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डेमोक्रेसी इन इंडिया पार्ट-7: सिस्टम में बदलाव के बावजूद सरकारी नीतियां असफल रही हैं

भारत का लोकतंत्र हुक्मरानों और जनता के बीच की दूरी पाटने में नाकाम रहा है. आज भी योजनाएं वो लोग बनाते हैं, जिनका इन्हें लागू करने से कोई वास्ता नहीं होता

Updated On: May 02, 2018 11:58 AM IST

Tufail Ahmad Tufail Ahmad

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डेमोक्रेसी इन इंडिया पार्ट-7: सिस्टम में बदलाव के बावजूद सरकारी नीतियां असफल रही हैं

(संपादक की ओर से- भारत गणराज्य अपने 70 बरस पूरे करने जा रहा है. ऐसे वक्त में पूर्व बीबीसी पत्रकार तुफ़ैल अहमद ने शुरू किया है, भारत भ्रमण. इसमें वो ये पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में लोकतंत्र जमीनी स्तर पर कैसे काम कर रहा है. तुफैल अहमद को इसकी प्रेरणा फ्रेंच लेखक एलेक्सिस डे टॉकविल से मिली. जिन्होंने पूरे अमेरिका में घूमने के बाद 'डेमोक्रेसी इन अमेरिका' लिखी थी. तुफ़ैल अहमद इस वक्त वॉशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं. वो भारत भ्रमण के अपने तजुर्बे पर आधारित इस सीरिज में भारत की सामाजिक हकीकत की पड़ताल करेंगे. वो ये जानने की कोशिश करेंगे भारत का समाज लोकतंत्र के वादे से किस तरह मुखातिब हो रहा है और इसका आम भारतीय नागरिक पर क्या असर पड़ रहा है. तुफ़ैल की सीरीज़, 'डेमोक्रेसी इन इंडिया' की ये सातवीं किस्त है.)

हम सदियों पहले होने वाले जिन भयंकर अकालों की बात सुनते थे, वो आधुनिक लोकतांत्रिक देशों में कमोबेश खत्म हो चुके हैं. इसकी वजह ये है कि लोकतंत्र में हुकूमतें, नागरिकों के प्रति जवाबदेह होती हैं. नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अपनी किताब, 'डेवेलपमेंट ऐज फ्रीडम' में एक अहम तर्क ये दिया है कि बंगाल में 1940 के दशक में आए भयंकर अकाल जैसी घटनाएं ज्यादातर उन इलाकों में हुईं, जहां पर स्थानीय लोग सत्ता में नहीं थे. इसीलिए ये बात बहुत तकलीफदेह है कि भारतीय लोकतंत्र में जहां सत्ताधारी लोग जनता के चुने होते हैं, वहां पर भी किसान खुदकुशी और प्रदर्शन करने को मजबूर हैं.

13 अप्रैल को भोपाल से करीब 250 किलोमीटर दूर नरसिंहपुर में किसानों ने सड़क पर टमाटर फेंककर कम कीमतों पर विरोध जताया. ठीक उसी दिन मुंबई मे मराठवाड़ा इलाके के किसानों ने मुख्यमंत्री के दफ्तर के सामने प्याज, बैंगन, हरी मिर्चें और नींबू फेंककर फसल की सही कीमत दिलाने में निजाम की नाकामी पर गुस्सा जाहिर किया.

ये समस्या देश के कई हिस्सों में है. ऐसा लगता है कि इसका ताल्लुक बेतरतीब विकास से है, जो देश में 1990 के दशक में लागू हुए आर्थिक सुधार के बाद से हो रहा है. किसानों के प्रदर्शन का एक मतलब ये भी है कि जो लोग नीतियां बनाते हैं, वो किसानों की नुमाइंदगी नहीं करते. या फिर, जो किसानों पर हुकूमत करते हैं, उनका किसानों की समस्याओं से कोई वास्ता नहीं.

