खीरा सिर ते काटिये, मलियत नमक लगाए, रहिमन करुये मुखन को, चहियत इहै सजाए.
अब्दुल रहीम खानखाना
रहीम कहते हैं कि खीरे की कड़वाहट को हटाने के लिए उसे सिरे से काटकर नमक रगड़ना पड़ता है, ताकि खीरे का आनंद लिया जा सके. काला धन के खिलाफ हुई नोटबंदी को खीरे के तौर पर देख सकते हैं. क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था से काला धन के जहर को निकालने के लिए कमोबेश वैसा ही सर्जिकल ऑपरेशन किया जा रहा है. जाहिर है तकलीफ तो होगी.
मुझे, आपको और सभी को लाइन में खड़ा तो होना ही होगा. लेकिन एक बार जब जहर निकलने की प्रक्रिया खत्म होगी तो मीठे खीरे का आनंद हम लेंगे. यही उम्मीद है और उम्मीद का नाम ही तो जिंदगी है.
अब आइए एक नजर डालते हैं काला धन के खिलाफ हुए सर्जिकल ऑपरेशन के प्रभावों पर- खासकर सामाजिक और राजनीतिक. सामाजिक प्रभाव तो आप सड़कों पर, खेत खलिहानों में और बैंकों-एटीएम के इर्द-गिर्द तो देख ही रहे होंगे. लेकिन दूरगामी राजनीतिक प्रभाव फिलहाल अदृश्य हैं.
जो नजारा आप संसद के दोनों सदनों में देख रहे हैं वह भ्रामक है. पक्ष-विपक्ष के नेताओं की चिल्ल-पों का मतलब ये कतई नहीं है कि सारा समाज उनके साथ है. मतलब सिर्फ इतना है कि वो समाज की मानसिकता को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं. वो सफल हो पाएंगे कि नहीं ये तो वक्त ही बताएगा.
सब धान बाईस पसेरी
पिछले एक पखवाड़े की घटनाओं पर आप गंभीरता से विचार करें तो एक बात साफ हो जाती है कि देश शायद आजादी के आंदोलन के बाद पहली बार जाग उठा है. हर शख्स मजबूर है लाइन में खड़ा होने के लिए, कम से कम दो हजार रुपए पॉकेट में डालने के लिए ताकि जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ा सके.
जी हां, लाइनों में जो नरेंद्र मोदी के साथ हैं वो भी खड़े हैं और जो विरोध में हैं वो भी. बेशक प्रतिक्रिया अलग-अलग है. लेकिन सजग सब हैं. और शायद नोटबंदी की यही सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है.
जिन लोगों को खासकर किसानों को बेइंतहा परेशानियों से गुजरना पड़ रहा है. वे भी इस बात को मानते हैं कि नोटबंदी का फैसला राष्ट्रहित में है. लेकिन जरा इस जमीनी हकीकत की ओर भी एक बार देखें कि मोदी के फैसले से भाजपा भी उतनी ही लहूलुहान है जितनी की दूसरी विरोधी पार्टियां. सियासी दलों का चुनावी अभियान पूरी तरह कैश पर निर्भर रहता है. लिहाजा सभी दलों के चुनावी रथों से तेल गायब है.
मोदी हों या मुलायम, उनकी तथाकथित सफल रैलियां और जनसभाएं सच्चाई को पूरी तरह बयां नहीं करती. गाजीपुर और आगरा की चकाचौंध करने वाली रैलियों से दूर गांवों की जमीनी हकीकत ज्यादा मायने रखती है. और सच्चाई यह है कि चुनावी अभियान ठप है. कैश की कमी के कारण ढोल-नगाड़े, गाजे-बाजे सब गायब हैं. गांवों-कस्बों के जमीनी नेता भी बेहोश हैं.
अब बात नोटबंदी के असर को लेकर किए जा रहे दावों-प्रतिदावों की. नोटबंदी के असर को लेकर तमाम तरह के आंकड़े बाजार में फेंके जा रहे हैं. लेकिन कृपया आंकड़ों पर ना जाइए.
आंकड़ों के पतंगबाज
कहा जाता है कि झूठ की तीन जातियां हैं- झूठ, बड़ा झूठ और आंकड़े. असर के आंकड़ों की तरह-तरह की रंग-बिरंगी पतंगें आकाश में लहराती दिख रही हैं. आंकड़ों के ये पतंगबाज या तो नेतागण हैं या फिर चुनावी सर्वेक्षण वाले, जिन्हें हम सेफोलॉजिस्ट कहते हैं. चंद व्यक्तियों से हां या ना में सवाल जवाब कर ये सर्वेक्षण वाले एक निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं. लेकिन उनके निष्कर्ष ज्यादातर मौकों पर धाराशाही हुए हैं. लखनऊ से लेकर लंदन-वाशिंगटन तक.
आपने पढ़ा होगा कि हिलेरी क्लिंटन की जीत की भविष्यवाणी करने वाले किस तरह अमेरिका में मुंह के बल गिरे. भारत के अंदर भी बिहार और दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों में हम देख चुके हैं कि इस तरह के ओपिनियन पोल की सच्चाई क्या होती है.
तमाम चुनावी पंडितों और उनके आंकड़ों की धज्जियां उड़ते हम सबने देखा है. अब आप समझ सकते हैं कि इन सर्वेक्षणों के सूरमाओं पर कितना भरोसा किया जा सकता है? फिलहाल वे कह रहे हैं कि भाजपा की स्थिति अच्छी है.
मोदी भाजपा से ज्यादा चमकदार
मोदी बहरहाल, अनेक सच्चाइयों के बीच एक परम सच्चाई ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार और उनकी पार्टी भाजपा तीन अलग-अलग इकाई नजर आते हैं. जहां एक ओर पीएम मोदी की छवि दिनो-दिन निखरती ही जा रही है. वहीं उनकी सरकार का इकबाल लगातार कमजोर पड़ता जा रहा है.
इसमें कोई दो मत नहीं कि नरेंद्र मोदी की मंशा राष्ट्रहित में है. लेकिन उनके फैसलों को सरकारी स्तर पर लागू करने की कोशिश नाकाफी और नाकाबिल साबित हुई है. जिसका नतीजा रहा कि गांव-शहर से लेकर खेत-खलिहानों तक हाहाकार मच गया. और शायद यही हाहाकार उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के मंसूबों पर पानी फेर सकता है.
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