कपिल सिब्बल सरीखे वकीलों के पार्टी में रहते कांग्रेस को किसी और दुश्मन की क्या जरूरत है? वे बेतुकी बात को बेधड़क बोलने और फिर उस बात की धार पर अपना सिर दे मारने के लिए खुद ही काफी हैं.
मिसाल की गौर करें कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर महाभियोग चलाने की अपनी दुस्साहसी मुहिम किस अंदाज में चलाई! मुहिम इतनी कच्ची थी कि उसे देखकर ‘आकाश में फूल खिलाने’ और ‘ पलक के झपकाने भर से जगत जीत लेने’ जैसे मुहावरे याद आ जाएं. अगर नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस के विधायक ना होते तो शायद वो भी अपने मशहूर बोल के सहारे इस मुहिम की हंसी उड़ाते कि, 'अगर मेरी चाची को मूंछें होतीं तो मैं उनको चाचा ना कहता?'
महाभियोग का विचार ही बेढंगा
जाहिर सी बात ये है कि महाभियोग चलाने का पूरा विचार शुरुआत से ही हद दर्जे का बेढंगा था. कपिल सिब्बल कल्पना के हवाई घोड़े हांक रहे थे लेकिन उन्हें लग रहा था कि वो कानूनी की महीन बारीकियों से भरा जाल बुन रहे हैं. सिब्बल की चलाई पूरी मुहिम को न तो चुस्त-चालाक राजनीति की मिसाल कहा जा सकता है और ना ही उसे कानून की जानकारी से उपजा महारत भरा दांव ही करार दिया जा सकता है. मुहिम सीधे-सीधे आत्मघात करने का मामला था.
इस सिलसिले में सबसे पहली बात तो ये याद रखनी होगी कि कांग्रेस के पास इतने सांसद ही ना थे कि वह सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को महाभियोग के जरिए हटा पाती. बेशक कांग्रेस को विपक्षी दलों के एक हिस्से का समर्थन हासिल था लेकिन यह बात कांग्रेस को भी पता थी कि वह मुहिम को अपने मनचाहे अंजाम तक नहीं पहुंचा सकती. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पद से हटाने के प्रस्ताव पर लोकसभा के कम से कम 100 सांसदों या फिर राज्यसभा के 50 सांसदों के दस्तखत की जरूरत होती है. चूंकि कांग्रेस को इस बात का पक्का यकीन नहीं था कि उसे लोकसभा में प्रस्ताव पर 100 सांसदों के दस्तखत मिल जायेंगे सो उसने राज्यसभा के रास्ते प्रस्ताव लाने का विकल्प चुना.
अब एक पल के लिए मान लीजिए कि राज्यसभा के अध्यक्ष ने प्रस्ताव को मंजूरी दे दी होती. साथ में, लम्हे भर को यह भी कल्पना कर लें कि तीन सदस्यों वाली समिति ने प्रस्ताव की जांच-परख भी कर ली होती और इस सूरत में यह प्रस्ताव लोकसभा तथा राज्यसभा में सदस्यों के सामने वोट के लिए रखा जाता. फिर क्या कांग्रेस और विपक्षी दलों के पास इतना संख्या बल है कि प्रस्ताव को पारित होने लायक खास बहुमत मिल पाता? ना, ये मुमकिन ही नहीं था लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस अपने सोच पर कुछ उसी तरह टिकी रही जैसे कोई जिद्दी बच्चा मन में यह ठान ले कि दीवार को सिर की टक्कर से मार-मारकर फोड़ देना है. हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री ने कांग्रेस को नैतिक पाठ पढ़ाने के ख्याल से और मामले से जुड़ी कानूनी जटिलता को जानते हुए पहले ही प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था लेकिन कांग्रेस ने उनकी न सुनी.
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सुप्रीम कोर्ट के चार सबसे वरिष्ठ जजों ने अगर खुलेआम अपना ऐतराज जाहिर किया था और कांग्रेस इसको लेकर कोई बयान जारी करना चाहती थी तो अच्छा यही रहता कि वो राज्यसभा के अध्यक्ष के हाथों प्रस्ताव के नामंजूर हो जाने के बाद कुछ दिनों तक दम साधे बैठी रहती. प्रस्ताव को चर्चा के लिए मंजूर या नामंजूर करना अध्यक्ष के हक के दायरे में है. लेकिन फिर इस बात का क्या कीजिएगा कि अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार लेने के ख्याल ने कपिल सिब्बल को कुछ ऐसे जकड़ा कि वे अड़े रहे और फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे डाली. हश्र वही होना था जो सामने आया है. उन्हें आखिर को मुकाबले के मैदान से अपनी गर्दन झुकाए बाहर होना पड़ा.
सिब्बल ने याचिका वापिस लेकर और फजीहत कराई
इतना हो-हल्ला मचा लेने के बाद कपिल सिब्बल को आखिर अपनी याचिका अदालत से क्यों वापिस लेनी पड़ी? उन्हें मामले पर उसके गुण-दोष को आधार बनाते हुए बहस करनी चाहिए थी जैसा कि पांच सदस्यों वाली संवैधानिक पीठ ने कहा भी था. लेकिन कपिल सिब्बल का बरताव बहुत कुछ उस टीम की तरह रहा जिसने मुकाबले के लिए अपना मनचीता मैदान, रेफरी, दर्शक और अपनी पसंद के नियम मांगे और जब ये मुंहमांगी चीजें ना मिलीं हो तो खेल से इनकार कर दिया. कपिल सिब्बल ने कुछ तकनीकी नुक्ते उठाए और मामले पर बहस करने से मुंह मोड़ लिया.
