पिछले एक-डेढ़ दशक में अखबारों ने जिस एक खबर को बार-बार छापा है, वह राहुल गांधी के बारे में है.
'राहुल गांधी संभालेंगे बड़ी जिम्मेदारी' यह हेडिंग हमने अखबारों में सबसे ज्यादा बार पढ़ी है.
जब-जब यह बात उछली है कि राहुल गांधी कांग्रेस की कमान पूरी तरह संभालने वाले हैं, हर बार उनकी पार्टी में ही उनका विरोध भी हुआ है.
देश के किसी न किसी हिस्से में उनकी ही पार्टी के कार्यकर्ता अभियान चला देते हैं कि 'राहुल हटाओ, कांग्रेस बचाओ'.
यह कांग्रेस की ऐतिहासिक दुविधा है कि वह पार्टी को मजबूत बनाए, कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ाए या राहुल गांधी को बचाए.
जिस वक्त राहुल गांधी अपनी किसान यात्रा खत्म करके दिल्ली लौटे, उस समय उनकी पार्टी और कार्यकर्ताओं में उत्साह होना चाहिए था. लेकिन राहुल के एक बयान ने सब पर पानी फेर दिया.
'खून की दलाली' बयान से नुकसान!
सैनिकों की 'खून की दलाली' वाले बयान को लेकर उनकी पार्टी के तमाम कार्यकर्ता ही उनके विरोध में दिखे.
मध्य प्रदेश के बड़वानी में एक वीडियो व्हाट्सएप पर वायरल हुआ, जिसमें सोनिया गांधी से राहुल को हटाने की अपील की गई थी.
इस वीडियो में बड़वानी कांग्रेस के संगठन महासचिव शैलेश चौबे सोनिया गांधी को संबोधित कर रहे हैं.
उनकी मांग है कि राहुल के खून की दलाली वाले बयान को लेकर उन्हें कांग्रेस से हटा दिया जाए.
राहुल को हटाकर कांग्रेस की बचाने की यह मांग नई नहीं है. इलाहाबाद समेत उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में कांग्रेस कार्यकर्ता राहुल गांधी को हटाने की मांग कर चुके हैं.
लोकसभा चुनाव 2014 के नतीजे आने के बाद कांग्रेस खेमे में ही राहुल गांधी का विरोध सामने आया था.
नतीजे आते ही दिल्ली के कांग्रेस कार्यालय के बाहर कार्यकर्ताओं ने राहुल गांधी के खिलाफ नारेबाजी की- 'राहुल हटाओ, प्रियंका लाओ'.
कांग्रेस कार्यकर्ताओं में यह प्रबल धारणा है कि प्रियंका गांधी ही पार्टी को चला सकती हैं. राहुल गांधी में पार्टी को चलाने की काबलियत नहीं है.
लोकसभा चुनाव से पहले इलाहाबाद में भी कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने पोस्टर लगाए थे, जिसमें प्रियंका को आगे लाने की मांग की गई थी.
राहुल को लेकर स्वीकार्यता नहीं
समय-समय पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के राहुल हटाओ अभियान को देखकर लगता है कि पार्टी कार्यकर्ताओं में राहुल को लेकर वह स्वीकार्यता नहीं है जो एक पार्टी नेता को लेकर होनी चाहिए.
इससे न सिर्फ पार्टी के मौजूदा कार्यकर्ता छिटकेंगे, बल्कि नये समर्थक बनाने में भी पार्टी को खासी मुश्किल आने वाली है.
कांग्रेस के सामने चुनौती है कि उसके जो समर्थक उससे दूर हो गए हैं, उन्हें कांग्रेस फिर से अपने साथ जोड़ने में कामयाब हो.
लेकिन यहां उल्टा हो रहा है. राहुल गांधी अपने मौजूदा समर्थकों को ही हतोत्साहित करते दिख रहे हैं.
राहुल गांधी के बारे में यह धारणा बन चुकी हैं कि राजनीति उनका स्वभाव नहीं है, बल्कि उन पर थोप दी गई है.
