कांग्रेस सरकार ने 1971 में समय से एक साल पहले लोकसभा चुनाव करा कर विधानसभाओं के चुनाव से लोकसभा चुनाव को अलग कर दिया.
यह गैरजरूरी काम कांग्रेस ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए किया था. अब जब देश एक बार फिर एक साथ चुनाव कराने को तैयार हो रहा है तो कांग्रेस आगा-पीछा कर रही है. एक साथ चुनाव कराने में कांग्रेस अब अपना राजनीतिक नुकसान देख रही है.
1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे. अब इन चुनावों के अलग-अलग होने से इस गरीब देश की सरकार को भारी, अतिरिक्त और अनावश्यक खर्च उठाना पड़ रहा है.
पूरी सरकारी मशीनरी चुनाव कार्य में लग जाती है और विकास के काम रुक जाते हैं. लगभग हर साल देश के किसी न किसी हिस्से में चुनाव होते ही रहते हैं.
यानी जिसने दर्द दिया, वह अब भी दवा देने को तैयार नहीं है.
साझा चुनावों पर कांग्रेस की आनाकानी
इस गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने चुनाव आयोग से आग्रह किया कि वह देश में एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव पर राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श करे.
चुनाव आयोग ने कहा कि आयोग इसके लिए तैयार है. पर इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत नवंबर में कहा था कि एक साथ चुनाव के विचार को आगे बढ़ाने की जरूरत है. इसे कोई थोप तो नहीं सकता, लेकिन भारत के एक विशाल देश होने के कारण चुनाव की जटिलताओं और आर्थिक बोझ के मद्देनजर सभी पक्षों को इस पर चर्चा करनी चाहिए.
उन्होंने मीडिया से भी इस चर्चा को आगे बढ़ाने की अपील की.
संसद की स्थायी समिति ने भी एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में अपनी राय दे दी है. पर कांग्रेस ‘व्यावहारिक समस्याओं’ का बहाना बना कर एक साथ चुनाव के लिए तैयार नहीं दिख रही है. हालांकि उसने कहा कि सैद्धांतिक रूप से यह एक सही सुझाव है.
संभवतः उसे लगता है कि इससे बची खुची राज्य सरकारें भी उसके हाथों से निकल सकती है. गत लोकसभा चुनाव के बाद जितने राज्यों में चुनाव हुए, उनमें से अधिकतर राज्यों में भाजपा की जीत हुई है.
क्यों हुआ था पहला मध्यावधि चुनाव?
46 साल बाद अब इस पीढ़ी के लोगों को यह जानना जरूरी है कि इस देश में लोकसभा का पहला मध्यावधि चुनाव क्यों कराना पड़ा था? सन 1969 में कांग्रेस के महाविभाजन को इसका सबसे बड़ा कारण बताया गया.
इस विभाजन के साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सत्तारूढ़ दल इंदिरा कांग्रेस का संसद में बहुमत समाप्त हो चुका था. पर, वह तो सीपीआई और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों की मदद से चल ही रही थी.
तब इंदिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' का नारा देते हुए आरोप लगाया था कि गरीबी हटाने के इस काम में संगठन कांग्रेस के नेतागण बाधक हैं. कांग्रेस के विभाजन को यह कह कर औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गई थी.
क्या उन्होंने 'गरीबी हटाओ' के अपने नारे को कार्यरूप देने के लिए मध्यावधि चुनाव देश पर थोपा था?
यदि सन 1971 के चुनाव में पूर्ण बहुमत पा लेने के बाद उन्होंने सचमुच ‘गरीबी हटाने’ की दिशा में कोई ठोस काम किया होता तो यह तर्क माना जा सकता था. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ कि इस देश से गरीबी वास्तव में हटती.
बल्कि चुनाव के बाद यह आरोप लगने लगा कि केंद्र सरकार संजय गांधी के मारूति कार कारखाने की स्थापना और विकास के काम में सहयोग कर रही है.
डावांडोल थी तब कांग्रेस की नैय्या
ऐसे कुछ अन्य आरोप भी लगे. फिर क्यों मध्यावधि चुनाव थोपा गया? दरअसल कांग्रेस के विभाजन के बाद केंद्र सरकार के कभी भी गिर जाने के भय से वह चुनाव कराया गया था.
साल 1971 के मध्यावधि चुनाव के ठीक पहले देश में हो रही राजनीतिक घटनाओं पर गौर करें तो पता चलेगा कि तब कई राज्यों के मंत्रिमंडल आए दिन गिर रहे थे.
इंदिरा गांधी को लगा कि कहीं उनकी सरकार भी किसी समय गिर न जाए! वह वामपंथियों के दबाव से मुक्ति भी चाहती थीं. एक बार केंद्र सरकार गिर जाती तो राजनीतिक व प्रशासनिक पहल इंदिरा गांधी के हाथों से निकल जातीं. यह उनके लिए काफी असुविधाजनक होता.
लोकसभा के मध्यावधि चुनाव के साथ एक और गड़बड़ी हो गई. 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे. इससे सरकारों, दलों और उम्मीदवारों को कम खर्चे लगते थे.
1971 के बाद ये चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे. इससे खर्चे काफी बढ़ गए. इस कारण राजनीति में कालाधन की आमद भी बढ़ गई.
इंदिरा गांधी चाहतीं तो लोकसभा चुनाव को एक साल और आगे खींच सकती थीं. सन 1967 के बाद देश में 1972 में आम चुनाव होने ही वाले थे. लेकिन प्रधानमंत्री को जल्दीबाजी थी.
उन्हें लगा था कि गरीबी हटाओ का उनका लुभावना नारा शायद एक साल बाद वोटों की बरसात न कर सके.
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