दिल्ली की राजनीति में आखिर कांग्रेस का क्या रोल है? क्या वो 2019 के लिए बन रहे विपक्ष के मोदी विरोधी मोर्चे का केंद्र है? या फिर, वो बीजेपी की 'बी टीम' है, जो मौकापरस्ती की राजनीति करती है और पुराने सिद्धांत के तहत दुश्मन के दुश्मन को अपना दोस्त मानती है?
मौजूदा और पुराने सबूत कहते हैं कि कांग्रेस इस वक्त अपनी मालिक यानी बीजेपी का मुखौटा भर है. कांग्रेस की मौजूदा राजनीति मुकेश के पुराने गाने, 'जो तुम को हो पसंद वही बात कहेंगे' की सटीक मिसाल है. भले ही इसका मतलब दिन को रात कहना हो, या विचारधारा के मोर्चे पर तमाम समझौते करना हो, या फिर बीजेपी के सुर में सुर मिलाना हो.
अपने हितों को तरजीह देती है कांग्रेस
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार और केंद्र के बीच जो मौजूदा रस्साकशी है, उसमें कांग्रेस का रवैया उसकी मौकापरस्ती की राजनीति की गवाही देता है. जब उसे सियासी तौर पर बीजेपी का विरोध करना ठीक लगता है, तो पार्टी वैसा करती है. कभी खुलेआम बीजेपी के स्टैंड के साथ खड़े होकर, तो कभी खामोशी से. भले ही इसके चलते विपक्ष के हितों को चोट पहुंचती हो, मगर कांग्रेस अपने हितों को तरजीह देती है.
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पिछले कुछ दिनों से दिल्ली के मुख्यमंत्री अपने कुछ मंत्रियों के साथ उप राज्यपाल के घर पर धरने पर बैठे हैं. अरविंद केजरीवाल की मांग है कि उप राज्यपाल दिल्ली सरकार के काम के लिए दिए गए आईएएस अफसरों की 'हड़ताल' खत्म करने के लिए दखल दें. केजरीवाल की सरकार ने उप राज्यपाल को अपनी मांगों की एक फेहरिस्त सौंपी है. इसमें उन्होंने उप राज्यपाल से गुजारिश की है कि वो एक आदेश पारित करें कि जो आईएएस अफसर काम पर नहीं लौटते हैं, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी. जरूरी हुआ तो इन अफसरों के खिलाफ एस्मा (ESMA) कानून भी लगाया जाएगा. केजरीवाल सरकार की ये मांग भी है कि वो उन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करें, जो अब तक 'काम में अड़ंगा' लगाते रहे हैं.
आप का समर्थन कर लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने की लड़ाई का संदेश दे सकती थी पार्टी
कांग्रेस, बीजेपी को 'लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरा' बताकर विपक्षी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिश कर रही है. कांग्रेस ने सभी विपक्षी दलों से ये कहकर एकजुट होने की अपील की है कि बीजेपी लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए विपक्षी नेताओं का सम्मान नहीं करती और देश के संघीय ढांचे को तहस-नहस करने पर आमादा है. अब अगर कांग्रेस को अपने इन आरोपों में सच्चाई लगती है, तो दिल्ली में उसके लिए एक जबरदस्त मौका था कि वो आम आदमी पार्टी का समर्थन कर के, लोकतांत्रिक मूल्यों और संघीय ढांचे को बचाने की लड़ाई में अपनी संजीदगी का संदेश देती.
लेकिन, कांग्रेस तो मौकापरस्ती, और सियासी फायदे के लिए उसूलों से समझौते करने और पैंतरा बदलने में माहिर है. इसलिए, पार्टी ने दिल्ली में या तो मुख्यमंत्री पर हमला किया या फिर ताजा विवाद पर खामोशी अख्तियार कर ली. केजरीवाल एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के मुखिया हैं. उनकी पार्टी भारतीय लोकतंत्र की ऐतिहासिक मिसाल बनने वाला बहुमत हासिल करके सत्ता में आई थी. अब उनकी मांग जायज हो या नाजायज, लेकिन दिल्ली के उप राज्यपाल का उनसे मिलने से इनकार करना और मौजूदा टकराव को खत्म करने की पहल न करना, दिल्ली सरकार का मखौल उड़ाना है. दिल्ली सरकार का मखौल उड़ाने का सीधा सा मतलब उस जनता का मखौल उड़ाना है, जिसने वो सरकार चुनी. इस टकराव का नतीजा ये है कि दिल्ली में प्रशासन के पहिए रुक गए हैं. लेकिन, कांग्रेस जो दूसरे राज्यों में राज्यपाल की दखलंदाजी पर खूब शोर मचाती रही है, वो दिल्ली में उप-राज्यपाल और केजरीवाल सरकार के बीच टकराव पर खामोश है.
