दिल्ली की सत्ता पर 15 सालों तक राज करने वाली शीला दीक्षित के हाथों में एक बार फिर प्रदेश कांग्रेस की बागडोर आ गई है. आने वाली 31 मार्च को शीला दीक्षित 81 साल की हो जाएंगी. 81 साल की उम्र में शीला दीक्षित को ऐसे प्रदेश की कमान सौंपी गई है, जहां कांग्रेस पार्टी का जनाधार लगभग खत्म हो चुका है.
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिरकार 81 साल की एक बुजुर्ग महिला पर कांग्रेस पार्टी ने क्यों और क्या सोच कर विश्वास किया? क्या 2019 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के सामने एक बड़ी लकीर खींच दी है? क्या अजय माकन का प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना किसी रणनीति का हिस्सा था? या फिर कांग्रेस पार्टी के पास शीला दीक्षित के आलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था?
जानकारों की मानें तो दिल्ली कांग्रेस की दूसरी पंक्ति के नेताओं में दमखम और जोश का घोर अभाव है. शीला दीक्षित इस उम्र में जोश और दमखम रखने का मादा रखती हैं. अरविंदर सिंह लवली, हारुन यूसुफ, योगानंद शास्त्री, जयप्रकाश अग्रवाल और महाबल मिश्रा जैसे नेता कहने के लिए तो हैं पर वह इतने सालों के बाद भी अपने-अपने इलाके से बाहर नहीं निकल पाए हैं. शीला दीक्षित का पंजाबी, मुस्लिमों, पूर्वांचली, पहाड़ी और ब्राह्मण वोटरों में अच्छी पकड़ है.
दिल्ली की जनता एक बार फिर शीला दीक्षित को याद कर रही है
वहीं पार्टी के ही कुछ लोगों का मानना है कि शीला दीक्षित के जाने के बाद कांग्रेस के बचे नेताओं में दमखम का अभाव नजर आया. शीला दीक्षित आज भी उतनी लोकप्रिय हैं, जितनी 2000 से 2010 तक थीं. हां, अन्ना आंदोलन और राष्ट्रमंडल खेल में घोटाले को लेकर उनकी छवि कुछ सालों के लिए जरूर खराब हो गई थी. लेकिन, लगभग पांच साल तक अरविंद केजरीवाल की सरकार को देखने के बाद दिल्ली की जनता एक बार फिर शीला दीक्षित को याद कर रही है.
दिल्ली के लॉरेंस रोड स्थित एक पार्क के बगल में पिछले 30 साल से रह रहे अर्जुन सिंह फ़र्स्टपोस्ट हिंदी से बात करते हुए कहते हैं, ‘मैं शीला दीक्षित को ही अपना नेता मानता हूं. अगर शीला दीक्षित नहीं होतीं तो डीडीए वाले कब के यहां से हमारे परिवार वालों को बेघर कर देते. शीला दीक्षित के समय में ही हमलोगों को राशन कार्ड बना. दिल्ली की मतदाता सूची में नाम दर्ज हुआ. मैं शीला दीक्षित को कैसे भुला पाउंगा.’
शीला दीक्षित खासकर दिल्ली के झुग्गी-झोपड़ी इलाकों में अभी भी काफी लोकप्रिय हैं. 2013 के बाद इस वोटबैंक में आम आदमी पार्टी ने जबरदस्त सेंध लगाई थी. अरविंद केजरीवाल को सीएम बनाने में जेजे कॉलोनी और इन झुग्गी झोपड़ी वालों का बड़ा योगदान रहा है. लेकिन, इन दिनों झुग्गी-झोपड़ी या जेजे कॉलोनियों में रहने वाले लोगों का विश्वास आम आदमी पार्टी से उठता नजर आ रहा है. ऐसे में कांग्रेस आलाकमान ने एक सोची समझी रणनीति के तहत शीला दीक्षित को पार्टी का चेहरा बनाया है.
बात दें कि हाल के सालों में सत्ता से दूर रहने के बाद भी कांग्रेस पार्टी के भीतर गुटबाजी चरम पर नजर आ रही थी. अजय माकन के प्रदेश अध्यक्ष रहते लग नहीं रहा था कि यह गुटबाजी खत्म हो पाएगी. रुक-रुक कर और अंदरखाने पार्टी के एक नेता दूसरे नेता के लिए परेशानी खड़ी करने का काम कर रहे थे. इसलिए शायद कांग्रेस आलाकमान को शीला के अलावा कोई दूसरा चेहरा नजर नहीं आया.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस पार्टी का बड़ा वोटबैंक जो छिटक कर आम आदमी पार्टी के पाले में चला गया था, शीला के आने से उस वोटबैंक पर काफी प्रभाव पड़ेगा. इसलिए कांग्रेस आलाकमान ने शीला दीक्षित को प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौंप कर अरविंद केजरीवाल को भी संदेश देने का काम किया है. अगर लोकसभा चुनाव के वक्त आप और कांग्रेस में किसी प्रकार का गठबंधन होता भी है तो वह 4:3 सीटों का हो सकता है.
