नरेंद्र चंचल का एक मशहूर भजन है, 'राम से बड़ा राम का नाम अंत में निकला ये परिणाम.' दिल्ली एमसीडी के परिणाम बता रहे हैं कि मोदी से बड़ा मोदी का नाम है.
प्रचंड बहुमत से सत्ता में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के कुछ महीने बाद दिल्ली असेंबली इलेक्शन में अपनी पार्टी के लिए धुआंधार कैंपेन किया था. लेकिन बीजेपी को 70 में सिर्फ 3 सीटें मिली थीं.
एमसीडी चुनाव में मोदी ने कोई कैंपेन नहीं किया. सिर्फ उनके पोस्टर लगाकर बीजेपी एमसीडी में अपने दस साल की एंटी इनकंबेंसी और भ्रष्टाचार के आरोपों से ऊपर उठ गई.
जगह-जगह फैले कचरे को पार करता बीजेपी का विजय रथ दिल्ली के तीनों कॉरपोरेशन तक पहुंच गया और कमल निशान वाले झंडे फिर से लहराने लगे.
बीजेपी की जीत से बड़ी केजरीवाल की हार
जिस तरह मोदी से बड़ा मोदी का नाम साबित हुआ, उसी तरह एमसीडी के नतीजे बीजेपी की जीत से ज्यादा केजरीवाल की हार साबित हुए. चारों तरफ इसी हार के चर्चे हैं. बीजेपी नेता भी केजरीवाल की हार का जश्न मना रहे हैं. आखिर क्या वजह है कि हांफते, खांसते और खिसियाते केजरीवाल के लिए मोदी नहीं उनके पोस्टर ही काफी साबित हुए?
भारत में सत्ता की लड़ाई आमतौर पर आइडयोलॉजी से ज्यादा शख्सियतों की लड़ाई होती है. आप के उभार के बाद से पूरे देश में वैकल्पिक राजनीति पर एक नई बहस शुरू हुई थी. कई लोग यहां तक कहने लगे थे कि कांग्रेस पार्टी सिकुड़ रही है और ऐसे में देश की भावी राजनीतिक लड़ाई बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच ही होगी.
अरविंद केजरीवाल ने इस मौके को भांपते हुए अपना पूरा जोर एक राष्ट्रीय नेता बनने पर लगाया. सबसे पहले उन्होंने वाराणसी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ा. दिल्ली विधानसभा में मिली जीत ने उन्हें ये साबित करने का मौका दिया कि वे ना सिर्फ नरेंद्र मोदी से टकरा सकते हैं बल्कि जीत भी सकते हैं. केंद्र और दिल्ली सरकार के टकराव ने भी मोदी बनाम केजरीवाल की कहानी को आगे बढ़ाया.
'सब मिले हुए हैं जी’
पहली बार मुख्यमंत्री की शपथ लेते वक्त अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी के तमाम कार्यकर्ताओं से कहा था, 'हम दूसरों का अहंकार मिटाकर यहां तक आए हैं. कभी अहंकार मत करना, वर्ना जनता तुम्हें मिटा देगी.'
यह अपील एक ऐसी बात साबित हुए जिसपर आम आदमी पार्टी के मंत्री और विधायक नहीं खुद केजरीवाल तक ने अमल नहीं किया. वक्त के साथ उनकी इमेज एक ऐसे नेता की बनती गई जिसमें अपनी ईमानदारी का जरूरत से ज्यादा गुरुर है, जो अपने अलावा पूरी दुनिया को बेईमान मानता है. वह हमेशा इल्जाम लगाता है लेकिन सफाई कभी नहीं देता. वह समस्याएं तो बताता है लेकिन समाधान नहीं.
सबकुछ थोक में है जी
केजरीवाल को 2014 के विधानसभा में थोक में वोट मिले थे. उनके खाते में इतने विधायक आ गए कि गिनती भी याद ना रहे. इतना थोक माल केजरीवाल संभाल नहीं पाए. उनकी हालत उस गरीब बाप जैसी हो गई जिसके दर्जन भर बच्चों में किसी को ततैया काट खाती है, कोई पेड़ से गिर जाता है तो कोई मेले में गुम हो जाता है.
आप के विधायक जेल गए. भ्रष्टाचार और अनैतिकता के आरोपों में घिरे मंत्रियों को उन्हे निकालना पड़ा. फिर भी ईमानदार दिखने की ये तमाम कोशिशों के बीच उनकी छवि एक ड्रामेबाज नेता की बनती चलती गई.
