कर्नाटक में कुर्सी की कुश्ती असल में अब शुरू हुई है. एक तरफ बीजेपी बहुमत से कुछ कदम दूर रह गई तो दूसरी तरफ कांग्रेस तमाम दावों के बावजूद सत्ता से बेदखल हो गई. कर्नाटक में अगले पांच सालों के लिए कांग्रेस की विदाई हो चुकी है. लेकिन कांग्रेस ने खुद के वजूद को बरकरार रखने के लिए बड़ा दांव खेल दिया. उसने जेडीएस को सरकार बनाने के लिए समर्थन देकर बीजेपी से चुनाव का हिसाब बराबर करने की कोशिश की है. कांग्रेस के 'खेल बिगाड़ने के खेल' के बाद कर्नाटक में सत्ता की जोड़तोड़ की जोरआजमाइश जारी है.
कांग्रेस भले ही अपने इस दांव पर खुश हो लेकिन असल में उसके पास खुश होने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए. ‘मोदी-मैजिक’ के सामने कांग्रेस के युवा अध्यक्ष राहुल गांधी कोई करिश्मा नहीं कर सके. कांग्रेस के लिए न तो यहां मनोवैज्ञानिक जीत रही और न ही प्रदर्शन में सुधार का कोई दावा.
सत्ताधारी कांग्रेस बिना असंतोष की लहर के चुनाव हार कर अपनी चुनावी रणनीति पर खुद ही सवाल खड़े कर गई. भले ही अब सबका ध्यान कर्नाटक में सरकार बनाने को लेकर होने वाली रस्साकशी पर रहे लेकिन कांग्रेस उस रस्साकशी की आड़ में अपनी हार की वजहों को छुपा नहीं सकती है.
कर्नाटक के चुनावी नतीजों का साल 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के लिए सीधा रिश्ता था. कांग्रेस को सीएम सिद्धारमैया जीत का भरोसा दिला चुके थे. लिंगायत समुदाय को अलग धर्म की मान्यता का प्रस्ताव पास कर कांग्रेस आश्वस्त थी. इसकी बड़ी वजह कांग्रेस की अतीत की राजनीति है. सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेस कई दफे आरक्षण का फायदा उठा चुकी थी. इस बार उसे लिंगायत कार्ड से पूरी उम्मीद थी. लेकिन कांग्रेस ये भूल गई कि सिर्फ लिंगायत कार्ड के दांव से चुनाव नहीं जीता जा सकता है.
बीजेपी ने कांग्रेस के दांव की काट के रूप में बीएस येदुरप्पा को सीएम के रूप में पहले ही प्रोजेक्ट कर दिया था. जिससे लिंगायत समुदाय में बीजेपी के पक्ष में संदेश जा सका. लेकिन कांग्रेस के पास 'सीएम फेस' के तौर पर कोई दलित या लिंगायत समुदाय से नेता नहीं था. बीजेपी ने पूरे चुनाव प्रचार में इस मुद्दे को जमकर भुनाया.
कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को लेकर पीएम मोदी का बयान कांग्रेस पर बड़ा हमला था. कलबुर्गी में रैली को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा था कि ‘पिछले चुनाव में कांग्रेस ने वादा किया था कि वो मल्लिकार्जुन खड़गे जी को मुख्यमंत्री बनाएंगे लेकिन उन्होंने दलितों को गुमराह किया... कांग्रेस इसी तरह राजनीति करती है.’
अब सीएम सिद्धारमैया का मतगणना से पहले दिया गया बयान पार्टी की चुनावी रणनीति पर सवाल उठाने के लिए काफी है. उन्होंने कहा कि कांग्रेस की तरफ से कोई दलित भी कर्नाटक का सीएम बन सकता है. सिद्धारमैया को दलितों की याद बाद में आई लेकिन तब तक कांग्रेस के लिए वापसी में देर हो चुकी थी.
