जुलाई 2008 में सीपीएम महासचिव प्रकाश करात ने बंगाल में पार्टी नेताओं के विरोध को नजरअंदाज करते हुए और पार्टी के पितामह ज्योति बसु की बेशकीमती सलाह को खारिज करते हुए यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलाइंस सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. उस वक्त, करात के अजीबोगरीब और लापरवाह फैसले से केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार तो नहीं गिरी, उल्टे वाम दलों (खासकर सीपीएम) को तगड़ा झटका जरूर लगा था.
साल 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और ज्यादा ताकत और सीटों के साथ सत्ता में लौट आई. जबकि वाम मोर्चे की सीटों की संख्या 60 से घटकर 24 हो गई थी. वाम दलों को सबसे ज्यादा नुकसान पश्चिम बंगाल में ही उठाना पड़ा था. प्रदेश में तब वाम दलों की सीटों की संख्या 35 से घटकर 14 रह गई थी. यह पश्चिम बंगाल में तीन दशक से भी ज्यादा लंबे समय तक राज करने वाले वामपंथी अधिपत्य के अंत की शुरुआत थी.
ज्योति बसु ने 2008 में जिस बात की आशंका जताई थी, वाम दलों के लिए वह बुरा दौर तीन साल बाद ही सामने आ गया था. कांग्रेस के साथ गठबंधन खत्म करके करात एंड कंपनी ने अपने चिर प्रतिद्वंद्वी तृणमूल कांग्रेस की राह काफी हद तक आसान कर दी थी. मौके की नजाकत भांपते हुए तृणमूल कांग्रेस ने अपने पूर्ववर्ती पैतृक संगठन यानी कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने में जरा भी देर नहीं लगाई.
कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस के गठबंधन ने सीपीएम के विनाश की रुपरेखा तैयार कर दी थी. वहीं रही सही कसर बुद्धदेव भट्टाचार्य की गलतियों और मूढ़ता ने पूरी कर दी. कोलकाता की अलीमुद्दीन स्ट्रीट स्थित सीपीएम मुख्यालय में बैठकर पार्टी को चलाने वाले लोग उस वक्त जनता की नब्ज पकड़ने में पूरी तरह से नाकाम रहे.
सोमनाथ के बाद येचुरी को हासिए पर पहुंचाने पर तुले हैं करात
नंदीग्राम और सिंगूर की नाकामी के बावजूद सीपीएम नेताओं को यकीन था कि, कांग्रेस के साथ गठबंधन करने पर भी ममता बनर्जी राज्य में वामपंथ विरोधी वोटों को अपने साथ करने में कामयाब नहीं हो पाएंगी. लेकिन सीपीएम नेताओं की यह धारणा गलत साबित हुई. वाम मोर्चे को पटखनी देकर ममता बनर्जी ने बाजी मार ली. सीपीएम समेत सभी वाम दलों का का पतन साल 2014 के लोकसभा चुनाव और 2016 के विधानसभा चुनावों में भी जारी रहा.
हठधर्मी प्रकाश करात की ओर से 10 साल पहले उठाया गया एक गलत कदम सीपीएम को बंगाल में करीब-करीब असंगति की ओर ले गया.
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प्रकाश करात ने अपनी पिछली गलतियों से कोई सबक नहीं लिया है. इसकी नजीर पिछले हफ्ते सीपीएम की केंद्रीय समिति की बैठक में देखने को मिली. केंद्रीय समिति की बैठक के दौरान करात ने बहुमत के साथ पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी की ओर से प्रस्तावित एक अहम ड्राफ्ट (मसौदे) को खारिज कर दिया. अपने ड्राफ्ट में सीताराम येचुरी ने पार्टी के लिए एक राजनैतिक संकल्प (पॉलिटिकल रेजोल्यूशन) पेश किया था. जिसमें 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के साथ सुनियोजित गठबंधन की वकालत की गई थी.
कुछ महीने पहले, करात कैंप ने येचुरी को राज्यसभा में तीसरी बार भेजने से इनकार कर दिया था. जिसकी वजह यह बताई गई थी कि, पार्टी के नियम के मुताबिक, कोई भी नेता संसद के उच्च सदन में दो से ज्यादा बार नहीं भेजा जा सकता है.
