एक चालाक रणनीतिज्ञ के तौर पर नरेन्द्र मोदी की पहचान उनके पीएम बनने से पहले से रही है. लेकिन 8 नवंबर के बाद से बड़े पैमाने पर हम उनकी इस कारीगरी के गवाह रहे हैं. एक मुकम्मल कम्यूनिकेटर और गहरे रणनीतिकार मोदी ने इस पूरी व्यवस्था को साध लिया है और वे अपने राजनीतिक विरोधियों से कई कदम आगे रहते हैं.
नोटबंदी का इतना बड़ा फैसला लेना और गुप्त रूप से उसकी योजना बनाने से लेकर लागू करने तक का काम काफी जटिल था. यह स्वाभाविक था कि इस पूरी प्रक्रिया में प्रधानमंत्री को थोड़ी आलोचना सहनी पड़ती. इसे लागू करने में जो कमियां आईं और उसकी वजह से 125 करोड़ नागरिकों को जो मुश्किलें झेलनी पड़ी, कोई छोटा-मोटा नेता होता तो अभी तक हिल चुका होता. लेकिन मोदी नहीं. वे न सिर्फ शुरुआती संकट के बावजूद डटे रहे (यह देखना बाकी है कि वे बाद के झटकों से कैसे निपटते हैं), बल्कि पीएम इस पूरी प्रक्रिया से भले-चंगे और कुछ मामलों में ज्यादा मजबूत होकर निकले हैं. और वे ऐसा करने में इसलिए कामयाब रहे कि उनके पास एक दिलचस्प रणनीति थी.
यथास्थितिवादी नहीं हैं मोदी
पाकिस्तान पर सर्जिकल हमला हो या नोटबंदी का फैसला, अब तक हमें यह समझ लेना चाहिए कि मोदी यथास्थितिवादी नहीं हैं. वह टालने में यकीन नहीं करते. लेकिन फायदे-नुकसान का हिसाब लगाए बिना वे कोई फैसला नहीं लेते.
जैसा कि फ़र्स्टपोस्ट ने कई मौकों पर लिखा है,
नोटबंदी के असर को लेकर हुए कई सर्वे
उन्होंने ऐसा क्यों किया और क्यों उनकी रणनीति काम आई, इसे समझने के लिए हमें तीन अलग-अलग घटनाओं पर निगाह डालनी होगी. संसद की कार्यवाही में बाधा डालने का विपक्ष का फैसला, नरेन्द्र मोदी ऐप में काले धन पर जारी सवालों की सूची और आम लोगों पर नोटबंदी के असर को लेकर हुए कई सर्वे इसमें हमारी मदद कर सकते हैं.
पहले में उनके राजनीतिक विरोधियों का पूरा गुस्सा दिखता है. कांग्रेस से लेकर लेफ्ट, आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी तक पूरा संगठित विपक्ष अपनी काहिली को किनारे रख प्रधानमंत्री पर तीखा हमला शुरू कर दिया. नेता दो स्थितियों में एकजुट होते हैं: जब कोई मौका हो या खतरा. इस मामले में दिख रही विपक्ष की एकता खतरे की संभावना की वजह से है. उन्हें लगता है कि नोटबंदी से मोदी को जो फायदा मिलेगा, उससे इसे लागू किये जाने में हुई कमियां ढक जाएंगी.
नोटबंदी के खिलाफ संसद के सामने प्रदर्शन करते विपक्ष केे नेतागण.
इसलिए उनके विरोधियों को लगता है कि प्रधानमंत्री की रणनीति पर हमला करना जरूरी है. लेकिन ऐसा करने में उन्हें सावधान रहना होगा, नहीं तो वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में गलत जमीन पर खड़े नजर आ सकते हैं. काले धन को मिटाने के लिए चल रही मुहिम का विरोध करते हुए उन्हें नजर नहीं आना चाहिए. असल में, विपक्ष एक कोने में दुबक गया है जहां उनके पास सिर्फ तीन विकल्प ही हैं- पहला, लोगों को हुई परेशानी को सामने लाना और आंशिक या पूरे तौर पर नोटबंदी को वापस लेने की मांग करना. दूसरा, पीएम पर अनाप-शनाप हमले कर उनके कद को घटाने की कोशिश करना. तीसरा, तब तक संसद की कार्यवाही में बाधा पहुंचाते रहना, जब तक कि प्रधानमंत्री उनकी मांगों को न मान लें और सदन के पटल पर उनके सवालों का जवाब न दे दें.
