एक आम सी धारणा है कि दलित कभी भी आरएसएस के साथ नहीं जा सकते हैं. इसे कई मौकों पर कई बार कहा गया है कि दलित चाहे किसी भी पार्टी या किसी भी संगठन के पास चले जाएं लेकिन वो आरएसएस जैसे हिंदूवादी संगठन के साथ नहीं जुड़ सकते. आरएसएस के दलित विरोधी रवैये की कई बार चर्चा हुई है और उतने ही मौकों पर आरएसएस ने ये कहते हुए कि संघ जात-पांत में विश्वास नहीं करता, इसका बचाव भी किया है.
2015 के बिहार चुनाव से ठीक पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण की समीक्षा पर दिया बयान और उसके बाद 2017 में संघ के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य का भी कुछ इसी तरह के बयान को संघ के दलित विरोधी चेहरे को बतौर पेश किया गया. संघ के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से आरक्षण की समीक्षा की वकालत वक्त-वक्त पर की जाती रही है. और हर बार ऐसे बयानों को संघ की ब्राह्मणवादी सोच करार दिया जाता रहा है.
आरएसएस से जुड़े दलितों का क्या कहना है?
इन सारे बयानों के बरक्स दलित समुदाय संघ को सशंकित निगाहों से देखता है. सवाल है कि ऐसी परिस्थिति के बाद आरएसएस के साथ दलितों का किस स्तर का जुड़ाव है? संघ के भीतर दलित समुदाय के लोगों की क्या स्थिति है? आरक्षण को लेकर संघ से जुड़े दलित क्या सोच रखते हैं? अपने विस्तार के दौर में आरएसएस ने दलित समुदाय के भीतर कितनी पैठ बनाई है? इन सवालों के साथ हमने आरएसएस से जुड़े कई दलितों से मुलाकात की. और इन मुलाकातों के जरिए हमने संघ के भीतर दलितों की स्थिति को लेकर जमीनी हकीकत को समझने की कोशिश की.
सेवादास संघ के मेरठ प्रांत में मुजफ्फरनगर के जिला कार्यवाह हैं. पूरे जिले की जिम्मेदारी उनके हाथ में है. आरएसएस में दलितों की स्थिति पर हमसे बात करते हुए वो अपनी कहानी से ही शुरुआत करते हैं. वो कहते हैं कि 'मैं खुद दलित वर्ग से आता हूं और आज पूरे जिले की जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहा हूं. संघ की विचारधारा में जात-पात ऊंच-नीच की कोई जगह नहीं है. हम सब हिंदू हैं और हम इसी तरह से काम करते हैं.'
सेवादास कहते हैं कि 'हमारे समाज में जातियों को लेकर भेदभाव होता है. ये एक सच्चाई है और हमें मिलकर ही इसे खत्म करना है. संघ इस दिशा में वर्षों से काम कर रहा है.' सेवादास अपनी कहानी सुनाते हुए कहते हैं, ‘मैं 1987 में संघ से जुड़ा. उस वक्त मैं भी जातियों की राजनीति से प्रभावित था. जातियों के विषय उठाना, उनके लिए संगठन बनाना, आंदोलन वगैरह करना, वो सब मैं करता था. बाद में मुझे लगा कि सिर्फ एक जाति की बात उठाकर ज्यादा कुछ किया नहीं जा सकता है. इसी चिंतन के दौरान मैं संघ के संपर्क में आया. 10 वर्षों तक संघ के कार्यकर्ता मुझसे संपर्क करते रहे. मेरे मन में भी कई तरह के प्रश्न थे. बहुत से लोगों ने मुझे कहा कि ये ब्राह्मणों का संगठन है, उच्च वर्ग का संगठन है, इसमें कभी भी आपको कोई महत्वपूर्ण दायित्व नहीं मिलेगा. आपका उपयोग करने के लिए जोड़ा जाएगा.’
लेकिन फिर भी दिखता है उत्साह का अभाव
सेवादास अपनी कहानी के जरिए ये बताने की कोशिश करते हैं कि दलितों को लेकर संघ की जो तस्वीर पेश करने की कोशिश की जाती है, स्थिति उसके उलट है. हालांकि पश्चिमी यूपी के कई दलित बहुल इलाकों में लोगों से बात करने पर संघ को लेकर दलितों में उत्साह का अभाव दिखता है. कई जगहों पर तीखे विरोध का सामना करना पड़ता है.
सहारनपुर में पिछले साल शब्बीरपुर में दलितों और ठाकुरों के बीच हुआ जातीय दंगा और उसके बाद से लगातार भीम आर्मी और ठाकुर समुदाय के बीच झगड़े से बने माहौल ने दलितों के भीतर असंतोष पैदा किया है. ऐसे माहौल में आरएसएस की समानता की विचारधारा सुनने को कोई तैयार नहीं दिखता. देवबंद, शामली, कैराना और मुजफ्फरनगर की दलितों बस्तियों में संघ को लेकर विरोध का भाव ही दिखता है. दलित समाज एससी-एसटी एक्ट में बदलाव, आरक्षण की समीक्षा और नौकरियों में आरक्षण को खत्म करने जैसे मसले पर संघ की विचारधारा के करीब दिखाई नहीं देता. बीएसपी के प्रभाव वाले इलाकों में इन मसलों को उठाकर संघ की लानत मलानत की जाती है.
