2011 में अन्ना आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी. लगभग पूरा देश ही उस आंदोलन में अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के इंडिया अगेंस्ट करप्शन के साथ दिखाई दे रहा था. बीजेपी के भी कई बड़े नेता सड़कों पर आए थे.
कांग्रेसनीत यूपीए के आठ साल बीत रहे थे और हर तरफ इस दौरान हुए एक से बढ़कर एक घोटालों का जिक्र हो रहा था. लोग एक मुंह से कांग्रेस की जबरदस्त आलोचना कर रहे थे.
ऐसे समय में कांग्रेस के सामने एक मुश्किल चुनाव था. 2012 का राष्ट्रपति चुनाव. मनमोहन सिंह की चौतरफा आलोचना के बीच कांग्रेस के पास राष्ट्रपति बनाने के लिए संख्या बल तो दिखाई दे रहा था लेकिन नैतिक बल नहीं. इसके दो कारण थे, पहला तो प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के चयन को लेकर काफी कुछ लिखा जा चुका था. उनके के खिलाफ पर्याप्त भ्रष्टाचार के आरोप भी सामने आ चुके थे. दूसरा, प्रणब मुखर्जी भविष्य में परिवार की राजनीति के खिलाफ कोई आवाज न उठा दें. क्योंकि उस समय जिन स्थितियों से कांग्रेस गुजर रही थी अगर प्रणब आवाज बुलंद करते तो गांधी परिवार के लिए मुश्किलें काफी बढ़ जातीं.
खैर, प्रणब मुखर्जी प्रत्याशी बनाए गए. संख्या बल के अलावा उनकी खुद की लोकप्रियता ने रंग दिखाया और वो आसानी के साथ राष्ट्रपति चुनाव जीत गए.
लेकिन कांग्रेस के चयन में एक दिलचस्प बात है. वो ये है कि अगर बीते कुश चुनावों में बीजेपी के मुकाबले उसके उम्मीदवारों के चयन पर नजर डाली जाए तो उसकी लिस्ट ज्यादा कमजोर नजर आती है. बीजेपी ने राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाया तो जब दूसरी बार उनके राष्ट्रपति बनने का नंबर आया तो कांग्रेस ने ही अड़ंगा लगाया.
कलाम की लोकप्रियता को देखते हुए उस समय उनको दोबारा राष्ट्रपति बनाने की मांग भी उठी थी. लेकिन कलाम समझदार थे उन्होंने खुद ही रेस से बाहर होना उचित समझा. कलाम के बाद कांग्रेस ने प्रतिभा देवीसिंह पाटिल को राष्ट्रपति बनाया जिनके बारे में ये कहा जाता रहा कि उनकी सबसे बड़ी खासियत यही रही कि उन्होंने इमरजेंसी के समय सोनिया गांधी के बच्चों का खास ख्याल रखा था. इसके अलावा उनकी राजनीति में किसी बड़े योगदान का इतिहास नजर नहीं आता.
प्रणब मुखर्जी निश्चित रूप से राष्ट्रपति पद के एक बेहतर उम्मीदवार थे लेकिन उनके जाने के बाद मीरा कुमार को प्रत्याशी चुनने का निर्णय हास्यास्पद ही लगता है. मीरा कुमार को चुनने का निर्णय बीजेपी के रामनाथ कोविंद को प्रत्याशी बनाने के बाद हुआ. बीते महीने से ऐसा लग रहा था कि विपक्ष मजबूती के साथ सरकार के सामने कोई प्रत्याशी खड़ा करेंगे.
सोनिया गांधी के घर पर भोज में शामिल हुए 17 पार्टी के नेताओं ने जिस तरह की भाव-भंगिमाएं दिखाई थीं. उससे ये संदेश देने की कोशिश की गई कि हम सब एक हैं और राष्ट्रपति हमारा ही होगा. लेकिन ये विपक्षी दल पीएम नरेंद्र मोदी के पॉलिटिकल मूव के पीछे-पीछे चलते ही दिखाई दे रहे हैं.
रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा के बाद ही लगने लगा था कि नीतीश कुमार उनका समर्थन कर देंगे. सोनिया गांधी की पार्टी में न आकर बीते माह ही उन्होंने इशारे ही इशारे में काफी कुछ कह दिया था. नीतीश से मिले झटके के बाद कांग्रेस और उसके साथियों के पास बिहार की ही एक दलित नेता को रामनाथ कोविंद के सामने खड़ा करने के अलावा कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा था.
कमाल ये है कि परिवारवाद की राजनीति पर इतनी तीखी बहसों के बाद भी कांग्रेस ने देश के सर्वोच्च पद के लिए प्रत्याशी बनाने का मन बना लिया. ऐसे समय में जबकि कांग्रेस पर खुलेआम इस बात के आरोप लगते हैं कि वो गांधी परिवार के एकाधिकार से बाहर नहीं आ पा रही है.
ऐसे में मीरा कुमार, जिनके पिता भी कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता थे और देश के उपप्रधानमंत्री भी बने, को प्रत्याशी बनाया जाना परिवारवाद की पराकाष्ठा तक जाता है, जहां आप उपप्रधानमंत्री की बेटी को देश की राष्ट्रपति बना देना चाहते हैं.
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