सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने को लेकर मचा बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा है. विपक्षी पार्टियां सरकार के इस फैसले पर उसे घेर रही है तो वहीं सत्ता पक्ष का कहना है कि यह कार्रवाई केंद्रीय सतर्कता विभाग (सीवीसी) की सिफारिशों के बाद किया गया है. ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि क्या सीबीआई डायरेक्टर पर बिना किसी एफआईआर दर्ज किए छुट्टी पर भेजा जा सकता है? दूसरी तरफ केंद्र सरकार ने जिस आईपीएस अधिकारी नागेश्वर राव को सीबीआई का अंतरिम डायरेक्टर नियुक्त किया है, उस अधिकारी पर सुप्रीम कोर्ट कितना विश्वास करेगी? यह कुछ सवाल हैं, जिसका जवाब 26 अक्टूबर को मिलेगा जब इस मामले की कोर्ट में सुनवाई होगी.
सीबीआई के इतिहास में यह पहली बार है जब टॉप के दो आधिकारियों की आपसी लड़ाई के बाद इन दोनों को अचानक ही छुट्टी पर भेज दिया गया हो. सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा और सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना के बीच लंबे समय से रस्साकसी चल रही थी. इससे केंद्र सरकार की काफी किरिकिरी हो रही थी. विपक्षी पार्टियां इसे मुद्दा बना कर पिछले कई दिन से केंद्र सरकार पर निशाना साध रही थीं.
आलोक वर्मा ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में खुद को छुट्टी पर भेजे जाने के खिलाफ याचिका दायर की है. इसमें उन्होंने लिखा कि कामकाज की स्वतंत्रता के लिए सीबीआई डायरेक्टर के दो साल के कार्यकाल को कानूनन मान्यता मिली हुई है. केंद्र का यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के सीबीआई की आजादी को लेकर दिए गए निर्देशों के खिलाफ है.
Law mandates secured 2 year tenure of CBI Director to ensure independence. Decision of transfer of CBI Director rests with high powered Committee. Centre's decision goes against SC directions for an independent CBI: Alok Verma's plea in SC against him being sent on leave.
— ANI (@ANI) October 24, 2018
केंद्र की दलील, CVC की सलाह पर डायरेक्टर को भेजा गया छुट्टी पर
दूसरी तरफ केंद्र सरकार तर्क दे रही है कि सीवीसी की सलाह पर आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजा गया है. कानून के जानकारों को मानना है कि सीवीसी के सिफारिश पर केंद्र सरकार दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान (डीएसपीई) अधिनियम 1946 की धारा 4(1) के तहत सीबीआई डायरेक्टर को छुट्टी पर भेजा सकता है. लेकिन, यह भी एक सच्चाई है कि सीबीआई डायरेक्टर के खिलाफ इस अधिनियम के तहत अभी तक कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है. वहीं, दूसरी सच्चाई यह भी है कि डीएसपीई अधिनियम 1946 की धारा 4(1) को लोकपाल और लाकायुक्त अधिनियम 2013 के बाद बनने के बाद संशोधित किया गया है, जिसमें सीवीसी की सिफारिश को स्वीकार किया गया है.
बता दें कि लोकपाल कानून बनने से पहले सीबीआई निदेशक की नियुक्ति डीएसपीई एक्ट के तहत की जाती थी. इसी एक्ट के तहत सीवीसी, कैबिनेट सचिव और गृह सचिव की नियुक्ति की जाती थी. पीएमओ और एमएचए की आपस में रजामंदी के बाद इन लोगों की नियुक्ति होती रही है. लेकिन, लोकपाल कानून आने के बाद इन पदों पर अब भ्रष्टाचार विरोधी मामलों की जांच करने वाली संस्था और गृह मंत्रालय एक सूची तैयार करती है, जिसमें इन नामों को शॉर्ट लिस्ट किया जाता है. शार्ट लिस्ट नामों को वरिष्ठता और अनुभव के आधार पर आकलन कर प्रशिक्षण विभाग को भेजा जाता है. प्रशिक्षण विभाग इन नामों को आकलन कर लोकपाल सर्च कमिटी के पास भेजती है, जिसके आधार पर प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस और नेता प्रतिपक्ष सीबीआई डायरेक्टर का नाम तय करते हैं. तीनों के जांच करने के बाद ही सीबीआई डायरेक्टर का नाम सरकार के पास भेजा जाता है. इस लिहाज से देखा जाए तो केंद्र सरकार का पक्ष काफी मजबूत लग रहा है.
CBI डायरेक्टर का कार्यकाल दो साल का, इससे पहले हटाया नहीं जा सकता
लेकिन, दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम 1946 की धारा 4(बी) के तहत सीबीआई निदेशक का कार्यकाल दो साल का होता है. इससे पहले सीबीआई डायरेक्टर को हटाया नहीं जा सकता है. इस अधिनियम के तहत केंद्र सरकार निदेशक को सेवा शर्तों के नियम के विपरीत काम करने के बाद भी हटा नहीं सकती है. निदेशक हर हाल में 2 साल का कार्यकाल पूरा करेगा ही. इसी अधिनियम के धारा 4(बी) के तहत केंद्र सरकार तबादला भी नहीं कर सकती है. इस अधिनियम में कहा गया है कि अगर निदेशक का तबादला कर सकते हैं तो उस कमिटी से सहमति लेनी पड़ेगी, जिस कमिटी ने उसके नाम की सिफारिश की थी.
दिलचस्प बात यह है कि डायरेक्टर की नियुक्ति अगर लोकपाल के नियमों के मुताबिक हो रहा है तो सुप्रीम कोर्ट 26 अक्टूबर को किसको राहत देने वाली है? कानून के जानकारों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में बीच का रास्ता निकाल लेगी. ऐसा कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट खुद अपने मॉनिटरिंग में दोनों अधिकारियों पर लगे जांच करवा सकती है. कुछ निश्चित समय सीमा के तहत सुप्रीम कोर्ट सरकार को भी सख्त निर्देश दे सकती है.
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