live
S M L

इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में आम लोगों के जीने तक का हक छीन लिया था

4 दशक पहले आपातकाल लागू करने के लिए न तो गांधी परिवार के किसी सदस्य और न ही किसी कांग्रेसी नेता ने माफी मांगी है

Updated On: Jun 25, 2018 07:30 AM IST

Surendra Kishore Surendra Kishore
वरिष्ठ पत्रकार

0
इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में आम लोगों के जीने तक का हक छीन लिया था

इमरजेंसी में जीने तक का हक छीन लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने तो 2011 में अपनी गलती मान ली. पर तब की सत्ताधारी पार्टी या उसके नेतृत्व ने आज तक यह काम नहीं किया.

बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने मई, 2015 में कहा था कि ‘चार दशक पहले आपातकाल लागू करना कांग्रेस सरकार की भयानक गलती थी. इसके लिए सोनिया गांधी या राहुल गांधी को देश से माफी मांगनी चाहिए.’ पर किसी कांग्रेसी नेता ने माफी नहीं मांगी.

कोर्ट से नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ 

इसके विपरीत सुप्रीम कोर्ट ने बीते 2 जनवरी, 2011 को यह स्वीकार किया कि देश में आपातकाल के दौरान इस कोर्ट से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था. आपातकाल के लगभग 35 साल बाद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस अशोक कुमार गांगुली के पीठ ने उस समय की अदालती भूल को स्वीकार किया.

याद रहे कि इंदिरा गांधी सरकार ने 25 जून, 1975 को इमरजेंसी लगाकर पूरे देश को एक बड़े जेलखाना में बदल दिया गया था. आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था. यहां तक कि जीने का अधिकार भी स्थगित था.

Jaiprakash Narayan

आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने जयप्रकाश नारायण को जेल में ठूंस दिया गया था

23 मार्च, 1977 को ही आपातकाल को समाप्त किया जा सका था जब आम चुनाव के बाद केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. आपात काल में इंदिरा गांधी सरकार ने जयप्रकाश नारायण सहित लगभग एक लाख राजनीतिक विरोधियों को देश के अलग-अलग जेलों में ठूंस दिया था. उनके मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था. कड़ा प्रेस सेंसरशिप लगा दिया गया था.

यहां तक कि आम जनता के जीने का अधिकार भी छीन लिया गया था. अटार्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में यह स्वीकार भी किया था. उन्होंने कहा था कि यदि स्टेट आज किसी की जान भी ले ले तो भी उसके खिलाफ कोई व्यक्ति कोर्ट की शरण नहीं ले सकता. क्योंकि ऐसे मामलों को सुनने के कोर्ट के अधिकार को स्थगित कर दिया गया है.

जनता को कोर्ट जाने की सुविधा हासिल थी 

नीरेन डे ने आपातकाल में जो कुछ कहा, वैसा अंग्रेजों के राज में भी यहां नहीं हुआ था. विदेशियों के शासनकाल में भी जनता को कोर्ट जाने की सुविधा हासिल थी. याद रहे कि आपातकाल के दौरान जबलपुर के एडीएम बनाम शिवकांत शुक्ल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने बहुमत से मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के पक्ष में फैसला दे दिया था.

यह भी पढ़ें: इस राजनीतिक दल ने किया था इंदिरा गांधी और आपातकाल का समर्थन!

उस पीठ के सदस्य थे चीफ जस्टिस ए एन राय, जस्टिस एच आर खन्ना, एम एच बेग, वाई वी चंद्रचूड़ और पी एन भगवती. एडीएम, जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल के मामले में इस पीठ ने कहा था कि 27 जून, 1975 को राष्ट्रपति की ओर से जारी आदेश के अनुसार प्रतिबंधात्मक कानून मीसा के तहत हिरासत में लिया गया कोई व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद- 226 के अंतर्गत कोई याचिका दाखिल नहीं कर सकता. इसी केस के सिलिसिले में नीरेन डे की ऊपर कही टिप्पणी सामने आई थी.

Supreme Court

आपातकाल के दौरान जीने का हक छीन लिए जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में अपनी गलती मान ली थी

पर पीठ के एक सदस्य जस्टिस एच आर खन्ना ने बहुमत की राय से अपनी अलग राय दी. 2011 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में खन्ना की राय का समर्थन किया गया. याद रहे कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने का अधिकार है. आपातकाल की घोषणा के बाद देश भर निरोधात्मक नजरबंदी के दौर शुरू हो गए थे.

गिरफ्तार लोगों ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर कीं

कुछ गिरफ्तार लोगों ने उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर कीं. उन याचिकाओं पर जबलपुर हाईकोर्ट सहित देश के 9 हाईकोर्ट ने यह कहा कि आपातकाल के बावजूद बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर करने का अधिकार कायम रहेगा.

केंद्र सरकार ने इन निर्णयों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी. जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने सभी मामलों की एक साथ सुनवाई की. यह ऐतिहासिक केस एडीएम, जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल मुकदमे के नाम से चर्चित हुआ.

बहुमत फैसले में मीसा को सही ठहराया गया था. पर जस्टिस हंसराज खन्ना ने अपनी अलग राय देते हुए कहा था कि सरकार मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ सुनवाई करने के हाईकोर्ट के अधिकार को किसी भी स्थिति में छीन नहीं सकती. इस राय के बाद जस्टिस खन्ना ने काफी सम्मान अर्जित किया था.

जस्टिस खन्ना के इस साहसिक कदम पर न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा था कि जस्टिस खन्ना की मूर्ति भारत के हर शहर में लगाई जानी चाहिए. खुद जस्टिस पी एन भगवती ने बाद में कहा था कि शिवकांत शुक्ल वाले केस के फैसले में ‘मैं गलत था. वह मेरा कमजोर कृत्य था.’ उन्होंने यह भी कहा कि पहले तो मैं उस तरह के फैसले के खिलाफ था, पर पता नहीं मैं बाद में क्यों सहयोगी न्यायाधीशों की बातों में आ गया.

इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया जाना चाहिए

25 फरवरी, 2009 को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम एन वेंकटचलैया ने कहा था कि आपातकाल के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया जाना चाहिए.

जस्टिस वेंकटचलैया, जस्टिस हंसराज खन्ना की स्मृति में व्याख्यान दे रहे थे. याद रहे कि जस्टिस ए एन राय तीन वरीय जजों की वरीयता को नजरअंदाज कर के अप्रैल, 1973 में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बनाए गए थे.

ऐसा पहली बार हुआ था. बाद में एच आर खन्ना की वरीयता को नजरअंदाज करके एम एच बेग को चीफ जस्टिस बनाया गया था. इसके विरोधस्वरूप जस्टिस खन्ना ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.

(यह लेख पूर्व में छप चुका है)

0

अन्य बड़ी खबरें

वीडियो
KUMBH: IT's MORE THAN A MELA

क्रिकेट स्कोर्स और भी

Firstpost Hindi