देश के राष्ट्रपति चुनाव के जरिए यूपीए ने विपक्ष की एकता का आह्वान किया था. ये माना जा रहा था कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये समूचा विपक्ष राष्ट्रपति चुनाव के बहाने मजबूत महागठबंधन तैयार करने जा रहा है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के निवास पर बुलाई गई ‘महागठबंधन के न्योते’ की बैठक में भी एजेंडा साफ था. लेकिन उस बैठक में ही विपक्ष की एकता पर बिहार के सीएम नीतीश कुमार की गैरमौजूदगी ने सवाल खड़े कर दिये थे.
इस बार राष्ट्रपति चुनाव की वोटिंग में सांसदों-विधायकों की अंतरात्मा की आवाज की वोटिंग विपक्ष की एकता पर सवाल खड़े कर रही है. वहीं कोविंद के समर्थन में उतरी दूसरी पार्टियों ने भी यूपीए की कोशिश को झटका दिया है.
जिस राष्ट्रपति चुनाव की आड़ में कांग्रेस एक महागठबंधन बनाने की कवायद कर रही थी उसे राष्ट्रपति चुनाव के बदलते समीकरणों ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव की तस्वीर का इशारा भी कर दिया. विपक्ष की 6 पार्टियों का एनडीए के समर्थन में उतरना विपक्ष की एकता के दावों को सिरे से खारिज करता है.
कोविंद की जीत का ऐलान महज औपचारिकता
राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिये एनडीए को 50 प्रतिशत वोटों की जरुरत है. इस वक्त एनडीए के साथ 16 दल हैं जबकि विपक्ष की 6 पार्टियां भी कोविंद के समर्थन में ऐलान कर चुकी हैं. मौजूदा हालात में कोविंद का राष्ट्रपति चुना जाना तय है.
कोविंद को उम्मीदवार बनाने का एलान होने से पहले एनडीए के पास 48.10 प्रतिशत वोट था जिसमें 40 फीसदी केवल बीजेपी का वोट है. लेकिन अब कोविंद के पक्ष में टीआरएस, एआईएडीएमके, वाईएसआर कांग्रेस, जेडीयू, बीजेडी और अन्य के समर्थन में आने से एनडीए का वोट पर्सेंट 63 प्रतिशत हो गया है.
एनडीए के लिये कोविंद के नाम पर विपक्ष की पार्टियों का समर्थन में उतरने को दूरगामी संकेत समझे जा सकते हैं.
रणनीति होती मजबूत तो मीरा बनती राष्ट्रपति
वहीं विपक्ष के लिये मुश्किल ये भी है कि कई विधायक और सांसद अंतरात्मा की आवाज पर कोविंद को वोट दे रहे हैं. समाजवादी पार्टी में भी राष्ट्रपति के उम्मीदवार के समर्थन को लेकर फूट साफ दिखाई पड़ी. जहां मुलायम-शिवपाल कोविंद का समर्थन कर चुके हैं वहीं अखिलेश मीरा कुमार का समर्थन कर रहे हैं.
यही विरोधाभास टीएमसी के विधायको की वोटिंग में भी दिखाई दिया. टीएमसी के 6 विधायकों ने पार्टी लाइन से हटकर कोविंद के पक्ष में वोट दिया.
मीरा कुमार के पिछड़ने के पीछे विपक्ष की कमजोर रणनीति जिम्मेदार मानी जा सकती है. अगर कोविंद के ऐलान के पहले सभी विपक्षी पार्टियां एक हो जातीं तो यूपीए के पास 51.90 प्रतिशत वोट हो सकते थे. लेकिन बदलते सियासी समीकरण में मीरा के समर्थन में केवल 34 प्रतिशत वोट ही दिखाई दे रहे हैं.
बंटे विपक्ष के लिए एनडीए से मुकाबला मुमकिन नहीं
राष्ट्रपति चुनाव के लिये एनडीए के पास पचास से कम प्रतिशत का हमेशा मार्जिन रहा है लेकिन इस बार एनडीए के पक्ष में हवा राष्ट्रपति चुनाव में भी साफ दिखाई देने लगी. अंतरात्मा की आवाज से होने वाली वोटिंग में सांसदों और विधायकों में पार्टी लाइन का दबाव नहीं दिखाई दिया.
हार-जीत का मार्जिन भले ही कुछ भी हो लेकिन इससे एक बात साफ है कि कमजोर होते विपक्ष को राष्ट्रपति चुनाव के नाम पर भी विपक्ष एक नहीं कर सका है. ऐसे में साल 2019 के पहले ही एनडीए विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक सियासी बढ़त हासिल कर चुका है.
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