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कोई स्टैंड नहीं लिया, मतलब बीजेपी के साथ
कांग्रेस ने इस मामले पर अब तक केजरीवाल के धरने को दिल्ली में पानी के संकट से ध्यान बंटाने की 'नौटंकी' बताने की औपचारिक प्रतिक्रिया भर दी है. न तो पार्टी ने केजरीवाल की मांगों को वाजिब बताया है, न ही अफसरों की हड़ताल और असहयोग को गलत ठहराया है. कांग्रेस के नेताओं ने आईएएस अफसरों के दिल्ली सरकार की बैठकों में न जाने और इससे प्रशासन के ठप पड़ जाने की वैधानिकता के बारे में एक शब्द नहीं बोला है. कुल मिलाकर, कांग्रेस ने इस टकराव में कोई स्टैंड न लेकर ये बता दिया है कि वो यथास्थिति की हामी है, जिसका मतलब ये है कि कांग्रेस इस मामले में बीजेपी के साथ है.
कांग्रेस केजरीवाल की खुलकर मुखालफत करती रही है और उनकी मांगों पर अक्सर चुप्पी साध लेती है. जबकि कांग्रेस के टीएमसी, सीपीएम और आरएलडी जैसे सहयोगी खुलकर दिल्ली सरकार का समर्थन कर चुके हैं. यहां तक कि ममता बनर्जी और उनके धुर सियासी विरोधी सीताराम येचुरी तक ने केजरीवाल की मांग का समर्थन करके ये संकेत दिया है कि तमाम विरोध के बावजूद वो कुछ मसलों पर एक साथ आने को तैयार हैं.
इस मौकापरस्ती से साफ है कि लोकतंत्र, संविधान और लोकतांत्रिक संस्थाओं को बचाने के नाम पर विपक्ष के एकजुट होने की दुहाई देने वाली कांग्रेस की चिंता असल में एक फरेब है. इससे पता चलता है कि कांग्रेस सिर्फ अपने हित साधने की विचारधारा में यकीन रखती है. तो, अपने फायदे के लिए कांग्रेस उन विरोधियों के साथ हाथ मिलाने को तैयार हो जाती है, जो उसका अस्तित्व बचाए रखने में मददगार हो सकते हैं. भले ही वो गठबंधन कर्नाटक जैसा अपवित्र और मौकापरस्त क्यों न हो. लेकिन जब ये किसी क्षेत्रीय पार्टी को अपने लिए खतरा देखती है, तो वो बीजेपी की कठपुतली बनने को भी फौरन तैयार हो जाती है, भले ही वो क्षेत्रीय दल मोदी विरोधी मोर्चे में ही क्यों न शामिल हो.
आप को क्यों समर्थन नहीं देती कांग्रेस?
कांग्रेस का केजरीवाल से डर समझना बहुत आसान है. कांग्रेस को दिल्ली में आम आदमी पार्टी अपने अस्तित्व के लिए खतरा दिखाई देती है. एक साल पहले कांग्रेस पंजाब में आम आदमी पार्टी की बढ़ती ताकत से इस कदर परेशान हो गई थी कि इस बात की अटकलों ने खूब जोर पकड़ा कि आम आदमी पार्टी को रोकने के लिए कांग्रेस ने अकाली दल से समझौता कर लिया है. कांग्रेस को केजरीवाल में अपने लिए बड़ा खतरा दिखता है. पार्टी को ये लगता है कि फिलहाल भले ही केजरीवाल बहुत कमजोर हों, लेकिन उनमें ये ताकत है कि वो खुद को 2014 की तरह बीजेपी को हराने वाली अपनी छवि को फिर से जिंदा कर सकते हैं. ऐसे में आम आदमी पार्टी का खात्मा और केजरीवाल का पतन कांग्रेस के अपने अस्तित्व के लिए जरूरी है.
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लेकिन, अगर दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां बारीकी से इन बातों पर गौर कर रही हैं, तो उन्हें कांग्रेस के बारे में दो बातें समझ में आ गई होंगी. पहली बात तो ये कि कांग्रेस किसी भी वक्त किसी भी विचारधारा के नाम पर पलटी मार सकती है, जो उसके लिए सियासी तौर पर फायदेमंद हो. दूसरी बात ये कि कांग्रेस हर उस क्षेत्रीय दल को बर्बाद करने के लिए पुरजोर कोशिश करती है, जो भविष्य में उसके लिए खतरा बन सकती है. भले ही इसका मतलब बीजेपी के सुर में सुर मिलाना ही क्यों न हो.
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