लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक रहे पद्मभूषण पी.एस.अप्पू ने 1984 में ही कह दिया था कि ‘योजना-परियोजनाओं के कार्यान्वयन में व्याप्त स्तरहीनता और भ्रष्टाचार केवल इसलिए है कि उच्च अधिकारियों सहित अधिकतर सरकारी कर्मचारी अपने राजनीतिक आकाओं से अधिक भ्रष्ट हैं.’ अप्पू 1978 में बिहार के मुख्य सचिव बने थे. पर, मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर से मतभेद के कारण उन्होंने अपना पद छोड़ दिया था.
'कर्पूरी ठाकुर अच्छी मंशा वाले नेता हैं, पर वो सरकार नहीं चला पा रहे थे'
अप्पू ने कहा कि कर्पूरी ठाकुर एक अच्छी मंशा वाले नेता हैं. पर वो सरकार नहीं चला पा रहे थे. वो 1980-82 में अकादमी के निदेशक थे. वहां के एक विवाद के बाद अप्पू ने रिटायर होने के साढे़ 3 साल पहले ही आईएएस से इस्तीफा दे दिया. दरअसल अप्पू ने एक उद्दंड प्रशिक्षु (ट्रेनी) को बर्खास्त कर देने की सिफरिश की थी. उस प्रशिक्षु पर महिला प्रशिक्षुओं को परेशान करने और उन पर रिवाल्वर तानने का आरोप था. जब केंद्र सरकार ने अप्पू की सिफारिश नहीं मानी तो उन्होंने विरोध स्वरूप इस्तीफा दे दिया. उसके बाद बंगलुरू के पास के उपनगर में जा बसे. वर्ष 2012 में उनका निधन हो गया.
उधर केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एन.सी सक्सेना ने 5 फरवरी, 1998 को बिहार सरकार के मुख्य सचिव को लिखा था कि ‘अफसरों की कोई कार्य संस्कृति नहीं है. जन कल्याण की कोई चिंता नहीं है. राष्ट्र के निर्माण की कोई भावना नहीं है. वो लोभी और धनलोलुप बन गए हैं. उनमें प्रतिबद्धता, क्षमता और ईमानदारी का नितांत अभाव है. ईमानदार अफसर काम में मन नहीं लगा रहे हैं. क्योंकि उन्हें ऊपर से संरक्षण मिलने की कोई उम्मीद नही है.’ 14 साल के अंतराल पर प्रकाश में आई दो ईमानदार आईएएस अफसरों की टिप्पणियां पूरे ब्यूरोक्रेसी पर एक बार फिर से विचार करने की जरूरत बता रही थीं.
संयुक्त सचिव स्तर पर सीधी नियुक्ति को लेकर हंगामा करने वालों ने कभी अप्पू और सक्सेना की पीड़ा पर विचार किया है? यह संयोग नहीं है कि 80 के दशक में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह स्वीकार किया था कि सरकार 100 पैसे दिल्ली से भेजती है, पर उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही गांवों तक पहुंच पाते हैं. आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है. क्योंकि सांसद आदर्श ग्राम योजना की सफलता भी सीमित ही रही. पहले से चल रही दर्जनों सरकारी योजनाओं के पैसों से ही सांसद आदर्श ग्राम योजना में खर्च करने थे. अलग से उसके लिए फंड नहीं दिए गए. वैसे भी यदि पहले से विकास और कल्याण की चल रही सरकारी योजनाओं में ईमानदारी से पैसे लग रहे होते तो अलग से आदर्श ग्राम योजना बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ती?
केंद्र सरकार का इरादा सरकारी कार्य संस्कृति में बेहतरी लाना है
आजादी के बाद कई राज्य सरकारों ने बस ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन बनाए. सैकड़ों बसें खरीद कर निगम के कर्मचारियों से चलवार्इं. अपवादों को छोड़ दें तो समय के साथ एक-एक कर के निगम सफेद हाथी बनते चले गए. दूसरी ओर निजी बस ऑपरेटर्स एक बस से शुरुआत कर के दर्जनों बसों के मालिक बनते चले गए. नामी-गिरामी निजी क्षेत्रों के कामकाज के 15 साल के अनुभव रखने वाले व्यक्ति को भारत सरकार ने संयुक्त सचिव के पद पर बैठाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. ऐसे फिलहाल 10 पद हैं. केंद्र सरकार का इरादा सरकारी कार्य संस्कृति में बेहतरी लाना है. आजादी के बाद से ही ब्यूरोक्रेसी में क्या होता रहा है, उसकी एक झलक पी.एस अप्पू की टिप्पणियों के जरिए देखिए.
