कांग्रेस के उपाध्यक्ष और अमेठी के सांसद राहुल गांधी एक ऐसे मोचक मंत्र की तलाश में हैं, जिसकी मदद से पार्टी के भीतर और बाहर अपने चाहने वालों की निगाह में खुद को वे एक संपूर्ण नेता के रूप में स्थापित कर सकें.
इसी कवायद में वे एक के बाद एक अलग-अलग मुद्दे आजमाए जा रहे हैं. उनका सबसे ताजा प्रयोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 500 और 1000 के नोटों को बंद करने के फैसले और जनता को इससे पैदा हुई दुश्वारियों पर टिका है.
कांग्रेस पार्टी का भावी अध्यक्ष जनता से दोबारा जुड़ने की कोशिश में एक एटीएम से दूसरे एटीएम और एक बैंक से दूसरे बैंक के बीच सड़क नाप रहा है.
कभी देश के सियासी फलक पर अपना प्रभुत्व कायम रखने वाली कांग्रेस पार्टी सिलसिलेवार तरीके से विधानसभा के चुनावों में चोट खाती गई.
आखिरकार 2014 के आम चुनाव में इसकी हैसियत 44 सीटों पर आकर टिक गई, जो जयललिता की अन्नाद्रमुक और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के 37 और 34 सीटों से बमुश्किल थोड़ा ही बेहतर थी.
इस चुनाव के बाद खुद उन्हीं के कार्यकर्ताओं ने उनके अक्षम नेतृत्व पर सवाल उठाना शुरू कर दिया और विवादास्पद कार्यशैली और पार्टी के भीतर जारी उथल-पुथल के लिए उनके ऊपर आरोप लगना शुरू हो गए थे.
खुद के लिए और पार्टी के लिए एक कारगर रास्ता खोजने की कवायद में वे अप्रैल 2015 में दो महीने की छुट्टी पर चले गए.
राहुल जब से लौटे हैं, तब से साफ देखा जा सकता है कि किस कदर वे लगातार तमाम किस्म के मुद्दों के साथ जुड़ने की भरसक कोशिश में जुटे हुए हैं.
राहुल का आक्रामक अवतार
उनकी मां और कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 17 मार्च, 2015 को जब अपनी अगुवाई में 14 राजनीतिक दलों की राष्ट्रपति भवन तक पदयात्रा निकाली, उस वक्त राहुल छुट्टी पर थे, लेकिन लौटने के बाद वे इस संघर्ष के बीचोबीच अचानक कूद पड़े.
केदारनाथ के कपाट खुलने के बाद वे वहां भी गए ताकि तीर्थयात्रियों में एक संदेश भेजा जा सके कि वे सुरक्षित हैं और साथ ही हिंदुत्व पर पार्टी के नरम रवैये का भी प्रचार हो सके.
उन्होंने संसद में नेट न्यूट्रलिटी का मुद्दा उठाया और खुदकुशी कर चुके एक पूर्व फौजी से मिलने की कोशिश में उन्हें दो बार पुलिस ने हिरासत में लिया.
इसके बाद कुछ महीनों के दौरान उन्होंने और उनकी पार्टी ने बीजेपी के समर्थकों, नेताओं और यहां तक कि साध्वी निरंजन ज्योति से लेकर जनरल वीके सिंह जैसे मंत्रियों की गाली-गलौज वाली सांप्रदायिक व विभाजनकारी भाषा में झलकती असहिष्णुता पर अपनी आवाज उठायी.
दलितों के खिलाफ उत्पीड़न, अरुणाचल प्रदेश में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के तख्तापलट, दिल्ली के मुख्यमंत्री कार्यालय पर सीबीआई के छापे, कीमतों में इजाफे और वन रैंक वन पेंशन समेत नेशनल हेराल्ड के प्रकरण में भी पार्टी ने सक्रियता दिखाई जिसमें राहुल और उनकी मां को अदालत का मुंह देखना पड़ा था.
दिल्ली के क्रिकेट संघ डीडीसीए का 2013 तक प्रमुख रहने के दौरान लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे भाजपा नेता वित्त मंत्री अरुण जेटली का पार्टी ने इस्तीफा मांग लिया.
इससे पहले पार्टी ने पैसों की हेरफेर में कथित तौर पर आरोपी ललित मोदी को देश से भगाने में मदद करने के लिए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के इस्तीफे की मांग की थी.