यहां तक कि, करात उस विचार को भी हजम नहीं कर पाए थे, जिसमें येचुरी को बंगाल के कांग्रेस विधायकों के समर्थन से राज्यसभा भेजे जाने की बात उठी थी. येचुरी जैसे बेहतरीन वक्ता की गैरहाजिरी ने केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी के लिए राज्यसभा की कार्यवाही खासी आसान बना दी है.
कोलकाता में सीपीएम की केंद्रीय समिति की बैठक में दरकिनार होने के बाद सीताराम येचुरी खासे निराश नजर आ रहे हैं. ऐसे में लगता है कि, वह ज्यादा दिन तक पार्टी के महासचिव के पद पर नहीं रहेंगे. अगर ऐसा हुआ, तो हर मोर्चे पर घिरी सीपीएम के लिए यह एक और बड़ा झटका होगा.
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ऐसा प्रतीत होता है कि, करात और उनके करीबियों की ओर से कांग्रेस का अंधा विरोध सीपीएम को विस्मृति और बर्बादी की ओर धकेल रहा है. करात की नीतियों पर चलकर सीपीएम का पाखंड और कथनी-करनी का फर्क उजागर हो गया है.
हरकिशन सिंह सुरजीत ने कांग्रेस को माना था कम बुरा
सांप्रदायिक ताकतों से जी-जान से लड़ने का सीपीएम का संकल्प फिलहाल कोरी बयानबाजी से ज्यादा और कुछ नजर नहीं आ रहा है. धर्मनिरपेक्ष दलों को कमजोर करके सांप्रदायिक ताकतों से नहीं लड़ा जा सकता है. एक समय था जब, सीपीएम की उस नीति में अर्थ दिखाई देता था, जब उसने कांग्रेस और बीजेपी से समान राजनीतिक दूरी बना रखी थी. लेकिन 1990 की शुरूआत में बीजेपी की किस्मत चमकी और उसके वोट बैंक में नाटकीय इजाफा हुआ. जिसके बाद वाम दलों को अपनी रणनीति बदलना पड़ी.
तब सीपीएम के दिग्गज नेता हरकिशन सिंह सुरजीत और ज्योति बसु ने बीजेपी की तुलना में कांग्रेस को 'कम बुरा' माना. लिहाजा, हालात के मद्देनजर सीपीएम ने कांग्रेस से अपनी पुरानी दुश्मनी को भुला दिया. दरअसल सुरजीत और बसु ने हालात की नजाकत को वक्त रहते भांप लिया था. इसलिए उन्होंने सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की तत्काल एकजुटता पर जोर दिया था.
अपने नए नजरिए और रणनीति के तहत ही वाम दलों ने 1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव की अगुवाई वाली अल्पमत कांग्रेस सरकार को बाहर से समर्थन दिया था.
साल 2002 के गुजरात दंगों के बाद सीपीएम समेत सभी वाम दलों को यह एहसास हुआ कि, अगर सांप्रदायिक ताकतों को नहीं रोका गया, तो वे देश के बहुलवादी ढांचे के लिए गंभीर खतरा बन सकते हैं. इसी सोच के तहत सुरजीत ने 2004 में मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए-वन सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. ऐसा बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए को सत्ता में वापसी करने से रोकने के लिए किया गया था.
हालांकि, यूपीए-1 सरकार के गठन के महज एक साल बाद ही, अपनी बढ़ती उम्र और गिरती सेहत की वजह से सुरजीत ने पार्टी में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. अप्रैल 2005 में प्रकाश करात सीपीएम के महासचिव बने. उन्होंने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के मुद्दे पर यूपीए-1 सरकार से समर्थन वापस ले लिया.