किसानों की स्थिति को समझिए

आइए पहले हम किसी फसल चक्र को समझते हैं. अपने इस सफर के दौरान मैं अजमेर में शिवराज सिंह भाटी नाम के किसान से मिला. भाटी औसत दर्जे के किसान हैं. उनके पास करीब 12 बीघे जमीन है. वो आसान शब्दों में किसानों की दिक्कत बयां करते हैं. भाटी कहते हैं कि अगर आप मूंग की खेती करना चाहते हैं, तो आप को 12 बीघे में बोने के लिए 24 किलो मूंग के बीज चाहिए. ये 180 रुपए किलो के हिसाब से मिलते हैं. यानी भाटी को 12 बीघे जमीन पर मूंग की खेती के लिए 4320 रुपए बीज पर खर्च करने होंगे. इसके बाद खेत की जुताई और बुवाई के लिए आप को 400 रुपए बीघे के हिसाब से खर्च करना होगा, जो 12 बीघे के लिए 4800 रुपए का खर्च होता है. इसके बाद आप को फसल पर दो बार कीटनाशकों का छिड़काव करना होगा. एक ट्रैक्टर और चार मजदूरों की जरूरत भी होगी, जिसका खर्च करीब 8 हजार रुपए होगा.

फिर किसान को हर बीघे में तीन मजदूर चाहिए ताकि फसल से खरपतवार बीन सकें. ये मजदूर 250 रुपए रोजाना की मजदूरी पर मिलते हैं. यानी कुल 36 मजदूरों को किसान को 9 हजार रुपए देने होंगे. इसमें आप फसल को बाजार ले जाने से लेकर और छोटे-मोटे खर्च के रूप में 5000 हजार रुपए और जोड़ लें. तो, 12 बीघे में मूंग की खेती करने के लिए किसान को 31 हजार 120 रुपए लागत लगानी होगी. इसमें करीब 600 किलो मूंग की पैदावार होगी. अब ये मूंग बाजार में 40 रूपए किलो की दर से बिकेगी. यानी किसान को अपनी फसल की कुल कीमत मिलेगी 24 हजार रुपए. उसे 7 हजार 120 रुपए का घाटा होगा. भाटी का तर्क ये है कि अगर बारिश अच्छी होती है, किसान को मुफ्त बीज मिलता है, या वो दूसरी फसल भी बोता है, फिर भी किसान को घाटा ही होगा. उसके पास अपने बच्चों की तालीम के लिए और परिवार को खिलाने के लिए पैसे नहीं बचेंगे. भाटी कहते हैं कि, 'किसान के लखपति या करोड़पति बनने का कोई रास्ता नहीं है'.

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किसानों के सामने अधिकारियों और बैंकों से लड़ाई की मजबूरी भी

देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू होने के शुरुआती दशकों में एक उम्मीद ये थी कि कलेक्टर और पटवारी का रोल कम होगा. मैंने भाटी से पूछा कि सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य और फसल बीमा योजनाओं का कुछ फायदा होता है क्या? वो कहते हैं कि गांव का पटवारी ही किसानों की जमीन का रिकॉर्ड और फसलों को नुकसान की जानकारी सरकार को देता है, जिसके आधार पर मुआवजा तय होता है. पटवारी अक्सर जाति के आधार पर भेदभाव करते हैं. वो कमजोर तबके के किसानों के नुकसान को बहुत कम करके आंकते हैं.

जाति के समीकरण को हटा भी दें, तो ये हिंदुस्तान में सरकारी अधिकारियों का भ्रष्टाचार बहुत बड़ी समस्या है. अजमेर में मेरी मुलाकात सुशील पाल से हुई. वो एमटीटीवी इंडिया नाम का चैनल चलाते हैं. उन्होंने हाल ही में 9 निजी बैंकों का स्टिंग ऑपरेशन किया ताकि ये पता लगा सकें कि ये बैंक किस तरह से मुद्रा लोन बांटते हैं. नियम कहते हैं कि दस लाख रुपए तक के मुद्रा लोन बैंक बिना कोई प्रोसेसिंग फी और कागजात के देते हैं. इसके लिए न तो इनकम टैक्स रिटर्न देना होता है और न ही सिक्योरिटी जमा करनी पड़ती है.

