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कर्नाटक का 'नाटक': कांग्रेस खुद को देश की नई राजनीति के हिसाब से ढाल रही है

2019 का लोकसभा चुनाव दिलचस्प होने जा रहा है. कर्नाटक चुनाव में बेशक कांग्रेस हार गई है, लेकिन अब वह गैर-भाजपावाद की दीर्घकालिक राजनीति के लिए तैयार हो रही है

Updated On: May 18, 2018 08:48 AM IST

Dilip C Mandal Dilip C Mandal
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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कर्नाटक का 'नाटक': कांग्रेस खुद को देश की नई राजनीति के हिसाब से ढाल रही है

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बहुमत बेशक किसी पार्टी को नहीं मिला और इस मायने में किसी की जीत नहीं हुई. लेकिन हारने वाली पार्टी कौन है, इसे लेकर कोई शक नहीं है. 2013 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 122 सीटें मिली थीं और प्रदेश में पांच साल तक कांग्रेस की बहुमत की सरकार चली.

2018 में उसकी सीटें घटकर 78 रह गई हैं. दो विधानसभा चुनावों के बीच, उसे 44 सीटों का नुकसान हुआ है. कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की स्पष्ट हार हुई है. हालांकि वह इस बात पर संतोष कर सकती है कि उसे कर्नाटक में सबसे ज्यादा वोट मिले हैं और वोट प्रतिशत के लिहाज से वह बीजेपी से भी आगे है. लेकिन उसका वोट पूरे प्रदेश में फैला हुआ है. बीजेपी कम वोट पाकर भी इस चुनाव में सबसे ज्यादा विधायकों वाली पार्टी बनी.

सरकार बनने के विवादों से परे एक और बात है, जिसपर नजर रखने की जरूरत है. हार के बावजूद, कांग्रेस इस बार कर्नाटक में वह कर रही है, जिसका अगले लोकसभा चुनाव पर गहरा असर हो सकता है. कांग्रेस ने चुनाव नतीजे आने के दिन सूरज डूबने से पहले ही घोषणा कर दी कि वह कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए जनता दल सेकुलर (जेडीएस) को बिना शर्त समर्थन देगी. जनता दल सेकुलर के 37 विधायक हैं.

कांग्रेस ने जेडी-एस के नेता एचडी कुमारास्वामी को मुख्यमंत्री पद के लिए समर्थन देने की घोषणा की और साझा सरकार में शामिल होने की इच्छा भी नहीं जताई. कम विधायक वाली पार्टी को बिना शर्त समर्थन देने का निर्णय करके कांग्रेस ने अपनी राजनीति और रणनीति में आए एक बड़े बदलाव को दर्ज किया है.

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एक समय में राजनीति की धुरी क्रांग्रेस थी

कांग्रेस ने आजादी से पहले और आजादी के बाद के तीस साल तक देश पर लगभग एकछत्र राज किया है. हालांकि 1967 में कई राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं, लेकिन यह चलन स्थायी साबित नहीं हो पाया. केंद्र मे पहली गैरकांग्रेसी सरकार 1977 में बनी लेकिन वह भी टिकाऊ नहीं हो पाई. 1990 तक केंद्र में और ज्यादातर राज्यों में स्थिति यही थी कि कांग्रेस की या तो सरकार थी, या फिर वह मुख्य विपक्षी दल के तौर पर इंतजार करती थी कि फिर उसकी सरकार कब बनेगी. यह अक्सर हो भी जाता था.

New Delhi: Congress President Rahul Gandhi with party leaders Sheila Dikshit and Ahmad Patel at the launch of the party's nationwide "Save the Constitution" campaign at Talkatora Stadium in New Delhi on Monday. PTI Photo by Vijay Verma (PTI4_23_2018_000075B)

उस समय तक देश की राजनीति की धुरी में कांग्रेस थी. विपक्ष का मतलब गैरकांग्रेसवाद होता था. 1990 के बाद राजनीति एक और मोड़ लेती है. उत्तर प्रदेश में जहां से उस समय 85 लोकसभा सीटें आती थीं, वहां देखते ही देखते कांग्रेस तीसरे और फिर चौथे नंबर की पार्टी हो गई. बिहार में भी आगे चलकर ऐसा ही हो गया. तमिलनाडु में यह पहले ही हो चुका था, जहां डीएमके और एआईडीएमके की एक के बाद एक सरकारें बनती हैं. पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस न तो सत्ताधारी दल है, न प्रमुख विपक्षी दल.

