मंडल और कमंडल ने भारतीय राजनीति को हमेशा उलटी दिशा में खींचा है. थोड़े अंतराल के बाद महाराष्ट्र में दलितों का विरोध-प्रदर्शन और मराठों का पलटवार जारी है. इससे पता चलता है कि पहचान की राजनीति के लिए होड़ करते दो विरोधी ताकतों के बीच रस्साकशी शुरू हो गई है.
पेशवाओं और दलितों के बीच 200 सालों से जारी इस संघर्ष का कोरेगांव में फिर से सिर उठाना कोई संयोग की बात नहीं. बीते कुछ सालों से कमंडल (राममंदिर) आंदोलन के मार्फत जारी धर्म की राजनीति ने भारत में दावेदारी मजबूत की है. इसकी काट में मंडल आंदोलन के मार्फत होने वाली जाति की राजनीति का सिर उठाना लाजिमी है.
मंडल और कमंडल आंदोलन की राजनीति हमेशा विचाराधारा के जमीन पर एक-दूसरे के उलट रही है. ऐतिहासिक रूप से देखें तो दलितों का अगड़ी जातियों ने उत्पीड़न किया है, खासकर ग्रामीण भारत में. त्रिमूर्ति तिलक, तराजू और तलवार( ब्राह्मण, बनिया और क्षत्रिय) के सामाजिक-सांस्कृतिक तथा सियासी दबदबे के खिलाफ उनकी शिकायत जायज है. इस शिकायत की कभी पूरे दिल से सुनवाई या समाधान नहीं हुआ.
आपसी बैर-भाव बीते दशकों में हुआ है तेज
आपसी बैर-भाव बीते दशकों में तेज हुआ है क्योंकि दलित मुख्य रूप से दो तरीकों से अपने हक की दावेदारी कर रहे हैं. एक जरिया है राजनीतिक गोलबंदी का. इसके सहारे दलित अपने समुदाय तथा प्रतिनिधियों के लिए ज्यादा ताकत की मांग करते हैं. दूसरा तरीका है आरक्षण का फायदे हासिल करने का. दलित आवाज बुलंद कर रहे हैं कि जो समुदाय सियासी, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से फायदे की स्थिति में है उन्हें आरक्षण के दायरे में शामिल ना किया जाय.
सियासत की जमीन पर ज्यादा जगह मिले और आरक्षण का लाभ ज्यादा हासिल हो- इस मंशा से दलित समुदाय अगड़ी जातियों के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं. अगड़ी जातियां, पिछड़ी और दलित जातियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर नाक-भौं सिकोड़ती हैं. अगड़ी जातियों को लगता है कि आरक्षण एक किस्म का अन्याय है जो उन्हें तथा उनकी अगली पीढ़ियों को बराबरी के अवसर से वंचित करता है और आरक्षण जारी रहा तो सुविधा की जिस हालत में वे चले आ रहे हैं वह धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी.
भारत में अगड़ा और पिछड़ा के बीच संघर्ष हमेशा से चला आ रहा है
भारत में अगड़ा और पिछड़ा के दो ध्रुवों के बीच संघर्ष हमेशा से बना चला आ रहा है. हर गुजरते दशक के साथ बढती बेरोजगारी, आपसी होड़ तथा जागरुकता के कारण यह संघर्ष ज्यादा तेज हुआ है. इस रुझान का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि ज्यादा से ज्यादा समुदाय- जाट, कापू, गुर्जर, मराठा, पाटीदार तथा राजस्थान में ब्राह्मण और क्षत्रिय तक आरक्षण की मांग कर रहे हैं और दलित तथा ओबीसी जातियां इसका राजनीति के मैदान में विरोध कर रही हैं. लेकिन समाधान सुझाने की जगह, राजनेता झूठ परोस रहे हैं और खोखले वादे कर रहे हैं. अचरज नहीं कि भीतर ही भीतर सुलगता लावा अब फूटकर ऊपर बहने लगा है.
