नोटबंदी से पैदा संकट के सात हफ्ते बाद भी मोदी जिस तरह से टिके हैं, उस तरह भारत में कोई नेता या शायद किसी अन्य आधुनिक लोकतंत्र में कोई सियासी शख्सियत टिकी नहीं रह सकती थी.
अगर किसी को बतौर जन नेता उनकी प्रतिभा का सबूत चाहिए तो वह सबूत इन सात हफ्तों में साफ दिया दिख चुका है. इसे देखिए और इसकी सराहना करिए, क्योंकि हम वाकई एक करिश्माई नेता के दौर में रह रहे हैं?
कुछ संकेत तो हमें मिल रहे हैं कि सरकार पूरी तरह इस बात को नहीं समझ पाई कि मुद्रा संकट कितना गंभीर रूप ले सकता है.
पहला संकेत, प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी घोषणा के समय हालात सामान्य होने में लगने वाले समय को लेकर जो अनुमान व्यक्त किए, वे गलत निकले.
दूसरा संकेत, वह पहले से तय अपने जापान दौरे पर गए जबकि यहां देश में सब इस उधेड़बुन में लगे थे कि इस फैसले का देश की अर्थव्यवस्था पर किस हद तक असर होगा. जब तक वह जापान से लौटे तो साफ हो चुका था कि ये कतारें जल्दी खत्म होने वाली नहीं हैं.
कांग्रेस नोटबंदी लाती तो...
मोदी की शुरुआती घोषणा इतनी ताकतवर और ऊर्जा से भरपूर थी कि देश की जनता उसके साथ हो गई. मीडिया भी पूरी तरह उनके पक्ष में खड़ा दिखाई दिया.
घबराई हुई कांग्रेस ने भी इस कदम का समर्थन कर दिया जिससे उसके भीतर आत्मविश्वास की कमी जाहिर होती है. सिर्फ जमीन के जुड़े दो नेताओं ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने खतरे को पहचाना और इसका विरोध किया.
मोदी असल में जनता के एक बड़े हिस्से को अपने पक्ष में करने में कामयाब रहे. शायद इनमें वे करोड़ों लोग भी शामिल थे जिन्होंने मोदी को वोट नहीं दिया था लेकिन उन्होंने परेशानी होने पर उफ तक नहीं की क्योंकि उन्हें लगा कि एक बड़ा बदलाव हो रहा है.
जरा सोचिए कि अगर इस तरह का कोई फैसला मनमोहन सिंह ने लिया होता तो मीडिया और शहरी मध्य वर्ग में किस तरह हंगामा मच रहा होता. पूरी संभावना है कि प्रतिक्रिया उल्टी ही होती.
लोगों को इस तरह मुश्किल में डालने पर भारी रोष होता. और यही हालात सात हफ्ते तक जारी रहते, तो लोगों में जबरदस्त गुस्सा होता.
शायद गुस्सा अब पनप रहा है क्योंकि अब साफ हो गया है कि परेशानियां महीनों तक होने वाली हैं. लेकिन मोदी का अब तक भी टिके रहना वाकई कमाल की बात है.
ऐसे बदला रुख
उनकी प्रतिभा का दूसरा प्रदर्शन यह है कि कितनी जल्दी उन्होंने इस बात को पकड़ लिया कि नोटबंदी के नकारात्मक परिणाम उससे कहीं बड़े हैं जितने सोचा गए थे.
जापान से लौटने के बाद उन्होंने कई भाषण दिए. इन भाषणों में उन्होंने दो काम किए. पहला, उन्होंने देश की जनता से कहा कि वह देश का भला करना चाहते हैं और अपने मिशन के लिए उन्होंने अपने परिवार को भी त्याग दिया है. भाषण में एक लम्हा ऐसा भी आया जब वह रो पड़े.
यह शायद वह पल था जब उन्होंने अपने आप से स्वीकारा कि मामला शायद उनके हाथ से निकल रहा है.