सरकारी पत्रिका ‘योजना’ के 15 अगस्त, 1984 के अंक में अप्पू ने लिखा कि ‘संविधान के अनुच्छेद- 311 में उनके अधिकार निर्दिष्ट किए गए हैं. किसी भी लोकतांत्रिक देश में सरकारी अधिकारियों को इतना अधिक कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है जितना भारत में है. परंतु यह भी सही है कि इतने सिक्केबंद संरक्षण के बावजूद हमारी अफसरशाही संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं उतरी है. आजादी के बाद की भारतीय अफसरशाही के कार्य निष्पादन पर नजर डालने से स्पष्ट होगा कि इसकी व्यावसायिक योग्यता का स्तर निकृष्ट रहा है. उच्च अधिकारी राजनीतिक रूप से निष्पक्ष नहीं रहे और सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है.’
यह भी पढ़ें: सुरक्षा नियमों की अवहेलना से जा चुकी हैं कई महत्वपूर्ण हस्तियों की जानें
अप्पू की बात को राजीव गांधी की स्पष्टोक्ति से जोड़ कर देखें तो पाएंगे कि एक रुपया घिस कर 15 पैसे तो एक दिन में नहीं बना होगा. अप्पू ने यह भी लिखा कि ‘आधुनिक अफसरशाही से सभी दृष्टि से उच्च स्तर की व्यावसायिक योग्यता अपेक्षित है. अफसरशाही की जो स्थिति आज है, वह इसकी सोचनीय व्यावसायिक अयोग्यता के कारण है. हमारे अधिकारी नई तकनीकी नहीं सीखते. परियोजनाओं को तैयार करने और उनके कार्यान्वयन में ढुलमुल की नीति अपनाते हैं. निर्णय लेने में टाल-मटोल करते हैं.
इस सबके अलावा वो रोजमर्रा के प्रशासनिक कार्यों में भी लापरवाही बरतते हैं जो अक्षम्य है. यद्यपि अधिकतर अधिकारी आज भी राजनीतिक रूप से निष्पक्ष हैं, परंतु काफी संख्या में ऐसे वरिष्ठ अधिकारी भी हैं जिन्होंने अपने को किसी विशेष राजनीतिक दल या किसी विशेष नेता से जोड़ दिया है. अफसरशाही भ्रष्टाचार से पूर्णतया मुक्त तो कभी नहीं रही, लेकिन 1954-55 में सरकारी सेवा में भ्रष्ट अधिकारी गिने-चुने होते थे. अधिकतर अधिकारी आचरण के उच्च स्तर को बनाए रखते थे. अपने साधनों के भीतर जीवन यापन करते थे. पर पिछले 10-15 वर्षों में स्थिति ऐसी बदली कि पहचानने में नहीं आती.
राजनीतिक वातावरण बदलने तक अफसरशाही को सुधारना संभव नहीं
अब अधिकतर अधिकारी रिश्वत स्वीकारते हैं और अन्य कई कुकर्म करते हैं. पर, अंत में अप्पू ने यह भी लिखा कि 'यह कहना भी जरूरी है कि अधिकारी वर्ग कोई स्वतंत्र संस्था नहीं है. यह समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है. राजनीति का अभिन्न अंग है. जब राजनीति पतनोन्मुख हो और समाज में विघटन हो तो जैसा कि भारत में आजकल हो रहा है तो यह निःस्संदेह कहा जा सकता है कि अफसरशाही को सुधारना संभव नहीं. तब तक ऐसा नहीं हो सकता, जब तक राजनीतिक वातावरण नहीं बदलता.’
यह भी पढ़ें: सिर्फ अपनी अंगुलियों से बड़े-बड़े ताले खोल देने वाले एक डाकू की कहानी
जानकार सूत्र बताते हैं कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से ही अफसरों की कार्य-संस्कृति बदलने की कोशिश की जाने लगी थी. पर जब इस मामले में सीमित सफलता मिली तो सरकार ने लेटरल बहाली की प्रक्रिया शुरू की है. देखना है कि इस नए प्रयोग को कितनी सफलता मिलती है!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
हंदवाड़ा में भी आतंकियों के साथ एक एनकाउंटर चल रहा है. बताया जा रहा है कि यहां के यारू इलाके में जवानों ने दो आतंकियों को घेर रखा है
कांग्रेस में शामिल हो कर अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत करने जा रहीं फिल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर का कहना है कि वह ग्लैमर के कारण नहीं बल्कि विचारधारा के कारण कांग्रेस में आई हैं
पीएम के संबोधन पर राहुल गांधी ने उनपर कुछ इसतरह तंज कसा.
मलाइका अरोड़ा दूसरी बार शादी करने जा रही हैं
संयुक्त निदेशक स्तर के एक अधिकारी को जरूरी दस्तावेजों के साथ बुधवार लंदन रवाना होने का काम सौंपा गया है.