संघ दलितों को जोड़ने के लिए कर रहा है कोशिशें
हालांकि इस परिस्थिति के बाद भी दलितों को अपने साथ जोड़ने के लिए संघ लंबी योजना पर काम कर रहा है. पिछले दिनों खबर आई थी कि संघ का सेवा विभाग बीजेपी की तर्ज दलितों का दिल जीतने के लिए अभियान शुरू करने जा रही है. इस अभियान में साधु-संतों के जरिए दलितों की नाराजगी दूर करने की कोशिश की जाएगी. इसे सामाजिक समरसता और सदभाव यात्रा का नाम दिया गया है. इसमें संघ के कार्यकर्ता और साधु-संत दलितों के घर नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात्रिभोज करेंगे. वृंदावन में हुई बैठक में इस कार्यक्रम पर विस्तार से चर्चा हुई थी.
इस कार्यक्रम के बारे में मेरठ प्रांत के प्रचार प्रमुख अजय मित्तल बताते हैं कि ऐसा कोई स्पेशल प्रोग्राम नहीं चल रहा है. संघ इस तरह के कार्यक्रम आयोजित करवाता रहा है. ये उसी की कड़ी है. दलित और बाकी समुदायों को एकसाथ बिठाकर उनके बीच जो कुछ संशय या द्वेष है, उसे सुलझाने का काम चल रहा है. सेवा भारती और सामाजिक सुरक्षा मंच इन सब कामों को देख रहा है. अजय मित्तल कहते हैं कि ये सब तभी संभव है, जब एकदूसरे के यहां खाना पीना आना जाना लगातार रखें. उसके लिए प्रयास किया जा रहा है.
संघ दलितों को करीब लाने की कोशिश में बाबा साहब अंबेडकर जयंती पर कार्यक्रम का आयोजन, नवरात्र के मौकों पर दलित कन्याओं के पैर धोना और उन्हें खाना खिलाना, जिसे कन्या पूजन कहते हैं, जैसे कार्यक्रम करता रहा है. अजय मित्तल कहते हैं कि ‘आगे हम वाल्मिकी जयंती और दिसंबर में ऐसे कई कार्यक्रम और करेंगे. दलितों में हमारी अच्छी पकड़ी है. जाटवों में थोड़ा कम है. लेकिन रविदासों पर अच्छी पकड़ है. क्योंकि रविदास खुद रामभक्त होते हैं.’
संघ को लेकर एक हकीकत ये भी है कि अब तक एक बार भी ऐसा मौका नहीं आया है, जब संघ प्रमुख का पद किसी पिछड़े, अतिपिछड़े या दलित समुदाय के व्यक्ति के पास गया हो. सिर्फ एक ही मौके पर गैर ब्राह्मण जाति का व्यक्ति राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया इस पद पर आसीन हुए हैं. इस बाबत उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के संघ प्रचारक कृपाशंकर कहते हैं कि ऐसा नहीं है. हमारे संगठन में बड़े-बड़े पदों पर दलित रहे हैं. हमारे मेरठ प्रांत के प्रांत कार्यवाह फूल सिंह हरिजन हैं. वो जाटव समुदाय से आते हैं. दलितों को संघ से जोड़ने का कार्यक्रम हम हर वक्त चलाते रहते हैं.
क्या दलितों को भी बदलने की जरूरत है?
मुजफ्फरनगर के जिला कार्यवाह सेवादास कहते हैं कि संघ में किसी की जाति का पता नहीं चलता है. हमारे संबंधों को 20-30 साल हो जाते हैं और हमें एकदूसरे की जाति का पता नहीं चलता. किसी विवाह समारोह या कुछ इसी तरह के कार्यक्रम में जाने पर ही किसी स्वयंसेवक की जाति के बारे में पता चलता है. वो बताते हैं कि इस वक्त मुजफ्फरनगर में ही 100 से ज्यादा ऐसे स्वयंसेवक होंगे जो अच्छे दायित्व पर हैं लेकिन मैं उनकी जाति नहीं जानता. संघ के भीतर दलितों के आंकड़े पर ठीक-ठाक कुछ नहीं कहा जा सकता है. हालांकि वो कहते हैं कि मैं स्वयं दलित वर्ग से हूं, इसलिए कह सकता हूं कि पिछले दिनों हमने एक कार्यक्रम किया था. जिसमें सिर्फ मुजफ्फरनगगर से 10 हजार स्वंयसेवक शामिल हुए थे, इसमें करीब 3 हजार दलित वर्ग से थे.
मुजफ्फरनगर में इस वक्त आरएसएस की 315 शाखाएं लग रही हैं. इनमें दलितों की संख्या ठीक-ठाक है. दलित समुदाय से आने वाले सुमित भंवर संघ के स्वयंसेवक हैं. वो संघ की शाखाओं में व्यायाम करवाते हैं. सुमित कहते हैं कि दलितों को अपने भीतर भी कुछ बदलाव लाने की जरूरत है. उनके साथ भेदभाव जीवनशैली की वजह से भी होता है. अगर मैं आपके साथ साफसुथरे अंदाज में बैठूं, शालीन भाषा में बात करूं तो आप मेरे साथ क्यों अलग व्यवहार करेंगे. लोगों को इस बात के लिए जागरूक करने की जरूरत है कि वो अपनी जिंदगी कैसे संवारे. दलितों को लेकर संघ का दृष्टिकोण लोकप्रिय नहीं है. लेकिन संघ को लगता है कि आरएसएस के लिए दलितों के नजरिए में बदलाव आएगा. 2025 में संघ अपनी स्थापना के 100 साल मनाने जा रहा है. इस साल तक संघ का लक्ष्य हर गांव तक अपनी पहुंच बनाना है. आरएसएस को उम्मीद है कि तब तक उनके प्रति दलितों के नजरिए में व्यापक बदलाव देखने को मिलेगा.
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