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शीला दीक्षित लंबे समय तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. 3 दिसंबर 1998 को शीला दीक्षित ने दिल्ली की छठीं मुख्यमंत्री की शपथ ली थीं और लगातार 28 दिसंबर 2013 तक दिल्ली की सत्ता पर राज किया. कांग्रेस को शीला दीक्षित में एक साथ कई खूबियां नजर आने लगी हैं.
शीला दीक्षित का राजनीति में अनुभव और महिला होने का भी कांग्रेस पार्टी फायदा उठाना चाह रही है. दिल्ली में फिलहाल शीला दीक्षित के कद की कोई महिला नेता भी नहीं है. शीला की दूसरी जो खूबी है वह है उनका सौम्य और सरल व्यक्तित्व. ऐसे में जानकारों का मानना है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में अगर जनता के बीच एक उम्रदराज महिला जब वोट मांगेगी तो महिलाओं पर शीला का सरल और सौम्य चेहरे का प्रभाव साफ नजर आएगा.
कुछ लोगों का मानना है कि 90 के दशक में दिल्ली में बीजेपी का दबदबा था, जिसे शीला दीक्षित ने ही खत्म किया था. दिल्ली में इतने सालों से केजरीवाल की सरकार होने के बावजूद लोग शीला दीक्षित के समय किए कामों को याद करते हैं. दिल्ली में फ्लाईओवर का जाल बिछाने से लेकर अनधिकृत कॉलोनियों को स्थाई करने का काम हो या फिर प्रदूषण को लेकर दिल्ली में सीएनजी का जाल बिछाने का काम हो या फिर एमसीडी में शीला के कार्यकाल में किए काम हों, दिल्ली की जनता उनका काम आज भी याद करती है.
वहीं कुछ जानकारों का मानना है कि कांग्रेस पार्टी को लगने लगा है कि एक बार फिर से 1998 से पहले वाली स्थिति बन सकती है. 1998 से पहले दिल्ली में बीजेपी का दबदबा हुआ करता था, जिसे शीला दीक्षित ने ही खत्म किया. वही स्थिति दिल्ली में इस समय बनती नजर आ रही है. अरविंद केजरीवाल की सरकार से जनता परेशान हो गई है और बीजेपी भी विकल्प देने में असफल साबित हो रही है. ऐसे में शीला दीक्षित ही कांग्रेस पार्टी को दोबारा से दिल्ली की राजनीति पैठ बनाते हुए पांच साल का वनवास खत्म करा सकती है.
शीला के सहारे कांग्रेस
दूसरी तरफ शीला को पार्टी के अंदर अभी से ही चुनौतियां मिलनी शुरू हो गई हैं. कांग्रेस के एक नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर फर्स्टपोस्ट हिंदी से बातचीत में कहा, ‘शीला दीक्षित के सामने कम चुनौतियां नहीं हैं. शीला के खिलाफ पार्टी के अंदर ही विरोध के सुर उठने शुरू हो गए हैं. लेकिन, इसके बावजूद शीला दीक्षित के सामने लोकसभा चुनाव तक कोई परेशानी सामने नहीं आएगी. हां, अगर लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहता है तो शीला दीक्षित को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. हालांकि, उनकी खूबी है कि वह सभी को साथ लेकर चलती हैं.’
आगे उन्होंने कहा, ‘इन सब खूबियों के बावजूद पार्टी अगर किसी पूर्वांचली को प्रदेश अध्यक्ष बनाती तो वह शीला से ज्यादा कारगर साबित होता. क्योंकि हाल के वर्षों में दिल्ली की 25 से 30 सीट ऐसी हुई हैं जहां पूर्वांचल के मतदाताओं ने परिणाम तय किए हैं. बीजेपी और आम आदमी पार्टी ने इसी को ध्यान में पूर्वांचली को पार्टी की कमान सौंपी है. अगर कांग्रेस आलाकमान भी यह निर्णय लेती तो पार्टी के लिए अच्छा होता. पूर्वांचली मतदाताओं को शीला दीक्षित अपनी तरफ खींच पाएंगे इसमें थोड़ा संदेह नजर आ रहा है.
बता दें कि हाल के सालों में दिल्ली में पूर्वांचली मतदाताओं की संख्या में काफी बढ़ोतरी देखने को मिली है. कांग्रेस की नई प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित पूर्वांचली तो नहीं हैं लेकिन जानकारों का मानना है कि पूर्वांचली वोटरों में पैठ बनाने की मादा रखती हैं. शीला दीक्षित खुद पंजाबी हैं और यूपी के ब्राह्मण परिवार में शादी की है. इस नाते पंजाब और यूपी दोनों से उनका नाता पुराना है. कांग्रेस पार्टी को उम्मीद है कि 1984 सिख दंगों को भूलते हुए पंजाबी भी कांग्रेस के प्रति झुकाव रखेंगे. साथ ही मुस्लिम और दलित वोट खासकर सुल्तानपुरी, वजीरपुर और शकरपुर जैसे जेजे कॉलोनियों में शीला के आने से फायदा हो सकता है.
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