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सिब्बल एकदम अड़े हुए थे, वे यह जानने पर तुले थे कि जो संवैधानिक पीठ याचिका की सुनवाई कर रही है, उसका गठन किस तरह किया गया है. बेशक कपिल सिब्बल के पास सुनाने के लिए यह दलील है कि मामला सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के मास्टर ऑफ द रोस्टर के रूप में हासिल अधिकारों को चुनौती देने से जुड़ा है और दिलचस्प ये कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ही इस मामले की सुनवाई के लिए पीठ (बेंच) के गठन का फैसला कर रहे हैं. लेकिन मामले में सुनवाई के लिए मन-मुताबिक पीठ का गठन ना हुआ तो गुस्से में तमतमाते हुए बाहर का रास्ता लेने की जगह उन्हें टिककर कम से कम अपना मामला अदालत के सामने पेश करना चाहिए था. आखिरकार मामले में सुनवाई के लिए जिस पीठ का गठन हुआ था उसमें देश की सबसे ऊंची अदालत के अगले पांच वरिष्ठतम जज शामिल थे. लेकिन कपिल सिब्बल ने याचिका वापस लेने का रास्ता चुना और इस तरह उन्होंने देश की सबसे बेहतरीन संस्थाओं में शुमार सुप्रीम कोर्ट के प्रति अनादर का रुख अपनाया.
कपिल सिब्बल और कांग्रेस ने ‘एक कदम आगे और दो कदम पीछे’ का ये जो बरताव किया है उससे आशंका जगती है कि पूरी मुहिम के पीछे कोई नागवार गुप्त मकसद तो नहीं था. बात इतने तक सीमित नहीं लगती कि मुहिम सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता और पवित्रता बचाने की थी, हालांकि कांग्रेस अपनी मुहिम के बारे में यही जताते आई है. दरअसल एकलौता मकसद ये जान पड़ता है कि कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को शर्मिंदा करने पर तुली थी, उन्हें रिटायरमेंट तक बेचारा बनाए रखने की जुगत में थी कांग्रेस. लेकिन विडंबना देखिए कि अपनी इस मुहिम में शर्मिंदगी खुद कांग्रेस को उठानी पड़ी. कांग्रेस के सामने अब जरूरत ये आन पड़ी है कि वह कपिल सिब्बल को किसी कोने में खिसकाकर रखे साथ ही उन्हें अनिवार्य तौर पर सियासत से रिटायर कर दे.
पहले भी कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी कर चुके हैं सिब्बल
ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है जब कपिल सिब्बल ने सियासी और कानूनी मामलों में अपने कच्चेपन का परिचय दिया हो. गुजरात के चुनावों के वक्त उन्होंने यह कहकर सीधे-सीधे बीजेपी के हाथ में कांग्रेस के खिलाफ धारदार हथियार थमा दिया था कि अयोध्या विवाद से जुड़ी अदालती सुनवाई अगले चुनाव तक टाल दी जाए. इसका सीधा मतलब ये निकला कि न्यायपालिका अपना टाइम-टेबल राजनीति के कैलेंडर देखकर तय करे.
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इसके पहले उन्होंने टूजी मामले में जारी चर्चा के बीच एकदम ही बेपर की बात उड़ाई कि उसमें घाटा तो एक पाई का ना हुआ था. और, लगभग इसी वक्त उन्होंने एक काम और किया था जिससे लगा कि यूपीए सरकार एकदम ही नादानी पर उतर आई है. उस वक्त कपिल सिब्बल बाबा रामदेव के आगे घुटने टेकते नजर आए. वे सीधे एयरपोर्ट पहुंचे थे ताकि रामदेव को मना सकें कि वो सरकार के खिलाफ अपनी भूख हड़ताल शुरू ना करें. अब तक का रिकार्ड तो यही कहता है कि कपिल सिब्बल ने अपने पटाखे कहीं और नही बल्कि कांग्रेस के मुंह पर ही फोड़े हैं.
दुस्साहस दिखाने के अपने कारनामे से कांग्रेस को भी सबक लेनी चाहिए. आपातकाल के दौरान कांग्रेस ने जो चालबाजियां कीं उसकी वजह से शायद ही कोई उसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता का तरफदार माने. यहां तक कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर कांग्रेस की चालबाजी और सेंधमारी के इतिहास की जिन्हें याद नहीं उन्हें भी स्पष्ट दिख रहा है कि कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट पर हमला तो बोल दिया लेकिन उसने ना तो इसके लिए कोई रणनीति बनाई ना ही इस रण के लिए उसने जरूरी हथियार जुटाए. चोट कांग्रेस की छवि और ईमानदारी पर पड़ी है और यह चोट उसने खुद ही अपने को पहुंचाई है.
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