दूसरा, उन्होंने कहा कि हालात 50 दिन से पहले सामान्य नहीं होंगे. इसके जरिए उन्होंने कुछ समय और मांग लिया ताकि अपनी रणनीति को नए सिरे से धार दे सकें. एक बार फिर उन्होंने मीडिया और बहस को अपने पक्ष में कर लिया और लोगों की समस्याओं पर से ध्यान भटका दिया गया.
मोदी के पास समय था कि वह चीजों के अपने आप स्थिर होने तक इंतजार कर सकते थे लेकिन इसके बजाय उन्होंने अपनी तरफ से एक समयसीमा दे दी. विपक्ष इसके लिए दबाव बनाता, इससे पहले ही मोदी ने अपना पत्ता फेंक दिया.
सब कुछ मोदीमय
यह उनका 50 दिन की परेशानियों वाला बयान ही था जिसने उन्हें यह सोचने की आजादी दी कि नोटबंदी को नए सिरे से पेश कर सकें. जैसा कि कुछ मीडिया संस्थानों ने लिखा है कि नोटबंदी पर उनके शुरुआती भाषण में डिजिटल इकॉनमी का कोई जिक्र नहीं था.
वह भाषण सिर्फ कालेधन, जाली मुद्रा और आतंकवाद तक सीमित था. बहस का रुख तो उनकी जापान से वापसी और उसके बाद दिए जाने वाले भाषणों से बदला है और बहस का रुख बदलने की वजह है मोदी की प्रतिभा और विश्वसनीयता.
कोई भी इसे अकेले उनके दिमाग की उपज कहेगा. विपक्ष ने कहा कि नोटबंदी का मूल उद्देश्य ही बदल दिया गया है लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि यह कोई यूनिवर्सिटी बहस प्रतियोगिता नहीं चल रही है. मोदी में लोगों को यह भरोसा दिलाने की काबलियत है कि सरकार का कदम अच्छा है और जो असुविधा हो रही है उसका आगे चल कर फायदा होगा.
इस नीति से होने वाले विशेष फायदे सियासत के लिए कोई अहमियत नहीं रखते. इसका सबूत तब मिल गया जब नोटबंदी के एक महीने बाद भी भारतीय जनता पार्टी को देश भर में चुनावी सफलता मिली. पंजाब में भी पार्टी कामयाब रही जहां वह सत्ता में है और सत्ता विरोधी लहर झेल रही है.
विपक्ष नदारद
दरअसल इस वक्त मोदी के लिए कोई विपक्ष ही नहीं है और वह पूरे सियासी परिदृश्य पर छाए हुए हैं. यह हैरानी वाली बात है क्योंकि नोटबंदी के कारण हर भारतीय पर नकारात्मक असर पड़ रहा है.
कांग्रेस के पास मौका था कि वह लोगों की परेशानियों से राजनीतिक फायदा उठा सके, लेकिन वह अब तक ऐसा करने में नाकाम रही है.
बहुत सारे लोग सार्वजनिक तौर पर नोटबंदी के खिलाफ बोलने से हिचकिचाते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि उन्हें बुरा भला कहा जाएगा.
मोदी ने आठ नवंबर के बाद जो हासिल किया वह भारत के किसी नेता ने हासिल नहीं किया है. लोकतांत्रिक राजनीति में ऐसा कारनामा करने वाले चंद ही नेता होंगे.
शायद 2017 में यह बदलेगा जब आठ नवंबर के बाद आने वाली दूसरी सैलरी स्लिप में नोटबंदी के असर दिखाई देंगे. फिलहाल तो यह मानना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री ने साबित कर दिया है कि वह जिस जगह पर हैं वहां अपनी किस्मत नहीं, बल्कि प्रतिभा के दम पर हैं और यह प्रतिभा है जनमत को अपने पक्ष में करने की और अपने साथ बनाए रखने की.
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