बहुत मुमकिन है कि उत्तर भारत के किसी नौजवान से आज आप चिमनभाई पटेल का नाम पूछें और वो न बता पाए. मगर इससे गुजरात के सबसे चर्चित और कुख्यात मुख्यमंत्रियों में से एक की भारतीय राजनीति में जगह कम नहीं हो जाती. भारत की राजनीति में जिस इमरजेंसी का जिक्र बार-बार आता है, उसके बीज चिमनभाई से जुड़ते हैं.
चिमनभाई दो बार मुख्यमंत्री बने और दोनों बार अपनी कुर्सी नहीं बचा पाए. इसके अलावा जिस सरदार सरोवर बांध को नरेंद्र मोदी इस चुनाव में मुद्दा बनाए हुए हैं, उसे पूरा करवाने की पूरी कोशिश चिमनभाई ने खूब की थी. उनकी अचानक हुई मौत से ये प्रोजेक्ट लंबे समय के लिए लटक गया.
चिमनभाई से चिमनचोर
चिमनभाई, पटेल थे. पटेलों का गुजरात की राजनीति में कितना वर्चस्व है, बताने की जरूरत नहीं है. 1973 में चिमनभाई गुजरात के मुख्यमंत्री थे. चिमनभाई के तेवर इतने तल्ख थे कि इंदिरा गांधी के सामने मुख्यमंत्री बनने से पहले ही ऊंची आवाज में बात कर चुके थे. उस दौर में इंदिरा गांधी के साथ इस तरह की बात कोई नहीं करता था. इंदिरा राजनीतिज्ञ थीं, उन्होंने इस ‘बेअदबी’ का अपने समय से जवाब दिया. इंदिरा का जवाब कुछ ऐसा था कि चिमनभाई संभल ही नहीं पाए. पहले कुछ और बातें.
इस बार के गुजरात चुनाव में बहुत कुछ ऐसा है जिसके चलते साफ दिख रहा है कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह और बीजेपी पिछली बार से ज्यादा जोर लगा रहे हैं. बीजेपी के इस बदले तेवर का सबसे बड़ा कारण जीएसटी की बढ़ी हुई दरे हैं. चिमन भाई की जब कुर्सी गई तो कारण खाने की बढ़ी हुई दरें थीं.
इंजीनियरिंग कॉलेज की मेस में खाने के दाम 30 प्रतिशत बढ़ा दिए गए. ये वो दौर था जब 71 की लड़ाई के बोझ से उबर रही अर्थव्यवस्था में महंगाई और कालाबाज़ारी चरम पर थी. इस बढ़े हुए दाम को ज्यादातर छात्र बर्दाश्त नहीं कर सके. आंदोलन चला और गुजरात की जनता के लिए चिमनभाई चिमनचोर हो गए. इसके बाद गुजरात भर में प्रदर्शन हुए, हिंसा हुई और 150 से ज्यादा लोग मारे गए. 60 शहरों-कस्बों में कर्फ्यू लगा.
चिमन चोर कहलाए जा रहे चिमन भाई को सत्ता छोड़नी पड़ी. गुजरात भर में चल रहे इस आंदोलन को देखकर ही जेपी यानी जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए हां किया.
चिमनभाई से इंदिरा गांधी ने इस्तीफा तो ले लिया मगर इमरजेंसी की आंच में वो खुद भी सत्ता से बेदखल हो गईं. इसके बाद इंदिरा को वापसी करने में जहां महज तीन साल लगे, चिमनभाई 16 साल बाद वापस आ पाए.
विकास पुरुष की दूसरी पारी
अस्सी के पूरे दशक में चिमनभाई और पटेल राजनीति हाशिए पर रही. 4 मार्च 1990 को चिमनभाई फिर से गुजरात के मुख्यमंत्री बने. इसबार सरकार जनता दल और भारतीय जनता पार्टी की साझा सरकार थी.
याद रखिए ये वही दौर था जब हिंदुस्तान में वीपी सिंह के मंडल और बीजेपी के मंदिर वाले कमंडल की राजनीति चल रही थी. जनता दल और बीजेपी का साथ छूटा तो चिमनभाई की सरकार खतरे में आ गई. चिमनभाई ने कांग्रेस के 34 बागी विधायकों को मिलाकर अपनी सरकार बना ली.
चिमन भाई ने अपने इस टर्म में कई बड़े फैसले लिए. ठीक वही फैसले जिन्हें आज गुजरात चुनाव में नरेंद्र मोदी के खाते में जोड़ा जा रहा है. जिन फैसलों को आज आप 'भाजपाई' समझते हैं वो दरअसल मुख्यतः कांग्रेसी रहे चिमनभाई ने लिया था.
चिमनभाई हिंदुस्तान के पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने गौ हत्या पर बैन लगाया. चिमनभाई ने ही हिंदू और जैन त्योहारों पर मीट की बिक्री रुकवाई. उनके खाते में ही गुजरात के बंदरगाहों, रिफाइनरी और पावर प्लांट में प्राइवेट कंपनियों के साथ साझेदारी शुरू कर गुजरात के विकास की नींव रखने का श्रेय है.
अपने दूसरे कार्यकाल में चिमनभाई ने नर्मदा को गुजरात की लाइफलाइन मानते हुए सरदार सरोवर प्रोजेक्ट को पूरा करवाने पर काम किया. ये बांध उसी समय से विवादों में था और 1994 में अचानक से चिमनभाई की मौत हो गई. इसके बाद सरदार सरोवर बांध के विवाद बढ़ते रहे और जब तक सुलझे चिमनभाई की राजनीति को सामने से देखने वाली पीढ़ी मार्ग दर्शक बन चुकी थी.
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