजनीति में वंशवाद पहली लोकसभा के समय से ही मौजूद रहा है. हांगकांग यूनिवर्सिटी के शोधार्थी रोमैन कार्लेवान द्वारा किए जा रहे अध्ययन के मुताबिक उत्तर भारत के करीब 10 फीसद सांसद रियासतों के वंशज थे, जो कि उस समय वंशवाद का सबसे बड़ा स्रोत थीं. इसके साथ ही जवाहरलाल नेहरू जैसे उदाहरण तो थे ही.
तब से संसद में वंशों की संख्या बढ़ी ही है, लेकिन यह विकास दर 'निरंतर और अटूट' नहीं रही है. वर्ष 1977 और 1989 की लोकसभा में उत्तराधिकारियों की संख्या में भारी कमी आई.
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लेखक पैट्रिक फ्रेंच और राजनीति विज्ञानी कंचन चंद्रा ने भी इस विषय पर शोध किया है और उन्होंने भी ऐसे ही नतीजे निकाले हैं: भारतीय राजनीति में वंशवाद कोई नई चीज नहीं है, और ना ही किसी पार्टी विशेष तक सीमित है. पंद्रहवीं लोकसभा में 30 फीसद सदस्य परिवारिक परंपरा से आए थे. मौजूदा लोकसभा में इसमें थोड़ी कमी आई है, हालांकि फिर भी यह 22 फीसद है, जो कि काफी ज्यादा है और इसका मतलब यह है कि हर पांचवां सदस्य राजनीतिक वंश परंपरा से आया है. महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्ष 2014 की लोकसभा में वंश परंपरा से आए सदस्यों में 44.4 फीसद सदस्य बीजेपी के थे. यह वंश की राजनीति का खात्मा करने के बीजेपी के दावे पर सवालिया निशान खड़ा करता है.
सबसे खास बात यह है कि भारतीय समाज में ‘संपर्क’ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और यह बात नए राजनीतिक परिवारों के उभार से साबित भी होती है, उदाहरण के लिए अगर हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह राजनीति में बनी रहती हैं और बीजेपी में तरक्की करती हैं. मोदी और उनकी पार्टी को कांग्रेस व नेहरू-गांधी परिवार की आलोचना करने से अब तक फायदा मिलता रहा है. लेकिन सभी दलों में बढ़ते वंशवाद के बीच आने वाले दिनों में इस मुद्दे को लेकर चुनाव प्रचार का कोई फायदा नहीं रह जाएगा.
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