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पहले करात अब येचुरी: लेफ्ट की न समझ आने वाली राजनीति कब बदलेगी

गर सीपीएम के हाथ से त्रिपुरा का गढ़ भी निकल जाता है, तो ये देश में वामपंथी दलों की सियासत के ताबूत में आखिरी कील ही कहा जाएगा

Updated On: Jan 23, 2018 08:43 AM IST

Ajay Singh Ajay Singh

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पहले करात अब येचुरी: लेफ्ट की न समझ आने वाली राजनीति कब बदलेगी

सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी आज अपनी ही पार्टी में अलग-थलग पड़ गए हैं. पार्टी ने कांग्रेस से समझौते के येचुरी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है. आज के सियासी हालात से कई महीने पहले येचुरी की अपने कॉलेज के दिनों के साथी रहे वित्त मंत्री अरुण जेटली से दिलचस्प बातचीत हुई थी. 70 के दशक में येचुरी और जेटली सहपाठी हुआ करते थे.

बात पिछले साल अगस्त महीने की है. येचुरी का राज्यसभा का कार्यकाल खत्म होने वाला था. एक दिन सदन की कार्यवाही खत्म होने के बाद येचुरी अपनी बेंच से उठकर जेटली के पास गए और कहा कि उनका कार्यकाल खत्म होने वाला है. ऐसे में वो अपने विदाई भाषण में उनके यानी येचुरी के कार्यकाल के बारे में क्या कहेंगे. अरुण जेटली ने अपने चिर-परिचित अंदाज में कहा कि, 'मैं ये कहूंगा कि आप एक मार्क्सवादी के तौर पर यहां आए थे और एक कांग्रेसी के तौर पर सदन से विदा ले रहे हैं.'

येचुरी ने जेटली से कहा कि ऐसा मत कहिएगा, वरना अपनी पार्टी में मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा. आखिर में जेटली ने येचुरी के बारे में औपचारिक भाषण दिया और उनकी तारीफ ही की. ये किस्सा आज सीपीएम की दुविधा को समझाने के लिए काफी है. पार्टी ये तय नहीं कर पा रही है कि भविष्य में उसकी राजनीति किस दिशा में आगे बढ़े.

हालांकि इस किस्से की कोई तस्दीक नहीं कर सकता. लेकिन एक बात तो साफ है कि बीजेपी को आज सीपीएम की दुविधा और भारतीय राजनीति में इसके भविष्य का अच्छे से एहसास है. बीजेपी को पता है कि सीपीएम आज भारतीय राजनीति के हाशिए पर है. ये पहली बार नहीं है जब सीताराम येचुरी अपनी पार्टी सीपीएम को बदले हुए सियासी माहौल के मुताबिक ढालने की कोशिश कर रहे थे.

Winter session of Parliament

पहले भी कोशिश कर चुके हैं येचुरी

जब भारत और अमेरिका के बीच न्यूक्लियर डील हुई थी, तब सीताराम येचुरी ने समाजवादी पार्टी के अमर सिंह, जेडीयू के दिवंगत नेता दिग्विजय सिंह और बीजेपी के यशवंत सिन्हा के साथ मिलकर मनमोहन सरकार गिराने की कोशिश की थी. बाद में येचुरी ने अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर न्यूक्लियर डील पर मनमोहन सरकार को बचाने में अपना जोर लगाया. इससे उस वक्त के पार्टी महासचिव प्रकाश करात और उनके समर्थक येचुरी से बहुत नाखुश हुए थे. साफ है कि येचुरी की राय अपनी पार्टी के प्रमुख से बिल्कुल मुख्तलिफ थी. हालांकि उस वक्त के लोकसभा स्पीकर ने भी येचुरी की तरह अमेरिका से एटमी डील का समर्थन किया था. इसकी कीमत सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से बाहर निकलकर चुकानी पड़ी थी.

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प्रकाश करात ऐसे नेता हैं, जो मार्क्सवादी विचार में किसी बदलाव के सख्त खिलाफ हैं. 2009 के आम चुनाव में जब पार्टी की बुरी गत हुई थी, तब करात अपनी पार्टी में अलग-थलग पड़ गए थे. उससे ठीक पहले उन्होंने पूरी ताकत लगाकर मनमोहन सरकार को गिराने की कोशिश की थी. दो साल बाद सीपीएम का मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल भी पार्टी के हाथ से निकल गया था. ममता बनर्जी ने करीब तीन दशक का वामपंथी राज खत्म कर दिया था. इसके बाद सीपीएम ने आधुनिक सियासी विचार अपनाने की कोशिश की. येचुरी इसका चेहरा बने.

राज्यसभा सदस्य के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान सीताराम येचुरी ने कांग्रेस से रिश्ते बेहद मजबूत कर लिए. वो अक्सर कांग्रेस के पक्ष में बोलते नजर आते थे. येचुरी का कहना था कि वो सांप्रदायिक बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस को छोटा शैतान मानते हैं. दोनों में से एक चुनना हो तो उनके मुताबिक कांग्रेस को चुनना बेहतर है. येचुरी का ये तर्क उनकी कांग्रेसी किस्म की राजनीति के बचाव का ही तर्क था. और कुछ नहीं.

sitaram yechury

लेकिन, येचुरी की कांग्रेस समर्थक राजनीति से पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ. लेफ्ट की ताकत घटती गई. आज वामपंथी दल सिर्फ केरल और त्रिपुरा में सत्ता में हैं. दोनों ही राज्यों में पार्टी के कट्टरपंथी नेतृत्व को बीजेपी से कड़ी चुनौती मिल रही है. इन दोनों ही राज्यों में बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति और कांग्रेस की सियासत में कोई खास फर्क नहीं देखने को मिलता. नतीजा ये कि दोनों ही राज्यों में आज बीजेपी, वामपंथी दलों की मुख्य विरोधी बन गई है.

