कर्पूरी ठाकुर और राम नरेश यादव मुख्यमंत्री पद से नहीं हटाए जाते तो मोरारजी देसाई की सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर सकती थी. राम नरेश यादव उत्तर प्रदेश और कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री थे. यह तीनों राजनीतिक घटनाएं 1979 में 6 महीनों के भीतर हुईं.
1977 में चौधरी चरण सिंह गृह मंत्री बनाए गए थे
सत्तर के दशक की राजनीतिक घटनाएं बताती हैं कि कर्पूरी ठाकुर और राम नरेश यादव के मुख्यमंत्री बने रहने की स्थिति में चरण सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा धरी की धरी रह जाती. चरण सिंह जून 1978 से जनवरी 1979 तक के 7 महीने केंद्र सरकार से बाहर थे. फिर भी मोरारजी सरकार चलती रही. क्योंकि तब तक कर्पूरी ठाकुर और राम नरेश यादव सत्ता में बने हुए थे.
पर जब जनता पार्टी के जनसंघ-संगठन कांग्रेस घटक ने 1979 में बिहार के मुख्यमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को हटवा दिया तो नतीजतन उसी साल कुछ ही महीने के भीतर मोरारजी देसाई की सरकार का भी पतन हो गया. मोरारजी देसाई और चरण सिंह के बीच भारी मतभेद के कारण सन् 1978 में ही चरण सिंह और राजनारायण मंत्रिमंडल से हट गए थे. यूं कहिए कि हट जाने को विवश कर दिए गए थे.
उन दिनों ही चरण सिंह के समर्थक मोरारजी देसाई सरकार को अपदस्थ करने के लिए भीतर -भीतर सक्रिय थे. पर वो सफल नहीं हो सके. हार-थक कर 7 महीने के वनवास के बाद चरण सिंह 24 जनवरी, 1979 को एक बार फिर मोरारजी मंत्रिमंडल में शामिल भी हो गए थे. चरण सिंह गुट के आग्रह के बावजूद राज नारायण को तो मोरारजी भाई ने फिर भी दोबारा अपने मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया.
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सन् 1977 में जब मोरारजी देसाई की सरकार बनी थी तो चरण सिंह गृह मंत्री बनाए गए थे. पर जब दोबारा मंत्री बने तो उन्हें यह महत्वपूर्ण विभाग नहीं दिया गया. याद रहे कि उससे पहले प्रधानमंत्री देसाई और गृह मंत्री चरण सिंह के बीच कटुता बढ़ गई थी. चौधरी चरण सिंह ने सार्वजनिक रूप से यह मांग कर दी कि प्रधानमंत्री के बेटे कांति देसाई के खिलाफ गंभीर आरोपों की जांच के लिए आयोग बनाया जाना चाहिए.
बढ़ते मतभेद और जनता पार्टी में टूट की आशंका के बीच जनता पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने यह सलाह दी कि जय प्रकाश नारायण और जे.बी.कृपलानी को मध्यस्थता करनी चाहिए. इस पर प्रधानमंत्री ने साफ-साफ यह कह दिया कि सरकार के भीतरी मामले पर कोई बाहरी व्यक्ति कैसे दखल दे सकता है.
मोरारजी देसाई ने यह भी कहा था कि चरण सिंह के सरकार से बाहर रहने पर भी हमारी सरकार की स्थिरता पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ेगा. यही हुआ. लगातार 7 महीने तक सरकार से बाहर रहने के बावजूद चरण सिंह और राज नारायण केंद्र सरकार को हिला नहीं सके थे.
शायद इसलिए चरण सिंह कम महत्वपूर्ण मंत्रालय स्वीकार करते हुए दोबारा जनवरी 1979 में मंत्री बन गए थे. पर इससे उधर संगठन कांग्रेस-जनसंघ घटक के नेताओं का राजनीतिक मनोबल बढ़ गया. जो मोरारजी सरकार के लिए घातक साबित हुआ.
1979 में चरण सिंह प्रधानमंत्री बन गए
सन् 1979 की फरवरी में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से राम नरेश यादव को हटवा दिया गया. उनकी जगह बनारसी दास मुख्यमंत्री बनाए गए. वो संगठन कांग्रेस गुट के नेता थे और चंद्र भानु गुप्त के करीबी थे. उसी साल अप्रैल में बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर पद से हटा दिए गए. उनकी जगह समाजवादी नेता राम सुंदर दास मुख्यमंत्री बनाए गए.
वो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी घटक के थे और बिहार जनता पार्टी के अध्यक्ष सत्येंद्र नारायण सिन्हा के करीबी थे. याद रहे कि 1971 के लोकसभा चुनाव के बाद प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर सोशलिस्ट पार्टी बना ली थी.
फिर क्या था, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों के अधिकतर सांसदों ने मोरारजी दसाई के खिलाफ मोरचा खोल दिया. वो विद्रोह पर उतारू हो गए. अंततः कांग्रेस के बाहरी समर्थन से जुलाई, 1979 में चरण सिंह प्रधानमंत्री बन गए.
आपातकाल की पृष्ठभूमि में जय प्रकाश नारायण के दबाव पर 4 दलों को मिलाकर जनता पार्टी बनी थी. उन दलों में जनसंघ,संगठन कांग्रेस ,सोशलिस्ट पार्टी और भालोद शामिल थे.
उत्साह के माहौल में केंद्र में तो सन 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार बन गई, पर 1977 के मध्य में जब कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए तो भालोद और जनसंघ घटकों ने मिलकर आपस में 6 राज्य बांट लिए. बिहार, उत्तर प्रदेश और हरियाणा भालोद घटक के हिस्से पड़ा तो मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में जनसंघ घटक के मुख्यमंत्री बने थे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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