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इस तरह से करात ने महज तीन सालों में वह सब खो दिया, जिसे उनके दिग्गज पूर्ववर्ती नेताओं ने कई साल की कड़ी मेहनत के बाद हासिल किया था. करात के फैसले से सबसे ज्यादा झटका धर्मनिरपेक्ष ताकतों के एकीकरण की मुहिम को लगा था. आश्चर्य नहीं होना चाहिए, अगर रविवार को संपन्न हुई सीपीएम की तीन दिवसीय केंद्रीय समिति की बैठक के नतीजे पर बीजेपी जश्न मना रही हो.
कांग्रेस को समर्थन नहीं देना है मगर बीजेपी को हराना है
एक तरफ, सीपीएम केंद्रीय समिति के मसौदे में प्रस्ताव है कि, पार्टी का मुख्य उद्देश्य 'भारतीय जनता पार्टी को पराजित करना' है. लिहाजा इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सभी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतों को एकत्रित करने का हर संभव प्रयास करना है. वहीं दूसरी तरफ, कांग्रेस के साथ गठबंधन के येचुरी के दूरदर्शी और व्यावहारिक प्रस्ताव को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया.
साल 2008 में करात ने यूपीए-1 सरकार से समर्थन वापस लेने के अलावा एक और गलती की थी. उन्होंने सोमनाथ चटर्जी जैसे बड़े नेता को पार्टी से बाहर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से इसलिए निकाला गया था क्योंकि उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष का पद छोड़ने से इनकार कर दिया था.
चटर्जी ने भी बसु की तरह आखिरी क्षण तक यूपीए-1 सरकार से समर्थन वापस लेने के फैसले का विरोध किया था. सोमनाथ चटर्जी को अब भी सीपीएम से बहुत लगाव है. वह पार्टी की केंद्रीय समिति के ताजा फैसले से खासे दुखी हैं. उन्होंने कहा है कि, यह गलती भी पार्टी को बेहद महंगी पड़ सकती है.
सोमनाथ चटर्जी न केवल यूपीए-1 सरकार से समर्थन वापस लेने के विरोध में थे, बल्कि वह पार्टी दिग्गजों के उस फैसले के भी खिलाफ थे, जिसमें 1996 में ज्योति बसु को देश का प्रधानमंत्री बनने की इजाजत नहीं दी गई थी.
दिल्ली की गद्दी पर एक कम्युनिस्ट की ताजपोशी से भारतीय राजनीति का चेहरा हमेशा के लिए बदल सकता था. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. अपनी हठधर्मी पार्टी के इस फैसले को ज्योति बसु ने बाद में 'ऐतिहासिक भूल' करार दिया था. दुख की बात यह है कि, तब से लेकर अब तक पार्टी गलतियों पर गलतियां किए जा रही है.
डेविड मलफर्ड ने प्रकाश करात की क्षमता पर उठाए थे सवाल
तत्कालीन तृणमूल कांग्रेस के महासचिव मुकुल रॉय ने एक बार शेखी बघारते हुए कहा था कि, उनकी पार्टी सीपीएम को उस हद तक पहुंचा देगी, जहां उसे माइक्रोस्कोप से खोजना पड़ेगा. अब करात जैसे नेताओं के चलते सीपीएम को किसी बाहरी दुश्मन की जरूरत ही नहीं रही है. हमें भूलना नहीं चाहिए कि, ज्योति बसु को करात के राजनीतिक कौशल को लेकर खासा दुराव था.
अप्रैल 2005 में करात के पार्टी के महासचिव बनने के कुछ दिन पहले, तत्कालीन अमेरिकी राजदूत डेविड मलफोर्ड ने करात और उनकी पार्टी के बारे में वाशिंगटन को एक केबल भेजा था.
जिसमें कहा गया था कि, 'सीपीएम के दिग्गज नेता ज्योति बसु चिंतित हैं कि, करात के पास हरकिशन सिंह सुरजीत की तरह कांग्रेस से संबंध बनाए रखने और वाम मोर्चा गठबंधन को संभाल कर रख पाने की काबियलियत नहीं है.' विकीलीक्स की ओर से सितंबर 2011 में इस केबल के रहस्योद्घाटन ने साबित कर दिया था कि, ज्योति बसु की आशंकाएं गलत नहीं थीं.
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