‘संसद ने आज एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए भारत के भावी कार्यक्रम के रूप में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया. प्रस्ताव में भ्रष्टाचार को समाप्त करने, राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के साथ-साथ चुनाव सुधार करने,जनसंख्या वृद्धि, निरक्षरता और बेरोजगारी दूर करने के लिए जोरदार राष्ट्रीय अभियान चलाने का संकल्प किया गया.’
1997 में आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर करीब सप्ताह भर की चर्चा के बाद 1 सितंबर 1997 को ऊपर लिखा प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया. इस प्रस्ताव को सर्वश्री अटल बिहारी वाजपेयी, इंद्रजीत गुप्त, सुरजीत सिंह बरनाला, कांसी राम, जार्ज फर्नांडीस, शरद यादव, सोम नाथचटर्जी, एन.वी.एस.चितन, मुरासोली मारन, मुलायम सिंह यादव, डॉ.एम.जगन्नाथ,अजित कुमार मेहता, मधुकर सरपोतदार, सनत कुमार मंडल, वीरेंद्र कुमार वैश्य, ओम प्रकाश जिंदल और राम बहादुर सिंह ने सामूहिक रूप से पेश किया था.
क्यों लाया गया यह प्रस्ताव?
इस प्रस्ताव के संसद में आने की भी एक खास पृष्ठभूमि थी. 1996 के चुनाव में विभिन्न दलों की ओर से 40 ऐसे व्यक्ति लोकसभा के सदस्य चुने गए थे जिन पर गंभीर आपराधिक मामले अदालतों में चल रहे थे.
उनमें से दो बाहुबली सदस्यों ने लोकसभा के अंदर ही आपस में मारपीट कर ली. इस शर्मनाक घटना को लेकर अनेक बड़े नेता शर्मसार हो उठे और उन लोगों ने तय किया कि ऐसी तथा अन्य समस्याओं पर सदन में विशेष चर्चा की जाए और इन्हें रोकने के लिए कदम उठाए जाएं. इस विशेष चर्चा के दौरान सदन में करीब हफ्ते भर कोई दूसरा कामकाज नहीं हुआ.
वक्ताओं ने सदन में देशहित में भावपूर्ण भाषण किए. लेकिन उस के बाद इस देश में जब भी चुनाव हुए तो हमारे उन्हीं नेताओं ने अपने ही उन वायदों को पूरी तरह भुला दिया. नतीजतन न सिर्फ भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के मामले में नए रिकार्ड बनें बल्कि अन्य मूलभूत समस्याएं भी गंभीर होती चली गईं.
आज हालात यह है कि राजनीति और चुनाव पर धन, जाति-संप्रदायवाद, वंशवाद तथा अन्य तरह की बुराइयां पहले से अधिक हावी हैं. आज कोई व्यक्ति चुनाव लड़ने से पहले सौ बार सोचेगा जिसके पास अपार धन नहीं है. अपवादों की बात और है.
क्या पूरी होगी देश की उम्मीद?
1997 के उस ऐतिहासिक संकल्प के बाद देश यह उम्मीद कर रहा था कि अब संभवतः सभी दलों के नेतागण आपसी सहमति से यह तय करेंगे कि वे ऐसे किसी व्यक्ति को उम्मीदवार नहीं बनाएंगे, जो आदतन अपराधी प्रवृति का हो या फिर जिसने भ्रष्टाचार के जरिए अपार निजी संपत्ति बनाई है.
यदि नेताओं की मंशा सही हो, तो इस बात का पता लगाना अत्यंत आसान है कि कौन व्यक्ति अपराधी प्रवृति का है और किस व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य जन सेवा नहीं बल्कि ऐन केन प्रकारेण धन जोड़ना है.यदि मंशा ठीक नहीं है तो किसी को दोषी मानने से पहले उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले की काॅपी की मांग की जा सकती है.
उस संकल्प के बाद भी एक चुनाव में बिहार के एक प्रमुख नेता ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि ‘हम बाघ के खिलाफ किसी बकरी को तो चुनाव में उम्मीदवार नहीं बना सकते न !’ उनसे पूछा गया था कि आप आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगोंं को अपने दल से उम्मीदवार क्यों बना रहे है ?
वे यह कहना चाहते थे कि जब तक अन्य दल बाहुबलियों को टिकट देते रहेंगे, तब तक वे भी वैसे लोगों उम्मीदवार बनाते रहेंगे. अधिकतर नेताओं और दलों का यही रवैया अन्य बुराइयों के बारे में भी रहा.
क्या है सर्वदलीय वादा?
अब जरा 1997 के उस सर्वदलीय वादे को एक बार फिर याद कर लिया जाए जो इस देश के करीब-करीब सभी बड़े नेताओं ने संसद के मंच से पूरे देश के सामने किए थे. पूरे देश ने टीवी पर उसका लाइव प्रसारण देखा-सुना था.
आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर संसद के दोनों सदनों के विशेष सत्र में पारित प्रस्ताव में कहा गया कि ‘संसद ने आज एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए भारत के भावी कार्यक्रम के रूप में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास किया. प्रस्ताव में भ्रष्टाचार को समाप्त करने, राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के साथ-साथ चुनाव सुधार करने, जनसंख्या वृद्धि, निरक्षरता और बेरोजगारी को दूर करने के लिए जोरदार राष्ट्रीय अभियान चलाने का संकल्प किया गया.’
क्या कहा था हमारे नेताओं ने?
तब हमारे नेताओं ने सदन में क्या-क्या कहा था, उसकी कुछ बानगियां यहां पेश है. इससे भी यह पता चलेगा कि इन समस्याओं को हल करना अब और कितना जरूरी हो गया है अगर, इस देश में लोकतंत्र को बनाए रखना है और एकता-अखंडता कायम रखनी है.
लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने बहस का समापन करते हुए तब कहा था कि ‘एक बात सबसे प्रमुखता से उभरी है कि भ्रष्टाचार को समाप्त किया जाना चाहिए. इस बारे में कथनी ही पर्याप्त नहीं, करनी भी जरूरी है. उन्होंने यह भी कहा था कि राजनीति के अपराधीकरण के कारण भ्रष्टाचार बढ़ा है.’
पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सभी दलों को मिलकर लड़ाई लड़नी चाहिए. तत्कालीन रेल मंत्री राम विलास पासवान ने कहा कि देश के सामने उपस्थित समस्याओं के हल के लिए सभी दलों को मिल बैठकर ठोस कदम उठाने चाहिए. तत्कालीन स्पीकर पीए संगमा ने तो आजादी की दूसरी लड़ाई छेड़ने का आह्वान कर दिया.
पर, इस देश के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह रही कि उन्हीं राजनीतिक दलों के टिकट पर बाद में भी लोकसभा -विधानसभा चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि उम्मीदवार जीतते रहे हैं. अपार धन वालों का विधायिकाओं में ‘प्रतिनिधित्व’ बढ़ता जा रहा है. उसी अनुपात में संसद और विधान मंडलों में हंगामा भी.
यह बात भी देखी गई कि इस बीच राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टीकरण के खिलाफ जो भी कदम उठाए गए, वे मुख्यतः चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की पहल पर ही उठाए गए. राजनीतिक कार्यपालिका का इस काम में बहुत कम ही योगदान हो रहा है. यह स्थिति लोकतंत्र के हित में नहीं मानी जा रही है.
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