बीजेपी सरकार ने एफसीआरए एक्ट के तहत जेएनयू-डीयू और आईआईटी दिल्ली समेत कई और विश्वविद्यालयों के फॉरेन फंडिंग लाइसेंस कैंसिल कर दिए हैं. इस निर्णय के पीछे सरकार का तर्क है कि इन संस्थानों ने 2011 के बाद से अपनी विदेशी फंडिंग का कोई ब्योरा नहीं दिया है, इस वजह से इनके अधिकार छीने जा रहे हैं.
सरकार का ये कदम कानूनी रूप से तो बिल्कुल ठीक है लेकिन जिस तरह से ये खबरों में आया वो बात बीजेपी के लिए चिंताजनक है. ज्यादातर खबरों में जेएनयू और डीयू का इस्तेमाल हेडलाइंस में किया गया. सरकार ने जिस दिन ये निर्णय लिया वो भी परसेप्शन बनाने में बेहद कारगर है.
बीजेपी की नीतियों की वजह से एबीवीपी का ग्राफ लगातार गिर रहा है
ठीक एक दिन पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन के चुनाव में एनएसयूआई ने एबीवीपी को जबरदस्त पटखनी दी थी. हफ्ते भर पहले जेएनयू में लेफ्ट यूनिटी ने क्लीन स्वीप किया है. इसके अलावा पंजाब यूनिवर्सिटी, राजस्थान यूनिवर्सिटी, गुवाहाटी यूनिवर्सिटी, डिब्रूगढ़ यूनिवर्सिटी में भी एबीवीपी को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा.
स्टूडेंट पॉलिटिक्स के ये नतीजे मुख्य राजनीति से बिल्कुल उलट क्यों हैं, इसकी कई तरीके से व्याख्या की जा सकती है. लेकिन एक महत्वपर्ण वजह साफ नजर आती है और वो बीते सालों में छात्रों के बीच बनी बीजेपी की एंटी कैंपस छवि.
2014 में केंद्र में सरकार बनने के बाद से ही एक के बाद एक कई ऐसे घटनाक्रम हुए जिससे बीजेपी को भले ही फायदा हुआ हो लेकिन देश के अलग-अलग यूनिवर्सिटी कैंपस में एबीवीपी को नुकसान ही हुआ.
शुरुआत संघ लोक सेवा आयोग अंग्रेजी को प्राथमिकता देने के विरोध में हुए हिंदी आंदोलन से हुई. इसके बाद पीएचडी स्टूडेंट की फेलोशिप को लेकर जमकर बवाल हुआ. इसके विरोध में जेएनयू के छात्रों ने ऑक्यूपाई यूजीसी आंदोलन चलाया.
फिर 9 फरवरी 2016 को जेएनयू कैंपस में राष्ट्रविरोधी नारे लगाने का मामला हुआ. इसमें जेएनयू के तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार गिरफ्तार किए गए. छात्रों के बीच इसे लेकर बीजेपी की किरकिरी ही हुई. इसके बाद ओस्मानिया विश्वविद्यालय में दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद जिस तरीके परिस्थितियां उपजीं वो भी बीजेपी के लिए निराशाजनक ही हैं.
इस साल जब केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पीएचडी और एमफिल के टेस्ट का टाइम आया तो खबर आई कि सीटें पहले की तुलना में बेहद कम हो गई हैं. ये तो वो कुछ मामले हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बने.
इन सभी मामलों में केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी की सरकार कोई स्पष्ट जवाब देने में नाकामयाब रही. बीजेपी अपने निर्णयों को लेकर कई बार उहापोह में भी दिखी. लेकिन किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए सबसे जरूरी बात है कि वो अपने चुनाव जीतती रहे, और ऐसा बीजेपी के साथ लगातार हो रहा है. ऐसे शायद उसके नेताओं को ये बात समझने की जरूरत भी नहीं पड़ी कि उनके कई निर्णयों की वजह से कैंपस में उनके विरोध में माहौल बन रहा है.
दो बातें तो कम से कम जरूर ऐसी रहीं जिनका असर छात्रसंघ के नतीजों पर पड़ा. एक तो फेलोशिप और दूसरा यूनिवर्सिटी में सीट कट का मामला. इससे छात्र सीधे तौर पर प्रभावित हुए. इसके अलावा बेरोजगारी का मुद्दा भी एक जरूरी फैक्टर है. यूनिवर्सिटी कैंपस के बाहर भले ही लोग इन सब बातों को महत्व न दें लेकिन यूनिवर्सिटी के भीतर इन मामलों पर संवेदनशीलता काफी ज्यादा होती है.
युवाओं का विरोध बीजेपी के लिए खतरा साबित हो सकता है
कमाल की बाते ये है कि ये सबकुछ उस दौर में हो रहा है जब माना जाता है कि बीजेपी अपने प्रचार अभियान में सबसे ज्यादा मजबूत है. अक्सर बीजेपी पर आरोप भी लगता है कि वो अपने प्रचार तंत्र की मजबूती की वजह से बातों को मैनिपुलेट कर सकने में कामयाब होती है. लेकिन उसका स्टूडेंट विंग अपने प्रचार में लगातार नाकामयाब साबित हो रहा है. कहा जा सकता है कि इसके पीछे बीजेपी की छवि भी काफी मायने रख रही है.
कैंपस के भीतर विद्यार्थियों को ये समझा पाना मुश्किल हो रहा है कि बीजेपी की नीतियां छात्र विरोधी नहीं हैं. अभी यूपी में भी कई विश्वविद्यालयों चुनाव होने बाकी है. एबीवीपी के असफल होते हुए प्रयासों को देखते हुए बीजेपी कैंपस में अपनी छवि को लेकर सजग हो जाना चाहिए.
जैसे तमाम मुद्दों पर बीजेपी विपक्षी दलों को मात दे रही है ठीक उसी तरह स्टूडेंट पॉलिटिक्स में भी छवि निर्माण की कोशिशों को तेज किया जाना जरूरी है. अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद और मनोज सिन्हा जैसे कई दिग्गज नेता पार्टी में मौजूद हैं जो एबीवीपी के रास्ते ही यहां तक पहुंचे हैं. समय है कि उन्हें छात्र संगठन की गतिविधियों पर निगाह रखनी चाहिए.
बीजेपी को स्टूडेंट पॉलिटिक्स को इसलिए भी गंभीरता से लेना चाहिए क्योंकि इससे पहले इमरजेंसी के समय जहां से इंदिरा गांधी के खिलाफ जो पहली आवाजें उठी थीं वो छात्र राजनीति ही थी. उस समय के कई छात्र नेता आज हमारी राजनीति के सबसे बड़े नेताओं में शुमार किए जाते हैं.
मेनस्ट्रीम राजनीति में उलझी बीजेपी भले ही इस बात को न समझ पा रही हो लेकिन उसके लिए ये बेहद महत्वपूर्ण है कि युवा उसके बारे में बेहतर खयाल रखें. क्योंकि युवाओं का स्वभाव भी कुछ ऐसा होता है कि एक बार जिसके समर्थन में आए तो खुल कर करते हैं नहीं तो सूपड़ा साफ करने में देर नहीं लगाते. कई राज्यों के छात्रसंघ चुनाव इसके प्रमाण हैं.
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