अमेरीका के राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप को लेकर भारत में जिस तरह का सुकून है, वो वाशिंगटन से आई खबर के बाद छू मंतर हो सकता है. भारत को भरोसा था कि ट्रंप और मोदी दोनों ही पंरपरा से हट कर राजनीति करने वालों में से हैं और दोनों के बीच खूब जमेगी.
चुनाव प्रचार के दौरान रिपब्लिकन अप्रवासी हिंदू संगठन ने तो ट्रंप को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी जुमले की लत लगा दी थी. जब उन्होंने कहा था, अबकी बार ट्रंप सरकार.
ट्रंप ने जिस तरीके से मुसलमानों के खिलाफ बयानबाजी की और उन्हें अमेरीका में नहीं घुसने देने की बात कही, उसके बाद अमेरीकी-हिंदुओं की बड़ी तादाद पूरी तरह से रिपबल्किन पार्टी के पक्ष में आ गई थी. लेकिन हाल ही में ट्रंप ने जो बातें कही हैं उससे वहां के हिंदु समुदाय को सदमा लग सकता है.
बिजनेसमैन ट्रंप एक अनुभवहीन राजनेता हैं, जो कब क्या बोल दें, किसी को नहीं मालूम. जिस तरह से उन्होंने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से बात की है वो इसी कड़ी का हिस्सा है. इस अप्रत्याशित बातचीत से फिजा की रंगत बदली, जिसे अब उपराष्ट्रपति पद के लिए चुने गए माइक पेन्स ने एक बयान से और गहरा कर दिया है.
कश्मीर पर मध्यस्था की पेशकश
पेन्स के मुताबिक, 'किसी भी समझौते या सौदे के अंत तक पहुंचने की ट्रंप की असाधारण क्षमता ओवल ऑफिस में कारगर साबित होगी और ये भी कि इस ताकत के बूते वो भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दे को सुलझाने में भी मदद कर सकते हैं.' मतलब साफ है कि दुनिया की इकलौती महाशक्ति इस मसले पर मध्यस्थता के लिए तैयार है, जिसकी मांग पाकिस्तान लंबे समय से कर रहा है.
आपसी उठा पटक से लबरेज भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में अगर सारे दल किसी एक मुद्दे पर एकजुट होते हैं तो वो है पाकिस्तान के साथ संबंध और कश्मीर समस्या. दलीय राजनीति से ऊपर उठ कर सभी दल इस बात पर एकमत हैं कि कश्मीर मुद्दा द्वीपक्षीय है और दोनों देश मिलकर इसका समाधान निकाल सकते हैं.
भारत शुरू से ही किसी तीसरे पक्ष का इस मसले पर हस्तक्षेप करने का विरोधी रहा है. भले ही पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसे उठाने की लाख कोशिशें की हों लेकिन भारत अपनी खींची हुई लाइन से टस से मस नहीं हुआ. अब तक पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी है. क्या ये स्थिति ट्रंप के राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभालने के बाद बदलने वाली है? क्या भारत-अमेरीका के बीच तेजी से बढ़ते संबंधों में तनाव आ सकता है?
ट्रंप ने जनरल जेम्स मैटिस को नया रक्षा-मंत्री बनाने की घोषणा की है, उन्हें पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बारे में काफी जानकारी है. तो क्या अमेरीका और पाकिस्तान के मधुर संबंधों का अतीत वापस लौटने वाला है? अन्य वरिष्ठ अमेरिकी जनरलों की तरह मैटिस रावलपिंडी में बैठे पाकिस्तानी सेना के तमाम शीर्ष जनरलों की सोच और कामकाज के तरीके को जानते हैं.
आखिरकार, शीतयुद्ध के दौरान के साथी रहे अमेरीका और पाकिस्तान की सेना के पास साथ काम करने का तजुर्बा भी है. जब रूसी सेना अफगानिस्तान के भीतर थी तब सीआईए और आईएसआई ने मिलकर अभियान चलाया था. अफगान मुजाहिदीन संगठनों को अमेरीका ने जितने भी हथियार और फंड दिए वो पाकिस्तान के रास्ते ही उन तक पहुंचे थे.
जनरल मैटिस 2010 से 2013 के बीच यूएस सेंट्रल कमांड के मुखिया थे और इस नाते पाकिस्तान और अफगानिस्तान पर उनकी पैनी नजर थी. वो भारत को लेकर पाकिस्तानी सेना की सनक और अफगानिस्तान में भारत के दखल पर पाकिस्तानी के डर से भी वाकिफ हैं.
