बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब राजद और कांग्रेस के साथ 'महागठबंधन' का हिस्सा थे, तो प्रधाननमंत्री पद की उनकी आकांक्षाओं के बारे में पूछे जाने वाले सवालों का उनके पास रटा-रटाया जवाब था. वह कहते थे, 'जो प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते हैं, वे पीएम पद की अपनी आकांक्षाओं को हासिल किए बिना मुख्यमंत्री पद भी गंवा देते हैं,' लिहाजा वह जहां (राज्य के मुखिया के तौर पर) हैं, वहीं खुश हैं.
उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष ताकतें नीतीश को अगले ससंदीय चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए संभावित चुनौती के तौर पर देख रही थीं. हालांकि, जुलाई 2017 में ऐसी तमाम उम्मीदों और अटकलों पर अचानक से विराम लग गया, जब बिहार के मुख्यमंत्री और जेडी(यू) प्रमुख ने घर वापसी करते हुए भाजपा के साथ फिर से हाथ मिला लिया. नीतीश इस तरह से नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाले एनडीए का हिस्सा बन गए.
उत्तर और दक्षिण, देश के दोनों हिस्सों में भाजपा के खिलाफ गोलबंदी
दो राजनीतिक घटनाक्रमों को देखते हुए नीतीश कुमार की इस बाबत प्रतिक्रिया प्रासंगिक हो गई है. पहला राजनीतिक घटनाक्रम उत्तर भारत में हो रहा है, जबकि दूसरा सुदूर दक्षिण में। यूपी की गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव में भाजपा को रोकने के लिए राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती अपनी कट्टर प्रतिद्वंद्वी- समाजवादी पार्टी को समर्थन दे रही हैं. इसी तरह, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर) राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए तीसरे मोर्चे के पुराने आइडिया पर फिर से काम करने की तैयारी में हैं.
हालांकि, यह पता नहीं है उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों में भाजपा के शानदार प्रदर्शन के बाद मायावती और के चंद्रशेखर राव की तरफ से इस तरह का आइडिया पेश करना महज संयोग है या घबराहट में जताई गई प्रतिक्रिया (कम से कम मायावती के मामले में). जमीनी स्तर पर बसपा सुप्रीमो मायावती और तेलंगाना के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के मुखिया राव के लिए हालात बिल्कुल अलग-अलग हैं. यूपी की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती फिलहाल अपनी पार्टी और खुद की राजनीति को लेकर अस्तित्व के संकट का सामना कर रही हैं. वह राजनीतिक वजूद बचाने के लिए लड़ाई लड़ रही हैं. दूसरी तरफ, देश के सबसे नए राज्य तेलंगाना के पहले मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव फिलहाल मजबूत स्थिति में हैं. हालांकि, इन दोनों नेताओं का लक्ष्य एक है. भाजपा को स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर जरूरत और प्रासंगिकता के हिसाब से हराना.
बसपा-सपा के लिए अस्तित्व बचाने की चुनौती
मायावती का भी सपना प्रधानमंत्री बनने का था और उन्हें अपनी मनमर्जी और फितूर के जरिए लंबे समय तक दोनों राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा और कांग्रेस को सांसत में (यह इस बात पर निर्भर करता था कि केंद्र में भाजपा या कांग्रेस में से कौन सी पार्टी सत्ता में रहती थी) रखा. आज वह राष्ट्रीय और राज्य दोनों की राजनीति में हाशिए पर मौजूद हैं. उत्तर प्रदेश की 402 सदस्यों वाली विधानसभा में बसपा के पास सिर्फ 19 सीटें हैं. पिछले यानी 2014 के लोकसभा चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई यानी लोकसभा में फिलहाल उसका आंकड़ा शून्य है. राज्यसभा में पार्टी के पास फिलहाल 5 सांसद हैं। हालांकि, धीरे-धीरे प्रत्येक सदस्य के रिटायर होने के साथ ऊपरी सदन में उसका आंकड़ा शून्य हो जाएगा. बसपा के पास फिलहाल खुद से किसी सदस्य को राज्यसभा भेजने की ताकत नहीं है.
मायावती ने उत्तर प्रदेश में होने वाले दो लोकसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को इस आधार पर समर्थन की पेशकश की है कि अगले महीने राज्य में राज्यसभा के लिए होने वाले उपचुनाव में समाजवादी पार्टी उनके उम्मीदवार का समर्थन करेगी.