दरअसल सिद्धारमैया कांग्रेस की ऐसी मजबूरी भी बन चुके थे कि उनकी जगह कांग्रेस कोई दूसरा नाम प्रोजेक्ट करने की स्थिति में नहीं थी. कांग्रेस चुनाव में कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी. तभी कांग्रेस ने सिद्धारमैया के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला किया. लेकिन इस बार अपने चुनावी गुणा-गणित में सिद्धारमैया फेल हो गए. कांग्रेस की चुनावी रणनीति अपने ही सत्ताधारी राज्य में सिफर साबित हो गई.
अब कर्नाटक की हार के लिए भले ही सिद्धारमैया को जिम्मेदार ठहराकर कांग्रेस राहुल की 'फेस सेविंग' का काम करे, लेकिन कांग्रेस को इस हार को खुले दिल से स्वीकार कर गहन मंथन की जरूरत है. खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए भी आत्ममंथन की जरूरत है. हार से उनकी लीडरशिप पर भी सवाल उठ सकते हैं. राहुल ने कर्नाटक में पीएम मोदी जितनी ही रैलियां की. लेकिन इसके बावजूद 60 से ज्यादा सीटों का नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा. कांग्रेस के लिए राहत की बात ये है कि उसका वोट शेयर बढ़ा है. लेकिन सीटों का नुकसान नहीं रुक सका.
राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद ये पहला बड़ा चुनाव था. राहुल जोश से लबरेज थे. उनके भाषणों में पीएम मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और बीजेपी नेता येदुरप्पा निशाने पर थे. उनके भाषण सिर्फ और सिर्फ मोदी-केंद्रित रहे. वो पीएम मोदी पर आरोप लगाने में उलझे रहे. शायद कांग्रेस भी यही चाहती थी.
दरअसल कांग्रेस की रणनीति भी यही है कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम राहुल तय कर दिया जाए. तभी राहुल अपने प्रचार में मोदी-शाह से बाहर निकल ही नहीं सके. जिस वजह से शायद वो कर्नाटक की जनता को कांग्रेस शासन के पांच सालों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बता सके और न ही ये भरोसा दिला सके कि सत्ता में दोबारा वापसी करने पर वो कर्नाटक की जनता के लिए क्या नया करेंगे.
यहां तक कि उन्होंने ऐन चुनाव प्रचार के वक्त खुद को साल 2019 में पीएम पद के दावेदार के रूप में पेश कर दिया. उनके इस अतिआत्मविश्वास की फिलहाल कर्नाटक के चुनाव प्रचार में जरूरत नहीं थी. इस बयान से बीजेपी को नया मुद्दा मिल गया.
वहीं जमीनी स्तर पर भी कांग्रेस बूथ मैनेजमेंट में बीजेपी को टक्कर नहीं दे सकी. बीजेपी ने विधानसभा की सीटों को चार अलग अलग हिस्सों में बांट कर प्रभारी, कार्यकर्ताओं और नेताओं की फौज लगा दी. अपने मतदाताओं को पोलिंग बूथ तक ले जाने की रणनीति पर जोरदार काम किया. लेकिन कांग्रेस बूथ प्रबंधन को लेकर मैदान नहीं मार सकी.
कर्नाटक से सबक लेते हुए कांग्रेस को मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए खास रणनीति बनाने की जरूरत है. सिर्फ भाषणों से चुनाव नहीं जीते जा सकते और न ही सिर्फ आरोपों की राजनीति कांग्रेस के काम आएगी. कांग्रेस को घोषणा-पत्र के लॉलीपाप से हटकर अपने विज़न को सामने रखना होगा.
कांग्रेस को राजनीति की पुरानी शैली से बाहर निकलने की जरूरत है. आज कांग्रेस बीजेपी को सरकार बनाने से रोकने के लिए जेडी(एस) को समर्थन दे रही है, लेकिन समर्थन का यही फैसला अगर चुनाव पूर्व किया होता तो शायद कर्नाटक में चुनाव की तस्वीर कुछ अलग होती. कांग्रेस को हार के सिलसिले से जीत का मंत्र निकालना होगा क्योंकि फिल्म शोले के डायलॉग से दलित और किसानों का पेट नहीं भरा जा सकता है.
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