सत्तर के दशक में सीपीएम के सांसद ज्योतिर्मय बसु ने लोक सभा में कहा था कि तुलमोहन राम के नाम के पहले शब्द ‘तुल’ को ‘टूल’ समझा जाए. क्योंकि वे कुछ लोगों के औजार भर हैं. बसु का इशारा एक ताकतवर केंद्रीय मंत्री की ओर था. उस मंत्री ने तुलमोहन राम को औजार बना कर पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला करवाया और जब सबके पकड़े जाने की बारी आई तो केंद्रीय मंत्री और कई अन्य लोग साफ बचा लिए गए. बचाने के इनाम में तत्कालीन सीबीआई निदेशक को सेवा विस्तार का लाभ भी मिल गया.
तुलमोहन राम को साढ़े पांच साल की सजा हुई. उन्होंने पूरी सजा काटी. यानी बड़ों को बचाने और छोटों को बलि का बकरा बनाने की परंपरा नई नहीं है. तुल मोहन राम बिहार से 1962, 1967 और 1971 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए थे. सजा से वे काफी दुखी थे. सजा पूरी करने के बाद तुलमोहन राम ने न सिर्फ राजनीति से संन्यास ले लिया था बल्कि बौद्ध हो गए थे.
अस्सी के दशक में वे मुझे बिहार विधानसभा के स्पीकर के चेंबर में मिले थे. वे साधु की पोशाक में थे. कुरेदने पर उन्होंने मुझसे अपनी पीड़ा बताई थी. वे दुखी इस बात से नहीं थे कि उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में सजा हुई. बल्कि दुखी इस बात से थे कि उन बड़े नेताओं और अफसरों को सजा नहीं मिली जो घोटाले के लिए अधिक जिम्मेदार थे. आज भी जब बड़े-बड़े घोटालों में ताकतवर लोगों को बचा लेने की काशिश होती है, कई लोग बचा भी लिए जाते हैं तो बरबस तुलमोहन राम का चेहरा याद आ जाता है.
तुलमोहन राम का केस यह समझने के लिए एक नमूना केस है कि कई घोटालों के मुख्य सूत्रधार बच निकलते हैं और ‘औजार’ यानी टूल फंस जाते हैं. ऐसा आज भी जहां-तहां होता रहता है.
संसद में मधु लिमये ने उठाया था मुद्दा
30 मार्च, 1974 को साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ ने छापा कि कुछ संसद सदस्यों ने कुछ व्यापारिक संस्थानों को आयात लाइसेंस देने के लिए 23 नवंबर 1972 को वाणिज्य मंत्रालय को ज्ञापन दिया. यानी सासंदों ने कुछ व्यापारिक संस्थानों की सिफारिश की. संबंधित मंत्री ने उन सांसदों के नाम भी संसद में बता दिए थे. हालांकि ऐसा करने के लिए उस मंत्री को बाद में हाईकमान से फटकार लगी थी क्योंकि उन सासंदों ने अपने दस्तखत होने से इनकार कर दिया था.
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चर्चा चली कि सिफारिश पत्र पर किसी ने सांसदों के जाली दस्तखत कर दिए थे. पर जाली होने या न होने की जांच भी नहीं हुई.
इस बारे में सांसद तुलमोहन राम ने स्वीकार किया कि मैंने आयात लाइसेंस के लिए दिए गए ज्ञापन पर हस्ताक्षर किया था. पर अन्य सांसदों ने कहा कि उन्होंने दस्तखत नहीं किए थे.
इस घोटाले की चर्चा करते हुए मधु लिमये ने लोकसभा में कहा कि लाइसेंस 400 प्रतिशत प्रीमियम पर बेचे जा रहे थे. लिमये ने यह भी कहा कि 'कोई इंडो -बांग्लादेश ट्रेडिंग कॉरपोरेशन और फर्म के सिद्दैया आयात लाइसेंस की नियमित बिक्री कर रहे हैं. इस संबंध में मैंने वाणिज्य मंत्री ललित नारायण मिश्र को दो पत्र लिखे. मैं यह जानना चाहता हूं कि इन पत्रों के बावजूद डेढ़ महीने तक सीबीआई कोई कार्रवाई करने में नाकामयाब क्यों रही?'
बड़ी हस्तियां बच गईं और फंस गए तुल मोहन राम
मंत्री ने भी लिमये को जवाब देने में देरी की. आयात -निर्यात नियंत्रक ने पांडिचेरी, माहे और यमन का दौरा किया और पाया कि कि इंडो-बांग्लादेश ट्रेडिंग कॉरपोरेशन की न स्थापना की गई है और न ही वह वास्तविक निर्यातक है. कुछ वैसी कंपनियों को भी आयात लाइसेंस दिए गए जिनके ऑफिस कौन कहे, उनके साइन बोर्ड भी जांच के दौरान कहीं नहीं पाए गए.
इस मामले में सीबीआई ने जांच शुरू की . जांच का रुख पूरी तरह तुलमोहन राम और एक पूर्व सांसद की ओर मोड़ दिया गया. 9 नवंबर 1974 को अदालत में आरोप पत्र पेश कर दिया गया. यह काम जल्दीबाजी में हुआ. ताकि संसद में इस कांड पर चर्चा की गुंजाइश नही रह जाए. बड़े खिलडि़यों को साफ बचा लिया गया जिनमें कुछ बड़े अफसर भी थे.
तुलमोहन राम का राजनीति से मोहभंग हो गया. उन्होंने कहा था कि बड़े -बड़े लोगों ने पैसे बनाए और मेरे जैसे मामूली व्यक्ति को फंसा दिया गया.
हालांकि इस मुद्दे पर तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने अंबाला में कहा कि ‘प्रतिपक्ष को देश केवल चार भ्रष्ट व्यक्ति नजर आते हैं- मैं, मेरा बेटा, बंसीलाल और ललित नारायण मिश्र.' याद रहे कि ऐसे तर्क आज भी कुछ नेता अपने बचाव में देते रहते हैं.
सीबीआई के तत्कालीन निदेशक डी. सेन ने संसदीय समिति के समक्ष यह कहा था कि सीबीआई किसी केंद्रीय मंत्री के खिलाफ जांच नहीं कर कर सकती. यह आरोप लगाया गया कि लाइसेंस कांड में बड़ी हस्ती को बचाने के इनाम के रूप में सीबीआई निदेशक के सेवा में विस्तार कर दिया गया.
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