अखिलेश यादव के पिता और समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और उन्होंने भी प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा पाली. आज लोकसभा में उनकी पार्टी के सिर्फ 5 सांसद हैं और 403 सदस्यों वाली यूपी विधानसभा में महज 47 विधायक हैं. समाजवादी पार्टी की भी हालत खराब है और अपना वजूद बचाने की जद्दोजहद में वह अपनी सबसे कट्टर प्रतिद्वंद्वी मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन पर विचार कर रही है. मायावती व अखिलेश और कांग्रेस के राहुल गांधी भी भाजपा के कारण गंवाए अपने आधार को फिर से हासिल करने के लिए परेशान हैं. इन लोगों को लग रहा है कि वे अलग-अलग पार्टी की क्षमता के हिसाब से भाजपा का मुकाबला करने में सक्षम नहीं हैं.
मायावती और अखिलेश ने शायद अपनी नई दोस्ती के नकारात्मक पक्ष पर विचार नहीं किया है- मसलन अगर वे एकजुट होने के बावजूद इन उपचुनावों में भाजपा से हारते हैं, तो कैसा माहौल होगा.
तीसरे मोर्चे का घिसा-पिटा आइडिया
टायर्ड (थक चुकीं) मायावती और रिटायर्ड मुलायम के उलट चंद्रशेखर राव की प्रधानमंत्री बनने की आकांक्षा (कम से कम तीसरे मोर्चे से प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनने की) नई है. राव का गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस विकल्प वाला तीसरे मोर्चे का आइडिया पूरी तरह से घिसा-पिटा है, लेकिन चेहरे के तौर पर वह बेशक नए हैं.
2014 के लोकसभा चुनावों से पहले तीसरे मोर्चे के गठन की संभावनाओं को लेकर कुछ क्षेत्रीय ताकतों और वाम मोर्चे के नेताओं की कई गुप्त और सार्वजनिक बैठकें हुईं, लेकिन यह मामला उन नेताओं के दिमाग में तस्वीर बना सका और वहां से यह बाहर ही नहीं निकल पाया.
तीसरे मोर्चे के आइडिया का एक स्थायी हिस्सेदार वाम मोर्चा फिलहाल ठंडा पड़ा हुआ है. किसी को अंदाजा नहीं है कि सीपीएम का नेता कौन है. आधिकारिक तौर पर भले ही सीताराम येचुरी पार्टी के मुखिया हों, लेकिन यह बात साफ है कि पार्टी पर उनका नियंत्रण नहीं है. येचुरी को फिर से राज्यसभा भेजने और आगामी चुनावों में कांग्रेस के साथ तालमेल के येचुरी और उनके समर्थकों के आइडिया को सीपीएम पूरी तरह से खारिज कर चुकी है.
राव का सपनाः दिल बहलाने को ये खयाल अच्छा है
के चंद्रेशखर राव के पास कम से कम फिलहाल तीसरे मोर्चे के अपने आइडिया और गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन में अहम भूमिका निभाने को लेकर खुश रहने का पूरा अधिकार है. इस आइडिया का तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी और झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया हेमंत सोरेन से फौरी तौर पर समर्थन मिला है.
के चंद्रशेखर राव अपने बेहतर शासन के लिए नहीं जाने जाते हैं. दरअसल, वह राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादातर गलत वजहों से सुर्खियों में रहे हैं. उन्होंने अपने राज्य के बाहर कभी भी चुनाव प्रचार नहीं किया है। हालांकि, मुमकिन है कि आने वाले वक्त में राव देश को अपनी भाषण कला और संगठन से जुड़े नेतृत्व की काबिलियत के बारे में बताने पर विचार करें.
उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि ममता बनर्जी ने भी (कम से कम उनके समर्थकों का एक हिस्सा) भी खुद को भविष्य में प्रधानमंत्री के तौर पर देखा था. नोटबंदी के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ दिल्ली में और चुनावों के दौरान अन्य जगहों पर प्रचार किया था. मोदी के खिलाफ उनके अभियान का क्या नतीजा निकला, उसके बारे में सब जानते हैं.
बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी आराम से बैठकर इस बात के लिए जरूर अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि उनकी शख्सियत इतनी मजबूत हो चुकी है कि उनके प्रतिद्वंद्वियों को राजनीतिक मैदान में अपना वजूद बनाए रखने के लिए अपनी अंदरूनी लड़ाई को भुलाकर हाथ मिलाने पर मजबूर होना पड़ रहा है.
के चंद्रशेखर राव इस खेल में नए हैं. उन्होंने यह बात सार्वजनिक कर दी है कि उनकी तमन्ना राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी को चुनौती देने की है. हालांकि, प्रधानमंत्री पद की आकांक्षा पालने वाले बाकी लोगों का हश्र देखते हुए वह आने वाले समय में बेशक सबक सीखेंगे.
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