मोदी पर वार
इन तमाम मुद्दों ने राहुल को मोदी पर वार करने और बीजेपी की गरदन ऐंठने के कई अवसर दिए. राहुल ने 'सूट-बूट की सरकार' और 'उद्योगपतियों की सरकार' जैसे तीखे जुमले गढ़े, तो अरहर की दाल महंगी होने पर मोदी के चुनावी नारे 'हर हर मोदी' को 'अरहर मोदी' कह कर चुटकी भी ली.
बढ़ती हुई असहिष्णुता के खिलाफ राष्ट्रपति भवन तक निकले मार्च में उन्होंने अपनी मां का साथ दिया.
हालिया मौका उन्हें 500 और 1000 के नोट बंद करने के सरकार के उस फैसले से मिला, जिसका उद्देश्य काले धन को बाहर लाना, आतंकियों की फंडिंग का रास्ता बंद करना, भ्रष्टाचार पर लगाम कसना और जाली मुद्रा पर निगरानी रखना था.
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने जहां यह दावा किया है कि वे नोटबंदी के बुनियादी उद्देश्य का समर्थन करते हैं, वहीं संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में इस परिवर्तनकारी कदम के अक्षम क्रियान्वयन पर उन्होंने सरकार की कठोर आलोचना की है क्योंकि इसके चलते लोगों को नकदी संकट से उबरने के लिए कई दिनों तक कतारों में खड़े रहने को बाध्य होना पड़ा है.
इस मसले पर दूसरी पार्टियों के मुकाबले तृणमूल खुद को सबसे ज्यादा आक्रामक दिखाने की कोशिश कर रही है. उसने फैसले को वापस लेने की मांग की है.
साथ ही बीजेपी के गठबंधन सहयोगी शिवसेना के साथ उसने राष्ट्रपति भवन तक मार्च भी किया है. अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी के साथ एक रैली की है, जंतर-मंतर के करीब एक प्रदर्शन किया और बुधवार को संसद भवन परिसर के भीतर स्थित महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने विरोध-स्वरूप 200 सांसदों की मानव श्रृंखला बनाने में दूसरी पार्टियों का साथ दिया है.
इस प्रदर्शन में परस्पर प्रतिद्वंद्वी पार्टियां, जैसे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी और तृणमूल और सीपीएम एक साथ शामिल रहे.
सोनिया ने राहुल को दिया मौका
इस धरने से चूंकि सोनिया दूर रहीं, इसलिए आकर्षण का केंद्र राहुल बने रहे जिन्होंने मोदी की नोटबंदी की कार्रवाई को दुनिया का सबसे बड़ा'बिना सोचे समझे किया गया वित्तीय प्रयोग' करार दिया.
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के लिए यह जरूरी है कि वे संसद को बताएं कि उन्होंने यह फैसला क्यों लिया और इसे उनके उद्योगपति मित्रों और बीजेपी के नेताओं को लीक क्यों किया गया.
राहुल ने कहा, 'प्रधानमंत्री एक पॉप कंसर्ट में भाषण देते हैं जहां नाच-गाना चल रहा है लेकिन दो सौ सांसद कह रहे हैं कि उन्हें देश को यह बताना है कि यह फैसला क्यों लिया गया तो प्रधानमंत्री संसद में नहीं आना चाहते. उन्हें भीतर जाने में डर क्यों लगता है. जरूर वे किसी चीज को लेकर घबराए हुए हैं.'
धरने में सबसे ज्यादा बयानबाजी राहुल ने ही की लेकिन उन्होंने यह बताने की जहमत नहीं उठायी कि उसकी अगुवाई कौन कर रहा है. उन्होंने दावा किया कि यह धरना देश की गरीब जनता की आवाज को सामने रखने के लिए आयोजित किया गया है.
राहुल की इस टिप्पणी को दो तरीके से समझा जा सकता है.
एक तो यह कि उन्हें अब भी एक ऐसे नेता के रूप में भविष्य की भूमिका के लिए तराशा जा रहा है जिसे सरकार के खिलाफ एक संयुक्त प्रदर्शन की अगुवाई करने के लिए विपक्ष स्वीकार कर लेगा.
इस लिहाज से देखें तो उन्हें पार्टी का अध्यक्ष बनाने में कहीं कोई दिक्कत नहीं आएगी. जिसकी तैयारी में सोनिया गांधी वैसे भी 2004 से ही लगी हुई हैं, जब वे सक्रिय राजनीति में आए थे. 2007 में वे महासचिव बने और उसके बाद 2013 में पार्टी के उपाध्यक्ष बन गए.
हकीकत यह है कि
प्रक्रिया यह है कि सोनिया को जब भी ऐसा उपयुक्त लगेगा, इस प्रस्ताव को औपचारिक रूप देने के लिए उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति की एक और बैठक बुलानी होगी.
