इस देश में मिली-जुली सरकारों के स्थायित्व का रिकाॅर्ड भी मिला जुला ही रहा है. विभिन्न दलों के गठजोड़ से बनी सरकारों ने 4 दफा अपना कार्यकाल पूरा किया तो अन्य मामलों मेंं इतने ही दफा समय से पहले सरकारें गिर गईं. एक बार फिर 2019 के चुनाव के बाद मिली-जुली सरकार बनने की जब संभावना जाहिर की जा रही है तो उसके स्थायित्व को लेकर भी अभी से ही सवाल उठने लगे हैं. ऐसे में पिछले रिकाॅर्ड को देख लेना दिलचस्प होगा.
अब तक देश में लोकसभा के 16 चुनाव हो चुके हैं. यदि सभी सरकारों ने अपने कार्यकाल पूरे किए होते तो अब तक मात्र 12 चुनाव होने चाहिए थे. यानी 4 अतिरिक्त चुनाव हुए. चार चुनावों का भारी अतिरिक्त और गैर-जरूरी खर्च इस गरीब देश के करदाताओं को ही उठाना पड़ा.
सरकारों की अस्थिरता के कारण ऐसा हुआ
कभी-कभी सवाल उठता है कि इसके लिए नेता जिम्मेदार रहे या जनता? ऐसे में अधिकतर मतदाता यही चाहते हैं कि अनावश्यक चुनावों की नौबत न आए. अब देखना है कि आगे क्या होता है! वैसे इस सिलसिले में यह जान लेना प्रासंगिक होगा कि ऐसा नहीं है कि अपने देश में सिर्फ मिली-जुली सरकारें ही अस्थायी साबित हुई हैं. कई बार तो बहुमत वाली सरकारों ने भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया या फिर पूरा नहीं होने दिया गया.
1967 और 1977 इसके उदाहरण हैं. 1969 में कांग्रेस के महाविभाजन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई थी. सीपीआई और द्रमुक (डीएमके) जैसे कुछ दलों ने सरकार को बाहर से समर्थन किया और सरकार चलने लगी. पर जब इंदिरा गांधी ने यह महसूस किया कि उन्हें दबाव में काम करना पड़ रहा है. नतीजनत उन्होंने समय से एक साल पहले ही लोकसभा का मध्यावधि चुनाव 1971 में करवा दिया.
1977 की मोरारजी देसाई सरकार एक दल के बहुमत वाली सरकार थी पर सत्ताधारी जनता पार्टी में विभाजन के कारण बीच में ही सरकार गिर गई. 1999 में गठित अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया. यह मिली-जुली सरकार थी. हां, उस सरकार ने अपनी मर्जी से कार्यकाल पूरा होने के कुछ महीने पहले ही चुनाव करवा दिया. वैसा करने की उनके लिए कोई मजबूरी नहीं थी.
2004 और 2009 में गठित मिली-जुली मनमोहन सिंह सरकार ने अपने कार्यकाल पूरे किए. 1991 में पी.वी नरसिंह राव के नेतृत्व में गठित सरकार को भी लोकसभा में बहुमत नहीं था. कांग्रेस को 1991 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ 244 सीटें आई थीं. पर जोड़-तोड़ कर राव ने अपना कार्यकाल पूरा कर लिया. 90 के दशक में बारी-बारी से एच.डीे देवगौड़ा और आई.के गुजराल के नेतृत्व में बनी सरकारें अपने कार्यकाल पूरे नहीं कर सकीं.
आजादी के बाद के पहले 5 चुनावों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला था
1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठित मिली-जुली सरकार भी नहीं चल सकी. आजादी के बाद के पहले 5 चुनावों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला था. सरकारें चलती रहीं. आपातकाल में 1976 में लोकसभा की आयु एक साल बढ़ा दी गई थी. 1989 से इस देश में राजनीतिक अस्थिरता का दौर चला. राज्यों में तो यह दौर 1967 के बाद से ही चल पड़ा था.
केंद्र में 1984 के बाद पहली बार 2014 में किसी एक दल को लोकसभा में पूर्ण बहुमत मिला. 2014 में गठित नरेंद्र मोदी सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी, इसमें कोई शक नहीं है. पर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद लोकसभा में दलगत स्थिति क्या होगी, इसका कोई अनुमान लगाना अभी कठिन है.
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दरअसल 2014 के चुनाव में कांग्रेस की भारी हार के बाद और भी स्थिति अनिश्चित हो गई है. इस चुनाव में कांग्रेस को मात्र 44 सीटें मिली थीं. राजनीतिक अस्थिरता और अनिश्चतता का सबसे बड़ा कारण है कांग्रेस का कमजोर होना. एक समय ऐसा भी था जब कांग्रेस देश का पर्याय बन चुकी थी. यह और बात है कि हर बार उसे 50 प्रतिशत से कम ही मत मिले. कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में 6 बार 300 से अधिक सीटें आईं. 3 बार 2 सौ से अधिक सीटें मिलीं. 6 बार 100 से अधिक सीटें आईं. एक बार तो 44 सीटें ही मिल पाईं. 2014 में सबसे कम 44 और 1984 में सबसे अधिक 404 सीटें.
हाल में कांग्रेस की स्थिति में सुधार जरूर हुआ है पर सुधार की रफ्तार इतनी तेज नहीं है कि इस बात का पक्का अनुमान लगाया जा सके कि कांगेस को अगली बार बहुमत मिल ही जाएगा. बीजेपी 2014 वाली स्थिति पर पहुंचेगी, यह भी नहीं कहा जा सकता.
हां, राजनीतिक हलकों में यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि मोदी सरकार ने इस बीच कुछ चौंकाने वाले फैसले किए तो उसे एक बार फिर बहुमत मिल सकता है. जो हो, अधिकतर राजनीतिक पंडितों का यही अनुमान है कि सरकार जिस पक्ष की भी बने मिली-जुली ही होगी.
हालांकि मिली-जुली से भी क्या घबराना जबकि स्थायित्व के मामले में मिला-जुला अनुभव रहा है.
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