राहुल गांधी एक तरह से परिवारवाद का बोझ ढो रहे हैं. अग्रणी कांग्रेसी नेताओं में राहुल सबसे जूनियर हैं, लेकिन उनकी प्राथमिक योग्यता यही है कि वे गांधी परिवार से हैं.
निजी तौर पर मुझे लगता है कि राहुल गांधी और कांग्रेस-दोनों एक-दूसरे के लिए मुसीबत हैं.
अन्ना आंदोलन के दौरान कांग्रेस का परिवारवाद खासे निशाने पर रहा. उसके बाद परिवारवाद को लेकर जो नकारात्मक धारणा थी, वह और मजबूत हुई. इत्तेफाक से राहुल गांधी को इस नकारात्मकता की कीमत चुकानी पड़ रही है.
सबसे अहम बात यह है कि राहुल गांधी उस समय अपनी छवि बनाने में कामयाब नहीं हो सके जब उनकी पार्टी केंद्रीय सत्ता में थी, जिसकी कमान उनकी मां के हाथ में थी.
न उन्होंने पार्टी की कमान संभाली, न ही सरकार में कोई मंत्रालय संभाला, न ही सामाजिक स्तर पर उन्होंने बदलाव की कोई पहल की.
उनकी पार्टी का दस साल का शासन अब भी लोगों को याद है. जनता के दिमाग में यह बात अभी ताजा है कि भारतीय इतिहास के सबसे बड़े घोटाले पिछले दस सालों में हुए. बेशक उन घोटालों का कलंक कांग्रेस पार्टी के माथे पर चस्पा है.
आज जब वे किसान यात्रा निकाल रहे हैं, तब लोग यह भी चर्चा करते सुने जा सकते हैं कि जब अपनी सरकार थी तब राहुल गांधी क्या कर रहे थे? यह सवाल एकदम जायज है. तब राहुल गांधी कुछ नहीं कर रहे थे.
बचकानी हुई छवि
राहुल गांधी दलितों, किसानों और गरीबों के घर जाते रहे, लेकिन जाने-अनजाने साथ में ऐसी भी हरकतें उनसे होती रहीं कि उनकी छवि बचकानी होती गई.
उनका अचानक गायब हो जाना, कई बार बचकाने बयान देना, बचकानी हरकतें देखना, संसद की कार्रवाई के दौरान सो जाना जैसी चीजों से उनका मजाक बनाया गया.
मजाक नरेंद्र मोदी का भी कम नहीं बना, लेकिन उन्होंने अपने प्रयासों से खुद को एक मजबूत नेता के रूप में पेश किया. राहुल गांधी ऐसा करने में नाकामयाब रहे.
जिस समय कांग्रेस कार्यकर्ता राहुल हटाओ के नारे लगा रहे थे, उसी समय देश भर में भाजपा कार्यकर्ता मोदी के नाम पर उत्साह से भरे नारे लगा रहे थे.
लौहपुरुष की छवि वाले लालकृष्ण आडवाणी को हटाकर नरेंद्र मोदी का मुख्य किरदार में आ जाने का जो संदेश था, उसने मोदी की बहुत मदद की. राहुल गांधी ऐसा कोई करिश्मा नहीं कर सके.
दुर्भाग्य से राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव की करारी हार से कोई सबक नहीं लिया. वे नई दिल्ली में जिस विपक्ष की अगुवाई कर रहे हैं, उसकी भूमिका न के बराबर है.
राहुल जिस कांग्रेस की अगुआई कर रहे हैं, विपक्ष की भूमिका में वह अरविंद केजरीवाल या कन्हैया कुमार से कमतर विपक्ष साबित हुई है.
यूपीए कार्यकाल में एक बार लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा था कि यह देश का दुर्भाग्य है कि सवा अरब जनसंख्या होने के बावजूद देश की कमान एक विदेशी मूल की महिला संभाल रही है.
क्या यह भी देश का दुर्भाग्य नहीं है कि इतने बड़े लोकतंत्र में विपक्ष जैसी कोई चीज वजूद में नहीं दिखती?
सबसे बड़ी पार्टी के प्रमुख होने के नाते क्या इसकी जवाबदेही राहुल गांधी पर तय नहीं होती?
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