दूसरा नजरिया यह है कि राहुल गांधी को अभी और दूरी तय करनी है, इससे पहले कि विपक्ष के नेता उनके लिए जगह बनाएं. हाल तक राहुल को जिम्मेदारियों से बचने वाला माना जाता रहा था.
उनकी यह छवि दो मौकों पर मजबूत हुई. पहली, जब उन्होंने कांग्रेसनीत यूपीए के सत्ता में रहते हुए मनमोहन सिंह की कैबिनेट में शामिल होने से इनकार कर दिया और दूसरी बार, जब 2014 के चुनाव के बाद लोकसभा में पार्टी की अगुवाई करने से उन्होंने इनकार कर दिया जिसके चलते यह काम मल्लिकार्जुन खड़गे को सौंपा गया.
ऐसा लगता है कि छुट्टी से लौटने के बाद राहुल हाजिरजवाबी में दक्ष हो गए हैं. मसलन, उनकी खाट सभा के दौरान खटिया लेकर भाग रहे किसानों को जब 'चोर' कहा गया, तो ऐसा कहने वालों को उन्होंने पलट कर जवाब दिया कि खटिया ले जाने वाले किसान 'चोर' जबकि बैंक का कर्ज चुकाए बगैर देश से भाग गए उद्योगपति 'डिफॉल्टर'.
इस दौरान हालांकि कुछ ऐसे मौके भी आए जब राहुल अपनी करनी से फंस गए. दलित उत्पीड़न पर हो रही चर्चा के दौरान उन्हें ऊंघता हुआ पाया गया, तो 'आलू की फैक्ट्री' वाले बयान पर वे पकड़े गए और एलओसी के पार आतंकी ठिकानों पर हुए सर्जिकल हमले पर राजनीति करने की बात कहते हुए उन्होंने मोदी पर 'खून की दलाली' करने का आरोप लगा डाला.
केवल अध्यक्ष बनना काफी नहीं
अभी यह देखा जाना बाकी है कि अध्यक्ष बनने के बाद विपक्ष की कतारों में उनका भाव बढ़ पाता है या नहीं.
राहुल को हालांकि अपनी मां के अतीत पर भी नजर डालनी होगी ताकि उन्हें यह अहसास हो सके कि महज मोदी पर- या फिर किसी भी प्रधानमंत्री पर- वार करने से ही कोई संपूर्ण नेता नहीं बन जाता.
सोनिया को ऐसी स्थिति तक पहुंचने में बरसों की कड़ी मेहनत से गुजरना पड़ा है, तब कहीं जाकर बाकी नेता उनका नेतृत्व स्वीकार करने को राजी हुए हैं.
सोनिया ने 1998 में जब राजनीति में कदम रखा था, उस वक्त कांग्रेस दलदल जैसी स्थिति में फंसी हुई थी.
उन्होंने अकेले दम पर जिस तरीके से पार्टी को वहां से बाहर निकाला, उसके चलते ही पार्टी के भीतर और अपने प्रतिद्वंद्वियों के बीच उन्होंने समान इज्जत हासिल की.
उन्होंने पार्टी की गरीब-समर्थक छवि बनाई, 'एकला चलो' की नीति को त्याग दिया, केंद्र में दो बार कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की सरकार बनाई और यहां तक कि पहली ही बार प्रधानमंत्री का पद लेने से इनकार कर दिया.
उन्होंने यूपीए का अध्यक्ष बनना स्वीकार किया और 2014 में पड़ी चुनावी मार के बावजूद उन्हें विपक्ष के सर्वाधिक कद्दावर नेता के रूप में देखा जाता रहा, जिसके चलते भूमि अधिग्रहण बिल के मुद्दे पर समूचे विपक्ष ने उनकी अगुवाई में पदयात्रा को निकालना मंजूर किया.
राहुल को पहले अपने कार्यकर्ताओं के बीच खुद को साबित करना होगा जिनका भरोसा उनके ऊपर से डगमगा चुका है. अपने संगठन में उन्हें खुद को साबित करना होगा जो सिलसिलेवार हुई पराजय से जर्जर हो चुका है.
उन्हें अपनी पार्टी के सामने खुद को साबित करना होगा जो फिलहाल एक ऐसे विश्वसनीय सामाजिक समीकरण के अभाव से जूझ रही है जो जनता की नब्ज पकड़ने में उसकी मदद कर सके.
यह बेहद चुनौतीपूर्ण काम है. क्या वे इसके लायक हैं? इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है.
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