राम मंदिर आंदोलन का बीजेपी को मिलता है फायदा

दरअसल इस बीच उत्तर भारत में दो राजनीतिक प्रक्रियाएं साथ साथ चलती हैं, जिसका असर लोकसभा और विधानसभा की संरचनाओं पर पड़ता है. एक तरफ तो, बीजेपी राम मंदिर आंदोलन शुरू करती है और इसकी वजह से देश में सांप्रदायिक विभाजन तेज हो जाता है. बीजेपी की सीटें तेजी से बढ़ने लगती हैं और कई राज्यों में उसकी सरकारें बनती हैं. इससे पहले तक बीजेपी गैरकांग्रेसवाद पर ही सवारी करती थी और जनसंघ के दिनों से ही उसके गैर कांग्रेसी सरकारों में शामिल होने की परंपरा थी. 1977 में केंद्र में जब गैरकांग्रसी सरकार बनती है तो जनसंघ के सदस्य सरकार में शामिल होते हैं और मंत्री बनते हैं.

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उत्तर भारत की राजनीति में दूसरी प्रक्रिया, समाज की नीची और मझौली माने जाने वाली जातियों का उभार है, जिसे राजनीति विज्ञानी क्रिटोफ जैफरले साइलेंट रिवोल्यूशन या मूक क्रांति कहते हैं. आजादी के बाद से राजनीति में द्विज जातियों का जो वर्चस्व था, उसे इस प्रक्रिया से चुनौती मिलती है और लोहियावादी और आंबेडकरवादी धाराओं का उभार होता है. खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में यह प्रक्रिया असरदार तरीके से काम करती है. यह कांग्रेस के हाशिए पर जाने का दौर साबित होता है.

कांग्रेस ने ही शुरू किया था गठबंधन का दौर

इसी दौर में कांग्रेस एक कदम पीछे हटती है और साझा सरकारों में शामिल होती है. कांग्रेस के साझा सरकारों में शामिल होने की एक विशिष्टता यह है कि इन सरकारों को आम तौर पर कांग्रेस का प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री लीड करता है. हालांकि अब इसके अपवाद नजर आने लगे हैं. मिसाल के तौर पर, 1996 लोकसभा चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी और कांग्रेस दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है. लेकिन कांग्रेस ने इस चुनाव के बाद एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की सरकारें चलाईं. कांग्रेस ने इन सरकारों को बाहर से समर्थन दिया. वहीं, बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस जूनियर पार्टनर के तौर पर नीतीश कुमार की सरकार में शामिल होती है.

New Delhi: Prime Minister Narendra Modi being felicitated by BJP leaders (L-R) Shivraj Singh Chouhan, Nitin Gadkari, Amit Shah, Rajnath Singh and Sushma Swaraj after party's performance in Karnataka Assembly elections 2018, in New Delhi, on Tuesday. (PTI Photo) (PTI5_15_2018_000203B)

2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद के विधानसभा चुनावों के बाद 20 राज्यों में बीजेपी या समर्थक दलों की सरकार है. अब गैर-कांग्रेसवाद जैसी किसी राजनीति की गुंजाइश नहीं है. यह भारतीय राजनीति का नया दौर है और अब विपक्ष की राजनीति का प्रभावी तत्व गैर-भाजपावाद है. कांग्रेस को यह समझने में और इस नई सच्चाई के मुताबिक खुद को ढालने में समय लग गया. लंबे समय तक उसे यही लगता रहा कि बीजेपी नहीं तो कांग्रेस और कांग्रेस नहीं तो बीजेपी. इस भ्रम के टूटते ही कांग्रेस ने गठबंधन के एक नए युग में प्रवेश किया है.

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कर्नाटक में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस ने सरकार बनाने की कोई कोशिश नहीं की. उसने अपने से छोटी पार्टी को मुख्यमंत्री पद के लिए नामित करके यह बता दिया है कि वह भारतीय राजनीति की नई सच्चाई के हिसाब से खुद को ढाल रही है.

बीजेपी को आमतौर पर मिलते हैं 35 प्रतिशत वोट

इसका असर देश की राजनीति पर कई तरीके से पड़ेगा. इस बात की संभावना है कि कांग्रेस राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर व्यापक गैर-भाजपाई गठबंधन बनाने की कोशिश करेगी और कई राज्यों में इन गठबंधनों का नेतृत्व गैर कांग्रेसी दलों के हाथ में होगा. कांग्रेस वहां जूनियर पार्टनर होगी. बीजेपी बेशक 20 राज्यों और केंद्र में सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकारें चला रही है, लेकिन आम तौर पर उसका वोट प्रतिशत 35% के आसपास होता है.

अगर कांग्रेस व्यापक इंद्रधनुषी गठबंधन यानी रेनबो कोलिशन बना पाती है, तो राष्ट्रीय राजनीति एक और दिलचस्प दौर में प्रवेश कर जाएगी. इसमें दोनों ओर दो विराट गठबंधन होंगे और जो बेहतर गठबंधन बना पाएगा, उसके विजयी होने के मौके ज्यादा होंगे. बीजेपी के पास देश भर में लगभग चार दर्जन सहयोगी दल हैं. कांग्रेस के सामने बीजेपी से बेहतर गठबंधन बनाने की चुनौती है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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