सुशील पॉल के टीवी चैनल पर 10 अप्रैल को दिखाए गए पहले स्टिंग ऑपरेशन में तीन बैंकों की कारगुजारी का पर्दाफाश हुआ. अजमेर में निजी और सरकारी बैंकों की 347 शाखाएं हैं. इन बैंकों ने बैंक ऑफ बड़ौदा को मुद्रा लोन की जानकारी सरकार को देने का लीड बैंक बना रखा है.

सुशील पॉल कहते हैं कि, 'ये बैंक मुद्रा योजना के तहत जो भी आंकड़े दे रहे हैं, वो फर्जी हैं. गलत आंकड़े ऊपर तक पहुंचाए जा रहे हैं. ऐसे में इन आंकड़ों के आधार पर तय की गई जीडीपी विकास की दर भी गलत है'. वो ये भी कहते हैं कि मुद्रा योजना के नाम पर जो कर्ज बांटते हुए बैंक दिखा रहे हैं, वो असल में आम लोन हैं. लेकिन उन्हें मुद्रा योजना के तहत बांटा गया कर्ज बताया जा रहा है. सुशील पॉल सवाल उठाते हैं, 'अगर किसी को इन्कम टैक्स रिटर्न और सिक्योरिटी देकर ही कर्ज मिल रहा है, तो फिर ये मुद्रा लोन कैसे हुआ? अगर किसी इंजीनियरिंग के छात्र को स्टार्ट-अप शुरू करना है, तो वो मुद्रा योजना के तहत कर्ज कैसे ले?'.

अब सामान्य कर्ज को मुद्रा योजना के तहत लोन बताया जा रहा है. अब चाहे पटवारी हो या बैंक अधिकारी, निष्कर्ष ये है कि आम भारतीय रोजाना सत्ता में बैठे ऐसे भ्रष्ट लोगों के हाथों हारता है. सुशील पॉल का मानना है कि सरकारी योजनाएं कागज पर तो अच्छी दिखती हैं, लेकिन ये जमीनी मोर्चे पर इसलिए नाकाम हो जाती हैं, क्योंकि इनकी स्वतंत्र रूप से निगरानी नहीं होती.

Village women stand in a queue to get themselves enrolled for UID database system at Merta district in Rajasthan

सरकारी सिस्टम में बदलाव लेकिन नीतियां असफल

जब मैंने लोकतंत्र के हालात को समझने के लिए मध्य प्रदेश और राजस्थान का दौरा किया था, तो मेरी मुलाकात पहले अखिलेश अर्गल से हुई थी. वो भोपाल में अटल बिहारी वाजपेयी गुड गवर्नेंस ऐंड पॉलिसी एनालिसिस इंस्टीट्यूट से जुड़े हुए हैं. मैंने उनसे पूछा कि वो सरकारी सिस्टम में भ्रष्टाचार को लेकर आम आदमी के मन में जो निराशा है उसे कैसे देखते हैं. अर्गल ने कहा कि 'सरकारी सिस्टम में बड़ा बदलाव 1990 के दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के बाद से आया. हम ने देखना शुरू किया कि कैसे दूसरे देश अपने नागरिकों को सेवाएं दे रहे हैं. हम ने दूसरे देशों से प्रशासन की कई बातें सीखीं'. अर्गल ब्रिटेन के सिटिजन चार्टर की मिसाल देते हैं, जिसे पहले-पहल 1991 में लॉन्च किया गया था, ताकि सरकारी सेवाएं उन नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनें, जिनके लिए वो काम करती हैं.

