लोकतांत्रिक भारत के चुनाव नतीजों को प्रभावित करने में मीडिया की भूमिका अत्यंत सीमित रही है. निर्णायक तो कतई नहीं. इसी तरह ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी नेता की छवि बहुत अच्छी हो और मीडिया ने उसे ध्वस्त कर दिया. हां, इस देश के कुछ नेता ऐसे जरूर रहे हैं जो अपनी हार का कारण मीडिया को बताते रहे हैं.
पर वही नेता जब चुनाव जीत जाते हैं तो वो मीडिया का इसका कोई श्रेय नहीं देते. इस पृष्ठभूमि में एक बार फिर यह आशंका जाहिर की जा रही है कि अगले लोकसभा चुनाव को मीडिया का एक हिस्सा प्रभावित कर सकता है. ऐसा कहना आम मतदाताओं के बुद्धि-विवेक पर सवाल उठाना होगा. इस देश के चुनावों का इतिहास बताता है कि अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़ कर अधिकतर मतदाताओं ने आम तौर पर उन्हीं को जिताया है जिन्हें जीतना चाहिए था.
इसके विस्तार में जाने से पहले उन घटनाओं की चर्चा की जाए जब इस देश के कुछ बड़े नेताओं ने मीडिया के एक हिस्से की ओर से हो रही उनकी निराधार आलोचनाओं की परवाह नहीं की. क्योंकि वो जानते थे कि आम लोग किसी हाल में उनके योगदान नहीं नकारेंगे. हां, खुद उन्होंने जब गलतियां कीं तो मतदाताओं ने उन गलतियों के कारण उन्हें नकारा.
इलेक्ट्रानिक मीडिया के इस दौर में भी बिहार में लालू यादव की लोकप्रियता अन्य कारणों से दो समुदायों में ज्यों की त्यों बनी हुई है. जबकि न सिर्फ लालू यादव बल्कि कुछ अन्य नेताओं को लेकर मीडिया का एक हिस्सा काफी एकतरफा हो चुका है. वैसे भी लालू परिवार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की खबरों से मीडिया भरा पड़ा रहता है.
जवाहरलाल नेहरू और मोरारजी देसाई जैसे नेता मीडिया के प्रति आम तौर पर निरपेक्ष थे. एक-दो घटनाएं अपवाद जरूर थीं. एक मशहूर स्तंभकार के खिलाफ प्रधानमंत्री ने एक अखबार के मालिक से शिकायत की थी. कतिपय कारणों से कुछ दिनों के लिए नेहरू एक बड़े अखबार से नाराज थे. उन्होंने तीन मूर्ति भवन में उस अखबार का प्रवेश बंद करवा दिया था. पर उन्होंने अखबार की आर्थिकी को क्षति पहुंचाने के लिए कोई कार्रवाई की, ऐसी कोई खबर नहीं है. क्योंकि नेहरू समझते थे कि कोई अखबार अंततः उनका या उनके दल का वोट कम नहीं कर सकता.
'ब्लिट्ज' न तो मोरारजी की छवि खराब कर सका और न ही उनका राजनीतिक करियर
मुंबई (तब बंबई) के चर्चित वामपंथी साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ मोरारजी देसाई के खिलाफ अभियान चलाता रहता था. उस पर मोरारजी की यही प्रतिक्रिया होती थी कि ‘मैं तो ब्लिट्ज पढ़ता ही नहीं.’ ब्लिट्ज न तो मोरारजी की छवि खराब कर सका और न ही उनका राजनीतिक करियर. एम.एस.एम शर्मा के संपादकत्व में जब पटना के चर्चित दैनिक ‘सर्चलाइट’ ने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणियां लिखनी शुरू कीं तो जनसंपर्क विभाग के एक अफसर ने मुख्यमंत्री से पूछा कि ‘आप कार्रवाई क्यों नहीं करते?’
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अफसर उम्मीद करता था कि मुख्यमंत्री सर्चलाइट को मिल रहा सरकारी विज्ञापन बंद करा देंगे. पर, मुख्यमंत्री ने कहा कि ‘मैंने तो बहुत कठोर कार्रवाई कर दी है.’ अफसर ने कहा कि हमारे यहां तो ऐसा कोई आपका निर्देश अभी आया नहीं है. इस पर मुख्यमंत्री ने कहा कि मैंंने सर्चलाइट पढ़ना ही बंद कर दिया है. किसी अखबार के खिलाफ इससे बड़ी कार्रवाई और कौन सी हो सकती है?