केजरीवाल ने दुश्मनों पर इल्जाम भी थोक में लगाए. आरोप और शिकायतों का पुलिंदा उन्होंने इस तरह खोला कि ना तो खुद उन्हें और ना मीडिया को याद रहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री ने कब और किसके खिलाफ क्या कहा था.
केंद्र, मोदी और बीजेपी पर लगाए गए केजरीवाल के हर आरोप बेहद संगीन थे. किसी भी आरोप का फॉलोअप वो पेश नहीं कर पाए. नतीजा ये हुआ कि उनकी बातों की अहमियत कम होती चली गई.
केंद्र सरकार और एलजी की कथित ज्यादतियों से मिली हमदर्दी भी धीरे-धीरे खत्म होने लगी और लोग उन्हें एक ऐसा सीएम मानने लगे जो सिर्फ रोता रहता है.
आगे जाने राम क्या होगा?
'आप' एक ऐसे दौर में उभरी थी जब भारतीय राजनीति में विकल्पहीनता और नाउम्मीदी का दौर था. आप के गुब्बारे में हवा जिस तरह भरी, उसी तरह हवा निकलती हुई भी दिखाई दे रही है.
ऐसा नहीं है कि दो साल के कार्यकाल में आप ने कोई काम नहीं किया. मुहल्ला क्लीनिक से लेकर सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार तक दिल्ली सरकार के खाते में बहुत कुछ है. इसके बावजूद एमसीडी के नतीजे को केजरीवाल की उल्टी गिनती माना जा रहा है, आखिर ऐसा क्यों है?
दरअसल राजनीतिक अनुभवहीनता ने केजरीवाल के लिए लगातार मुश्किलें खड़ी की हैं. आप के 21 विधायकों की सदस्यता खतरे में है. अगर ये विधायक डिस्क्वालीफाई हो जाते हैं तो फिर पार्टी की ताकत कम हो जाएगी.
केजरीवाल को ठिकाने लगाने के मिशन पर बीजेपी लगातार काम कर रही है. अगर विधायक डिस्क्वालीफाई होते हैं तो पार्टी में टूट की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता.
क्या वापसी मुमकिन है?
राजनीति में वापसी हमेशा संभव होती है. आम आदमी पार्टी ने पहले भी कई बार बड़ी गलतियां की हैं और जनता ने माफ किया है. 49 दिन की सरकार के दौरान बीच सड़क पर धरना देते हुए सरकार चलाने के ड्रामे से भी पार्टी की बेहद निगेटिव इमेज बनी थी, लेकिन जनता ने माफ किया.
केजरीवाल की रैली के दौरान एक आदमी ने सरेआम फांसी लगा ली, वक्त के साथ जनता इस बात को भी भूल गई लेकिन अनगिनत माफियों के बावजूद केजरीवाल सीखने या बदलने को तैयार नहीं दिख रहे हैं. उनकी कार्यशैली वही है ईमानदारी का अभिमान, कार्यकर्ताओं से दूरी और सिर्फ इल्जाम सफाई बिल्कुल नहीं.
ऐसे में वैकल्पिक राजनीति का एक प्रयोग जिसपर बहुत से लोगों ने भरोसा किया, वह गंभीर खतरे में दिखाई दे रहा है. एमसीडी चुनाव नतीजों के बाद केजरीवाल को अदरक वाली कड़क चाय पीते बाबा नागार्जुन की ये कविता पढ़नी चाहिए.
बाकी बच गया अंडा
पांच पूत भारत माता के, दुश्मन था खूंखार, गोली खाकर एक मर गया, बाकी रह गए चार. चार पूत भारत माता के, चारों चतुर-प्रवीन, देश-निकाला मिला एक को, बाकी रह गए तीन. तीन पूत भारत माता के, लड़ने लग गए वो, अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच गए दो. दो बेटे भारत माता के, छोड़ पुरानी टेक, चिपक गया है एक गद्दी से, बाकी बच गया है एक. एक पूत भारत माता का, कंधे पर है झंडा, पुलिस पकड़ के जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा.
क्या अंडे यानी शून्य से शुरू हुआ केजरीवाल का सफर अंडे पर जाकर खत्म होगा? आम आदमी पार्टी को आप चाहे कितना भी नापसंद करें लेकिन वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद का अंत भारतीय राजनीति के लिए कोई शुभ संकेत नहीं होगा.
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