इसका नतीजा ये हुआ कि 2010 में मध्य प्रदेश में पब्लिक सर्विस गारंटी एक्ट पारित किया गया. इस एक्ट में नागरिक को दी जाने वाली सेवा को किस वक्त के अंदर देना है, ये तय किया गया. ऐसी सरकारी गारंटी वाली सेवाओं में जमीन के रिकॉर्ड मुहैया कराना, जाति और आमदनी के प्रमाणपत्र देना, गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों को सेवा देना, सहकारी सेवाओं का रजिस्ट्रेशन, जन्म और मृत्यु प्रमाणपत्र देने जैसी कई सेवाएं शामिल की गईं, जिनका आम लोगों से ताल्लुक है. मध्य प्रदेश में शुरुआत में सर्विस गारंटी योजना के तहत 20 सरकारी सेवाओं को शामिल किया गया था. अब इनकी संख्या 300 तक पहुंच चुकी है. अखिलेश अर्गल कहते हैं कि, 'इस एक्ट को आज 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपनाया है, ताकि सरकारी सिस्टम से भ्रष्टाचार को मिटा सकें'. राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, यूपी और झारखंड में ऐसे ही कानून बनाए गए हैं.

अखिलेश अर्गल कहते हैं कि सरकार और नागरिक के बीच अधिकारियों की दखलंदाजी कम करने के लिए लोक सेवा केंद्रों की स्थापना की गई थी. आज ज्यादातर राज्यों में इन नियमों को न मानने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के सख्त कानून बने हैं. 2015 में मध्य प्रदेश सरकार ने ऐसे 274 अधिकारियों पर जुर्माना ठोका था.

आरटीआई से लेकर एजुकेशन सिस्टम में कमियां

अच्छे प्रशासन की दिशा में एक बड़ा कदम 2005 में उठाया गया था जब सूचना के अधिकार का कानून बना. आरटीआई की वजह से लोग आज सरकारी संस्थाओं से अहम जानकारियां हासिल कर सकते हैं. लेकिन इस एक्ट में भी कई खामियां हैं. उदयपुर में मेरी बातचीत खीमाराम काक से हुई. काक, विद्या भवन टीचर्स कॉलेज में लेक्चरर हैं. ये टीचर्स ट्रेनिंग के लिए बने 8 महाविद्यालयों में से एक है. ये सरकारी अध्यापकों को नौकरी से पहले और नौकरी के दौरान ट्रेनिंग देते हैं.

काक बताते हैं कि ऐसे कॉलेज ऑफ टीचर्स एजुकेशन की स्थापना 1988 में हुई थी. केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इसका पूरा खर्च उठाया था. राजस्थान इस मामले में इसलिए अलग था क्योंकि दूसरे राज्यों में निजी कॉलेजों को ही सीटीई यानी अध्यापकों की ट्रेनिंग का कॉलेज बना दिया गया था. राजस्थान में अध्यापकों की ट्रेनिंग का इससे पहले कोई सिस्टम नहीं था. आज की तारीख में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय इन कॉलेजों के कुल खर्च का 65 फीसद देता है. बाकी की 35 फीसद रकम राज्य सरकार देती है.

काक ने आरटीआई से जानकारी मांगी की इन सीटीई में किन नियमों के तहत भर्ती होती है. उन्हें कुछ जानकारी हासिल हुई, जिससे ये पता चला कि 1988 के बाद से इन कॉलेजों में कोई भी दलित या आदिवासी लेक्चरर बहाल नहीं किया गया था. इन कॉलेजों के प्रमुखों ने तमाम ओहदे अपने रिश्तेदारों में बांट दिए थे. यहां तक कि लेक्चरर पद के लिए विज्ञापन भी यूनिवर्सिटी ग्रांट्स् कमीशन के नियमों के हिसाब से नहीं दिए गए थे.

एक बार राज्य के सूचना अधिकारी ने खीमाराम काक को एक सुनवाई के लिए बुलाया. सुनवाई में न आने पर उनकी आरटीआई की अर्जी खारिज कर दी गई. काक बताते हैं कि उन पर जुर्माना लगाने की चेतावनी भी दी गई. काक ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय से लेकर केंद्रीय सूचना आयोग, राज्य सरकार के मुख्य सचिव और बीकानेर के शिक्षा निदेशक से लेकर कई अन्य सरकारी दफ्तरों में में अब तक सूचना के अधिकार की 200 अर्जियां लगाई हैं.