दरअसल नेहरू, मोरारजी और श्रीबाबू जैसे नेताओं को यह लगता था कि जब जनता हमारे साथ है तो अखबारों के कुछ लिख देने से कोई फर्क नहीं पड़ जाएगा. पड़ा भी नहीं. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे. नेहरू और श्रीबाबू जीवन के अंतिम दिन तक पद पर रहे. पर बाद के दशकों में जब कुछ विवादास्पद नेता सत्ता में आने लगे तो उन्होंने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि उनके कुकर्माें की चर्चा अखबारों में न हो. होने पर अखबारों का भयादोहन शुरू हो गया. प्रेस पर अंकुश लगाने के लिए बारी-बारी से बिहार और केंद्र सरकार ने प्रेस विधेयक भी लाए.
यदाकदा अखबारों के सरकारी विज्ञापन बंद होने लगे. संपादक गिरफ्तार होने लगे. नेताओं के कहने पर पत्रकार नौकरी से निकाले जाने लगे. पर यह उपाय भी उन नेताओं को चुनावी पराजय से नहीं बचा सके. 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. उन बैंकों के कुछ संचालक मीडिया घरानों के भी मालिक थे. उन मीडिया घरानों का इंदिरा गांधी के प्रति रुख का अनुमान लगाया जा सकता है. इसके बावजूद 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के दल को बहुमत मिल गया. क्योंकि गरीब जनता का एक बड़ा हिस्सा उनके 'गरीबी हटाओ' के नारे पर भरोसा कर बैठा था.
आपातकाल और 1977 लोकसभा चुनाव में मीडिया सरकार द्वारा 'नियंत्रित' रहा
आपातकाल के दौरान और 1977 के लोकसभा चुनाव के दौरान मीडिया सरकार द्वारा ‘नियंत्रित’ ही रहा. सर्वाधिक पहुंच वाले मीडिया दूरदर्शन का तो हर समाचार बुलेटिन इस वाक्य से शुरू होता था कि ‘प्रधानमंत्री ने कहा है...’ इसके बावजूद 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी चुनाव हार गए. उनकी पार्टी सत्ता से बाहर हो गई. क्योंकि जनता के बीच के अधिकतर लोग आपातकाल की ज्यादतियों से सख्त नाराज थे.
कड़े सेंसरशिप के कारण उन ज्यादतियों पर मीडिया द्वारा पर्दा डालने का भी कोई लाभ चुनाव में कांग्रेस को नहीं मिल सका. इसका एक तगड़ा उदाहरण लालू यादव का भी है. नब्बे के दशक में आम तौर पर मीडिया लालू यादव, उनके दल और उनकी सरकार के खिलाफ था. इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़ कर लगभग पूरे मीडिया ने यह भविष्यवाणी कर दी थी कि 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव सत्ता से बाहर हो जाएंगे. पर हुआ इसका उल्टा. क्योंकि 1990 में जब लालू यादव ने मंडल आरक्षण के विरोधियों का कड़ा प्रतिरोध किया तो अधिकतर पिछड़े मतदाता लालू प्रसाद के पक्ष में हो गए.
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उधर लालकृष्ण आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार किए जाने के कारण अल्पसंख्यक समुदाय लालू से मोहित हो गया. आज भी लालू के पक्ष में यादव-मुस्लिम समीकरण कायम है. कई अदालती सजाओं और मीडिया में लगातार आ रही लालू परिवार के भ्रष्टाचार की खबरों के बावजूद एमवाई (मुस्लिम-यादव) वोट जिन-जिन चुनाव क्षेत्रों में निर्णायक होंगे, वहां लालू का गठबंधन ही जीतेगा.
2002 के गुजरात दंगे के बाद इस देश के मीडिया के बड़े हिस्से ने एकतरफा ढंग से नरेंद्र मोदी को लगातार खलनायक के रूप में पेश किया. 1984 के एकतरफा सिख नरसंहार के बावजूद राजीव गांधी के साथ भी मीडिया ने ऐसा सलूक नहीं किया था. जबकि गुजरात के दंगे में पुलिस की गोलियों से करीब 250 दंगाई मारे गए थे.
2019 के चुनाव में मीडिया के प्रचार या कुप्रचार का अत्यंत सीमित असर होगा
1984 में तो पुलिस ने गोली ही नहीं चलाई. फिर भी 2014 में जब मतदाताओं ने दलों और नेताओं का तुलनात्मक आकलन किया तो उसे नरेंद्र मोदी बेहतर लगे. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मतदातागण उसी तरह का तुलनात्मक आकलन के बाद निर्णय करेंगे. उन पर मीडिया के किसी प्रचार या कुप्रचार का अत्यंत सीमित असर होगा. निर्णायक तो बिलकुल नहीं. इस देश का चुनावी इतिहास तो यही बताता है.
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