पाकिस्तानी सरजमीं पर अमेरीकी सैनिकों की तैनाती के शुरुआती दिनों में पाकिस्तान को ये समझाया गया था कि अफगानिस्तान में भारत की भूमिका बेहद सीमित है. बाद में दोनों सेनाओं के बीच रिश्ते बिगड़े लेकिन जनरल मैटिस का पाकिस्तानी सेना के साथ संपर्क कायम रहा.
ट्रंप कैबिनेट में जनरलों की भरमार
ट्रंप कैबिनेट में जनरलों की भरमार है. इसे लेकर अमेरीका में भी एक तबका चिंतित है क्योंकि जनरल सेना के साथ ही ज्यादा सहज होते हैं. इस लिहाज से माना जा रहा है कि पाकिस्तान और अमरीकी सेना के बीच रिश्ते सुधर सकते हैं.
भारत को इस बात से चिंतित होने की जरूरत नहीं है, बशर्ते ट्रंप प्रशासन पाकिस्तानी सेना को पाकिस्तान की सरजमीं में जड़ जमाए आतंकी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करने पर राजी कर लेती है. इनमें भारत और अफगानिस्तान विरोधी आतंकी संगठन भी शामिल हैं.
अब देखना है कि क्या ट्रंप सरकार अफगानिस्तान में स्थिरता स्थापित करने की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पाकिस्तान की पीठ थपथपाती है? क्या ट्रंप के साथ ही एशियाई महाद्वीप में पाकिस्तान समर्थक अमेरीकी नीति की वापसी होने वाली है?
लेकिन एशिया महाद्वीप में भारत कोई छोटी ताकत नहीं है, जिसे अमेरिका हल्के में लेना चाहेगा. जब ओबामा प्रशासन ने कूटनीतिज्ञ रिचर्ड होल्ब्रुक को पाकिस्तान – अफगानिस्तान और भारत के लिए विशेष दूत नियुक्त किया था तब भारत ने भी ये तय किया था कि होल्ब्रुक अपना ज्यादा से ज्यादा समय पाकिस्तान-अफगानिस्तान में ही बिताएं. वो दिल्ली यात्रा पर आते जरूर थे लेकिन उन्हें कोई खास तवज्जो नहीं दी गई थी.
अगर क्षेत्रीय शांति में अमेरीकी हस्तक्षेप को भारत नकार दे तो अमेरीका के पास भी कोई ज्यादा विकल्प है नहीं. दूसरी ओर ट्रंप ने अभी ऑफिस नहीं संभाला है. राष्ट्रपति निर्वाचित हो जाना और राष्ट्रपति पद के दायित्वों को निबाहने में बहुत फर्क होता है.
परंपरागत तौर पर रिपब्लिकन प्रशासन भारत के लिए अच्छा माना जाता रहा है. भारत-अमेरीका असैनिक परमाणु समझौता रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के समय ही हुआ था. लेकिन बताती चलूं कि ट्रंप एक अप्रत्याशित व्यक्तित्व है.
बिजनेसमैन ट्रंप
ट्रंप सिर्फ भारत के लिए बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए अभी भी पहेली बने हुए हैं. किसी को नहीं पता उनसे क्या अपेक्षा रखी जाए. वो मनमौजी भी हो सकते हैं या फिर समय के साथ राष्ट्रपति पद की गंभीरता को अपना भी सकते हैं.
ये तय है कि भारत कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ शांति की पहल के सारे बाहरी हस्तक्षेप को खारिज कर देगा. फिर चाहे वो अमरीका ही क्यों न हो. अगर भारत ने अमेरीकी हस्तक्षेप को ठेंगा दिखा दिया तो ट्रंप कुछ नहीं कर सकते हैं.
जिस तरह से भारत के विशाल बाजार पर अमेरीकी कंपनियों की नजर है और जिस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था नोटबंदी के बाद भी स्थिर है उसे ट्रंप जैसे बिजनेसमैन जाहिर तौर नजरअंदाज नहीं कर सकते. इसके अलावा चीन पर उनकी जो चिंता है उससे निपटने के लिए भारत पर उनकी निर्भरता काफी हद तक बढ़ जाती है.
लेकिन फिलहाल का निष्कर्ष यही है कि ट्रंप क्या कर गुजरेंगे इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है.
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