मोदी इस बात को समझते हैं. यहीं दूसरी घटना महत्वपूर्ण हो जाती है- काले धन को लेकर जारी सवालों पर प्रतिक्रिया देने के लिए नागरिकों को आमंत्रित करना. इस प्रक्रिया में कोई भी नागरिक नरेन्द्र मोदी ऐप को डाउनलोड कर सकता है और काले धन के खिलाफ चल रही मुहिम से जुड़े 10 सवालों के जवाब दे सकता है. प्रधानमंत्री एक तरह से प्रातिनिधिक लोकतंत्र के तौर-तरीकों में गए बिना अपने कामों पर सीधा जनमत करा रहे हैं.
पीएम समझते हैं राष्ट्र की नब्ज
पीएम को लगता है कि राष्ट्र की नब्ज वे समझते हैं और हालिया सर्वे इसकी तस्दीक करते हैं. 21 नवंबर को हफिंग्टनपोस्ट इंडिया और बिजनेसवर्ल्ड के लिए सी-वोटर द्वारा 252 संसदीय क्षेत्र में कराए गए सर्वे के अनुसार लोग पूरी तरह इस मुहिम में पीएम के साथ हैं.
नोटबंंदी के फैसले के बाद पैसे निकालने और जमा करने के लिए बैंक की लाइन में खड़े लोग
नोटबंदी के 11 दिन बीत जाने के बाद नागरिक मंच लोकल सर्किल्स द्वारा कराए गए एक अन्य सर्वे में 200 शहरों के 9000 लोगों से बात की गई. जिसमें 97 फीसदी लोगों ने पीएम के फैसले का समर्थन किया. 51 फीसदी लोग इसे लागू करने के तरीकों से सहमत थे, जिसकी सबसे ज्यादा आलोचना हुई थी.
यही चीज मोदी के आत्मविश्वास की जड़ में है. इस फैसले के बाद से वे चार रैलियों में भाषण दे चुके हैं और ऐसा लगा कि लोग ‘उनके साथ’ हैं. हालिया उपचुनाव के नतीजों में बीजेपी ने अपनी सीटें बचा ली हैं और नार्थ ईस्ट के अपने वोट शेयर में बड़ा इजाफा किया है, जिससे यह बात ज्यादा ठोस तरीके से साबित होती है.
विपक्ष के लिए यह शुभ-संकेत नहीं है. वे गुस्से में उबल रहे हैं. जबकि उनकी बातों में कोई खास दम नहीं है. उनकी रणनीति में भी कोई निरंतरता नहीं है. कांग्रेस ने शुरुआत में सावधानीपूर्वक इस फैसले का समर्थन किया था और अब वह इसे ‘गैर-कानूनी’ कह रही है. वह कह रही है कि पीएम ‘विपक्ष का सामना करने और बहस में हिस्सा लेने से घबरा रहे हैं’ और जब मोदी बुधवार को लोकसभा पहुंचे तो उन्होंने हंगामा कर दिया और सदन को स्थगित करा दिया. अक्सर उनकी रणनीति अपमानजनक तरीके से प्रधानमंत्री पर हमला करने की होती है.
ममता बनर्जी ने जहां मोदी के खिलाफ धरना दिया, अरविंद केजरीवाल ने उनका इस्तीफा मांग लिया. राहुल गांधी ने नोटबंदी को एक ‘बड़ा घोटाला’ कह डाला, सीताराम येचुरी ने मोदी के खिलाफ अवमानना का नोटिस देने की धमकी दे डाली क्योंकि संसद में नहीं बोलकर 'पीएम संविधान की धज्जियां उड़ा रहे हैं’.
यह सबकुछ मोदी के पक्ष में जाता है. अगर प्रधानमंत्री पर हमले ज्यादा से ज्यादा निजी होंगे, तो ‘मोदी बनाम भ्रष्ट’ की बात भी मजबूत होगी.
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