काक बताते हैं कि इनमें से ज्यादातर सरकारी संस्थाओं ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है. वो आरटीआई का जवाब देने के लिए दूसरे विभाग की तरफ ये कहकर इशारा कर देते हैं कि उनके पास ये अहम जानकारी नहीं है. अब काक ने जोधपुर हाईकोर्ट में अर्जी दी है. लेकिन सीटीई और सरकारी वकील इस मुकदमे पर नोटिस का जवाब नहीं दे रहे हैं, जिसकी वजह से काक को जानकारी मिलने में और देरी हो रही है.

जिन आरटीआई नियमों के तहत खीमाराम काक सरकारी संस्थाओं से जानकारी चाहते हैं, वो भारत में बेहतर प्रशासन के लिए बुनियादी जरूरत हैं. ऐसा नहीं है कि सरकार सिर्फ काक को जानकारी देने से मना कर रही है. अभी मार्च में ही जनता के पैसे से चलने वाली एयर इंडिया ने प्रधानमंत्री के विदेश दौरों पर आने वाले खर्च की जानकारी देने से ये कहकर मना कर दिया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय से ऐसी जानकारी देने को मना किया गया है.

A veiled woman farmer harvests a wheat crop in a field on the outskirts of Ajmer

लोकतंत्र हुक्मरानों और जनता के बीच दूरियां पाटने में नाकाम रहा है

अकाल खराब प्रशासन की वजह से होते हैं, ये बात समझने वाले अमर्त्य सेन पहले विद्वान नहीं थे. अल मुकद्दीमा में ट्यूनिशिया के लेखक इब्न खालदून ने भी यही बात कही है. खालदून के मुताबिक अकाल इंसानों की वजह से आते हैं. किसानों की खुदकुशी और बढ़ते विरोध-प्रदर्शन बताते हैं कि आज भी भारत के हुक्काम, जनता से कटे हुए हैं.

अखिलेश अर्गल कहते हैं कि हर सियासी दल की रणनीति का केंद्र नागरिक को होना चाहिए. लेकिन सवाल ये है कि अगर सभी पार्टियां नागरिक को ध्यान में रखकर रणनीति बनाएं, तो भी क्या उनके पास देश और समाज के लिए कोई दूरदर्शी योजना है? अर्गल सही कहते हैं. आज की तारीख में तो जाति और धर्म, विकास और नागरिक की भलाई से ज्यादा अहम हो गए हैं. राजनैतिक पार्टियां इन्हीं की बुनियाद पर जोड़़-तोड़ करती हैं. इसके अलावा रणनीति बनाने वालों का जमीनी हकीकत से वास्ता न होने से खराब प्रशासन की बुनियाद पड़ती है. कामयाबी से चुनाव और सत्ता हस्तांतरण ही लोकतंत्र के अहम पहलू नहीं हैं.

भारत का लोकतंत्र हुक्मरानों और जनता के बीच की दूरी पाटने में नाकाम रहा है. आज भी योजनाएं वो लोग बनाते हैं, जिनका इन्हें लागू करने से कोई वास्ता नहीं होता. इस चुनौती को कम करने में पंचायती राज संस्थाएं कारगर हो सकती हैं. मगर वो अभी शुरुआती दौर में ही हैं. उनके पास आर्थिक अधिकार नहीं हैं. न ही विकास की योजनाएं बनाने में इन संस्थाओं की राय ली जाती है.

ग्राम पंचायतों को और अधिकार देकर उन्हें स्थानीय योजना आयोग के तौर पर विकसित किया जाना चाहिए. हमें इस बात पर भी चर्चा करनी चाहिए कि क्या बैंकों के स्थानीय मैनेजर-अधिकारी और पुलिस थानों के प्रमुखों को भी स्थानीय लोगों के बीच से ही चुना जाना चाहिए, ताकि उनकी जवाबदेही तय हो सके. फिलहाल तो भारत के हुक्मरान, चुने हुए प्रतिनिधि, मंत्री हों या मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री और सरकारी अफसर, ये भी जनता के प्रति जवाबदेह नहीं हैं.

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