कांग्रेस पार्टी के लिए दिल्ली में चल रही मौजूदा राजनीतिक लड़ाई के काफी अहम मायने हैं. कांग्रेस पार्टी दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के मुकाबले ज्यादा कमजोर है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और लेफ्टिनेंट गवर्नर (एलजी) अनिल बैजल के बीच चल रहे संघर्ष में तटस्थ रहने के कांग्रेस के फैसले को लेकर काफी आलोचना हुई है. खास तौर पर एक और राज्य में एक और लेफ्टिनेंट गवर्नर के इसी तरह के बर्ताव के संबंध में इस तरह की आलोचना हो रही है. हालांकि, जाहिर तौर पर पुडुचेरी और मुख्यमंत्री वी नारायणस्वामी की हालत कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की प्राथमिकता सूची में नहीं है.
अगर कांग्रेस के बारे में ईमानदारी से बात की जाए, तो केजरीवाल की राजनीति को लेकर, गैर-परंपरागत और कुछ नहीं छोड़ने वाले रवैये के कारण देश की सबसे पुरानी पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस आम आदमी पार्टी को लेकर काफी सतर्क हो गई है.
अब भी परंपरागत मॉडल पर राजनीति करती है कांग्रेस
कांग्रेस में अब भी राजनीति के पुराने स्कूल को लेकर काफी सम्मान है. यानी पार्टी का नजरिया काफी हद तक संसदीय लोकतंत्र के वेस्टमिनिस्टर मॉडल पर केंद्रित है. राजनीतिक लोक-लज्जा और मर्यादा को लेकर कांग्रेस की समझ यह कहती है कि मौजूदा मुख्यमंत्री की तरफ से विरोध-प्रदर्शन सांकेतिक और तात्कालिक होना चाहिए और उसके द्वारा गिरफ्तारी दिया जाना बिल्कुल उचित नहीं है.
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नाम लेकर हमला करने, शर्मसार करने और बेबुनियाद और अनर्गल आरोप लगाने का आइडिया पार्टी के लिए अभिशाप जैसा मामला है. इस संदर्भ में राजनीति को लेकर कांग्रेस और 'आप' का नजरिया बिल्कुल अलग है. 'व्यवहारवाद' की मजबूरियां भी कांग्रेस को 'अलग रहने' और सीधे तौर पर सक्रियता नहीं दिखाने को मजबूर कर रही हैं.
केंद्र की तरफ से केजरीवाल सरकार को बर्खास्त किए जाने की स्थिति में (जिसकी संभावना बेहद कम है) कांग्रेस के पास बड़ी अजीब स्थिति होगी. उसे इस घटनाक्रम को बलिदान मानते हुए बाहर किए गए शख्स का बचाव करना होगा या फिर दूसरे विकल्प की तरफ देखना होगा, जहां हर कोई इस कदम के खिलाफ और समर्थन में कुछ कह रहा होगा.
2015 में आप के पाले में चले गए कांग्रेस के ज्यादातर वोटर
कांग्रेस दिल्ली की राजनीति में पांव जमाने और खोए हुए अपने वोटरों को फिर से हासिल करने के लिए काफी परेशान है. उसके वोटरों में मुसलमान, कमजोर समुदाय के लोग और कारोबारी थे, जो 2015 में आप के पाले में चले गए. दिल्ली में एक भी सीट हासिल नहीं करने, शीला दीक्षित की जमानत जब्त हो जाने को लेकर अपमान की भावना अब भी उन लोगों के दिमाग में ताजा है, जो 24 अकबर रोड और राजीव भवन, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग के दफ्तरों पर काबिज हैं.
दरअसल, कांग्रेस के ज्यादातर दिग्गज का एक ही जैसा हश्र हुआ और कांग्रेस राष्ट्रीय राजधानी की सिर्फ 8 विधानसभा सीटों पर अपनी जमानत बचाने में सफल रही थी. इनमें चांदनी चौक, मटिया महल, मुस्ताफाबाद, सीलमपुर, बादली, लक्ष्मी नगर, जंगपुरा और गांधी नगर शामिल थीं. दिल्ली में विधानसभा की कुल 70 सीटें हैं.
यह बात सबको पता है कि अजय माकन और शीला दीक्षित, दोनों के बीच आपस में नहीं बनती है, लेकिन दोनों का राहुल गांधी पर काफी प्रभाव है. लिहाजा, कांग्रेस पार्टी के युवा अध्यक्ष संवैधानिक मुद्दों और राजनीतिक विपक्ष को लेकर रुख के बीच सामंजस्य बिठाने की संभावनाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं.
कांग्रेस ने कई बार किया था दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का वादा
राहुल गांधी पार्टी के घोषणापत्रों की भी अनदेखी कर रहे हैं, जिनमें बार-बार दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने का वादा किया गया है. हालांकि, यूपीए सरकार के 10 साल के शासन काल (2004 से 2014) में इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई.
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बहरहाल, दिल्ली में इस शिथिलता के मद्देनजर कांग्रेस पार्टी पर इसका असर होना तय है. अगर इस खींचतान और लड़ाई में केजरीवाल लड़खड़ाते हैं और नाकाम रहते हैं, तो अगला चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस के मुकाबले बीजेपी ज्यादा बेहतर स्थिति में होगी. ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू पिनाराई विजयन और एच डी कुमारस्वामी जैसे तीसरे मोर्चे के प्रमुख किरदार विपक्षी एकता की आड़ में केजरीवाल के लिए ज्यादा प्रेम दिखा रहे हैं.
अगर दिल्ली में किसी भी तरह की अहम गतिविधि होती है, तो ऐसी स्थिति में महज मूकदर्शक बने रहने वाले संगठन के मुकाबले कथित तौर पर दमन करने वाले और इसका 'शिकार'होने वालों को ज्यादा बेहतर प्लेटफॉर्म मिलने की संभावना है. कांग्रेस को अपने रणनीति और रुख को लेकर ज्यादा तेजी से काम करने की जरूरत है.
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