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वसुंधरा राजे और बाद में कांग्रेस के लिए ज्यादा सरल समाधान यह होता कि गुर्जर समुदाय को ओबीसी की सूची से बाहर रखा जाय और पिछड़ों को दिया गया आरक्षण इसी अनुपात में कम कर दिया जाय. लेकिन सिक्का तो सियासत का चलना है, राजनीति को गरमाए रखना था तो फैसला ये हुआ कि आरक्षण 5 फीसद बढा दिया जाय. इस तरह सामान्य श्रेणी का कुछ हिस्सा ले लिया गया और ओबीसी (21 प्रतिशत) तथा एसटी-एससी (28 प्रतिशत) के कोटे को अछूता छोड़ दिया गया.
वसुंधरा की तर्ज पर ही गुजरात में कांग्रेस दी थी पाटीदारों को आरक्षण का भरोसा
संयोग देखिए कि कांग्रेस ने भी गुजरात में अपने मेनिफेस्टो में पाटीदारों को ऐसी ही पेशकश की है. पाटीदारों के आरक्षण की मांग को देखते हुए कांग्रेस ने 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा को पार करने का वादा किया ताकि पाटीदारों को आरक्षण का लाभ दिया जा सके. बीजेपी ने राजस्थान में गुर्जरों के साथ ऐसा ही किया था लेकिन उसने गुजरात में कांग्रेस के इस वादे को असंवैधानिक करार दिया, कहा कि कांग्रेस का वादा नाजायज है.
बीजेपी को उम्मीद है कि उसके हिंदुत्व का मंत्र अगड़ी और पिछड़ी जातियों को एकजुट रखेगा. पार्टी ने 1990 के दशक में मंडल की काट में कमंडल का सफल प्रयोग किया था और इसके नतीजों के दम पर पार्टी मानकर चल रही है मुसलमानों के सामाजिक-सांस्कृतिक तथा सियासी दबदबे का हौव्वा खड़ा करके हिंदुत्व की ताकतों को एक खेमे में और एकजुट रखा जा सकता है. लेकिन गुजरात के बदले माहौल और महाराष्ट्र में जारी संघर्ष के संकेत है कि सांप्रदायिकता की गोंद जोड़े रखने में नाकाम हो रही है, जाति की दरारें फिर से उभरकर सामने आ रही हैं.
संघ में दलितों के लिए आरक्षण होना चाहिएः मोहन भागवत
बीजेपी सत्ता में है और जारी हालात की उसे चिंता सता रही है. उज्जैन में चल रहे आरएसएस के सम्मेलन में मंगलवार के दिन इस चिंता की झलक दिखी. मोहन भागवत ने बड़े विस्तार से कहा कि दलितों को हिंदुत्व के खेमे में लाने की जरुरत है और इसके लिए संघ में दलितों के लिए आरक्षण होना चाहिए. (कल्पना कीजिए कि जिस संगठन ने हमेशा आरक्षण का विरोध किया वही अब अपने भीतर आरक्षण देने की बात कह रहा है. इससे संगठन को सता रही चिंता का अंदाजा किया जा सकता है).
बीजेपी जानती है कि दलित, अल्पसंख्यक तथा उदारवादियों के एक तरफ लामबंद होने से 2019 के चुनावों में उसे खतरा पैदा हो सकता है. अगर अगड़ी जाति के हिंदुओं से दलितों का संघर्ष जारी रहा तो फिर उस विराट हिंदू-परिवार का बीजेपी का सपना बिखर जाएगा जो सिर्फ उसे (बीजेपी) वोट देता रहा है.
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दुर्भाग्य कहिए कि बीजेपी की धर्म आधारित राष्ट्रवाद की राजनीति के कारण विरोध में जातिवाद की ताकतों के लिए गुंजाइश पैदा हुई है. हिंदुत्व की राजनीति ने जिग्नेश मेवाणी और हार्दिक पटेल जैसे नए नेताओं के लिए अवसर पैदा किया है जो जाति की राजनीति करते हैं और प्रकाश आंबेडकर के सियासी करिअर को फिर से नया जीवन मिल गया है.
भारत की राजनीति 1990 के दशक में लौट रही है जब जाति और धर्म के बीच लगातार संघर्ष चल रहा था और ऐसा नहीं लगता कि इस बार नतीजे पहले से अलग होंगे.
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