येचुरी और करात में कंफ्यूज्ड है पार्टी

सीपीएम में हालिया विवाद इस बात का था कि पार्टी येचुरी के बताए फॉर्मूले पर चले या करात के दिखाए रास्ते पर. इसका सीधा वास्ता वामपंथ के आखिरी दो गढ़ों में से एक यानी त्रिपुरा में होने वाले चुनाव से है. लेफ्ट का त्रिपुरा का किला भी दरक रहा है. त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार व्यवहारिक राजनेता हैं. वो 1998 से राज्य में सरकार चला रहे हैं. लोग माणिक सरकार को उनकी सादगी की वजह से पसंद करते हैं. वो त्रिपुरा की राजनीति और वहां के समाज को अच्छे से समझते हैं. आम लोगों को उन तक पहुंचने में दिक्कत नहीं होती.

2014 के चुनाव के बाद माणिक सरकार ने नरेंद्र मोदी की सरकार के साथ संबंध बेहतर बनाने की कोशिश की थी. उन्हें समझ में आ गया था कि भारतीय सियासत बदल रही है. और राज्य के विकास के लिए केंद्र सरकार से अच्छा तालमेल जरूरी है. इसीलिए माणिक सरकार ने मोदी को अगरतला में अपने दफ्तर आकर मंत्रियों के साथ बैठक करने का न्यौता दिया. राज्य के तमाम प्रोजेक्ट के लिए केंद्र की मदद जरूरी है. माणिक सरकार को मालूम है कि केंद्र से अच्छा ताल्लुक इसके लिए कितना अहम है. मोदी को खुश करके माणिक राज्य में बीजेपी के विरोध को भी कमजोर करना चाहते थे. लेकिन उनकी पार्टी के नेताओं को मोदी से ये नजदीकी रास नहीं आई. उन्होंने इसे एक वामपंथी नेता के लिए पाप बताया कि वो सांप्रदायिक कहे जाने वाले नेता से नजदीकी बढ़ा रहा था.

बीजेपी के लिए अहम हो चुके हैं पूर्वोत्तर के राज्य

शायद सीपीएम के नेतृत्व को इस बात का एहसास नहीं है कि पूर्वोत्तर के राज्य बीजेपी की भविष्य की राजनीति और रणनीति के लिए कितने अहम हैं. आजादी के बाद नेहरू के राज्य में पूर्वोत्तर के राज्य भारत की मुख्य भूमि से कटे से रहे. इसकी वजह इलाके का भूगोल भी था और संस्कृति भी. हिंदुत्व की राजनीति के लिए तो पूर्वोत्तर के राज्यों में और भी जगह नहीं थी. लेकिन, संघ ने इस इलाके में पांव पसारने के लिए कड़ी मेहनत की है. पूर्वोत्तर के राज्यों में संघ परिवार ने अपना संगठन मजबूत किया है और लगातार पूरी ताकत से हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार किया है.

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बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि एनडीए की पहली यानी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार और आरएसएस के बीच पहला टकराव पूर्वोत्तर की राजनीति को लेकर ही हुआ था. संघ परिवार इस बात से नाराज था कि पूर्वोत्तर के राज्यों में चर्च से जुड़े अलगाववादी उसके नेताओं-कार्यकर्ताओं को अगवा करके मार रहे हैं. संघ परिवार का आरोप था कि गृह मंत्री आडवाणी इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं.

इस मसले पर वाजपेयी-आडवाणी और संघ परिवार के बीच तनातनी बहुत बढ़ गई थी कि एनडीए सरकार पूर्वोत्तर के राज्यों में संघ से जुड़े लोगों की हिफाजत के लिए कुछ नहीं कर रही है. नरेंद्र मोदी को संघ परिवार की भविष्य की रणनीति में पूर्वोत्तर की अहमियत का अच्छे से एहसास है. इसलिए सत्ता में आने के बाद वो लगातार पूर्वोत्तर राज्यों के विकास की योजनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं. साथ ही बीजेपी लगातार इस इलाके में अपना संगठन मजबूत कर रही है. त्रिपुरा में आज बीजेपी, लेफ्ट को कड़ी टक्कर दे रही है.

पिछले कुछ दिनों से त्रिपुरा में बीजेपी और वामपंथी सरकार समर्थकों के बीच हिंसक भिड़ंत की कई खबरें आई हैं. साफ है कि त्रिपुरा में बीजेपी, माणिक सरकार की सरकार को कड़ी टक्कर दे रही है. लंबे वक्त से राज कर रहे माणिक सरकार के प्रशासन में कई खामियां तो हैं हीं. बीजेपी इनका फायदा उठाने की फिराक में है. लेकिन, सीपीएम की दिक्कत ये है कि अभी वो इसी दुविधा में है कि किस सियासी रास्ते पर चले.

इससे पार्टी की चुनौती और बढ़ गई है. पार्टी परंपरागत सियासी सफर पर चलते-चलते इस हाल में पहुंच गई है. कांग्रेस से गठजोड़ से उसका सियासी तौर पर और भी अलग-थलग पड़ना तय है. यानी पार्टी के लिए हालत आगे कुआं-पीछे खाई वाली है. कुल मिलाकर देश का सबसे बड़ा वामपंथी दल आज पूरे देश में हाशिए पर है. अगर सीपीएम के हाथ से त्रिपुरा का गढ़ भी निकल जाता है, तो ये देश में वामपंथी दलों की सियासत के ताबूत में आखिरी कील ही कहा जाएगा.

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