राजनीति में टाइमिंग का सही होना सबसे जरूरी चीज होती है. जिस तरह से समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने 16वीं लोकसभा में संसद के आखिरी दिन बड़ी चालाकी से एक बयान दिया. मुलायम सिंह यादव ने जिस समय नरेंद्र मोदी की सरकार और उनके दूसरे प्रधानमंत्री काल के लिए संसद में समर्थन जाहिर किया, ठीक उसी समय उनके बेटे अखिलेश यादव विपक्षी महागठबंधन के नेताओं के साथ गलबहियां करने में व्यस्त थे. मुलायम के बयान ने दिल्ली समेत देशभर की मीडिया में अफरा-तफरी मचा दी. मौजूदा वक्त में मुलायम सिंह यादव की तरफ से दिए गए इस एक बयान में इतनी ताकत है कि वो यूपी की राजनीतिक बिसात में फेंके गए हर एक पांसे को उलट-पुलट कर रख दे.
राहुल गांधी को मुलायम सिंह यादव से टाइमिंग के गुर सीखने चाहिए. राजनीति के एक ऐसे खिलाड़ी से जिन्होंने अकेले ही अपने दम पर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के राजनीतिक समीकरण को न सिर्फ हमेशा के लिए बदल कर रख दिया था, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की अहमियत को भी दोबारा स्थापित करने का बड़ा काम किया है. ऐसा करने के लिए उन्होंने राज्य में एक नई पार्टी का गठन कर न सिर्फ उसे शून्य से शिखर पर पहुंचाया बल्कि उसे भारत के इस सबसे बड़े राज्य में एक बड़ी शक्ति बनाकर भी उभारा.
स्कैम का आरोप
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने फ्रांस से हुए राफेल फाइटर जेट प्लेन की खरीद-फरोख्त में कथित तौर पर स्कैम का आरोप लगाते हुए केंद्र सरकार के खिलाफ एक उच्च ऑक्टेन कैंपेन चला दिया है. साथ ही वो पीएम मोदी का विरोध करने का भी कोई मौका चूक नहीं रहे हैं. उन्होंने कथित तौर पर इस घोटाले के लिए पीएम नरेंद्र मोदी को निजी तौर पर दोषी ठहराया है. उन्हें जासूस, मनोभाजित और अपने एक घोर पूंजीवादी दोस्त का दलाल तक कहते हुए उन्हें देश के साथ गद्दारी तक करने का आरोपी बना दिया है. उनका आरोप है कि पीएम मोदी ने देश से जुड़े कुछ संवेदनशील दस्तावेज को लीक कर ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट का उल्लंघन किया है. राहुल गांधी के जरिए लगाए जा रहे ये सभी सच्चे-झूठे आरोप भले ही चुनाव प्रचार के लिए अच्छा मसाला दे दे लेकिन बिना सबूत के लगाए जा रहे ये आरोप बिना कारतूस के बंदूक से ज्यादा कुछ नहीं है. ये हवा में की गई फायरिंग से ज्यादा कुछ नहीं है.
इसके बावजूद मैं ये कहना चाहूंगा कि राहुल की रणनीति पूरी तरह से गलत नहीं थी. भारत में होने वाले रक्षा सौदे हमेशा से अपारदर्शी रहे हैं और इतिहास गवाह है कि उनमें हमेशा भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा है. अगर जेट विमानों की खरीद-फरोख्त के दौरान किसी तरह की आर्थिक या प्रक्रियात्मक तौर पर गड़बड़ी पाई गई है और एनडीए सरकार के दावे, सबूतों से अलग हैं तो विपक्ष के नेता होने के नाते राहुल गांधी को पूरा अधिकार है कि वो इस सच को देश की जनता के सामने लेकर आए. सरकार की कमजोर नस पर वार करने के लिए राहुल को सिर्फ एक चीज की जरूरत थी और वो था अपने आरोपों को तथ्यों पर आधारित रखे. वहीं बुधवार को उनके पास ऐसा करने का सुनहरा मौका भी था जब कैग यानि कॉम्पट्रोल ऑडिटर जनरल की राफेल पर तैयार की गई रिपोर्ट को बजट सत्र के अंतिम दिन संसद के पटल पर रखा गया.
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इस रिपोर्ट का लंबे समय से इंतजार हो रहा था. इसमें संशोधन के बाद भी ठीक-ठीक पहले जितनी ही कीमत का उल्लेख किया गया था. मोदी सरकार को बचत के एंगल से यूपीए सरकार की तुलना में थोड़ा ज्यादा फायदा मिलता हुआ दिखाया गया था. लेकिन, इसके बाद भी उसमें ऐसी कई बातें और मुद्दे हैं जिसके आधार पर विपक्ष सरकार को पुरजोर तरीके से घेर सकती थी. कैग के जरिए राफेल डील की फॉरेंसिक ऑडिट में ये पाया गया कि एनडीए सरकार ने दसॉ एविएशन से उड़ाने भरने के लिए तैयार हालत वाली 36 फाइटर जेट एयरक्राफ्ट लेने के लिए तकरीबन 7.87 बिलियन डॉलर का कॉन्ट्रैक्ट साइन किया था. ये डील साल 2007 में यूपीए सरकार के जरिए की गई डील से तकरीबन तीन फीसदी (2.86%) सस्ती थी.
दावे को करेगा मजबूत!
हालांकि, ये आंकड़ा कहीं न कहीं मोदी सरकार के उस दावे को जरूर मजबूत करता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार ने कीमत के लिहाज से यूपीए सरकार से बेहतर डील की है. लेकिन इसके बावजूद एनडीए सरकार के वो दावे पूरी तरह से ध्वस्त हो जाते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्हें यूपीए सरकार की डील की तुलना में 20 या फिर 9 फीसदी ही सही फायदा हुआ है. केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने इन आंकड़ों के सामने आने के बाद एक बार फिर से एडीए सरकार के दावों का समर्थन किया है और ऐसा करने के पीछे की वजह कहीं न कहीं कांग्रेस पार्टी की उन दावों को झूठा साबित करना है जिसमें कांग्रेस का कहना था कि जेट विमानों की कीमत यूपीए सरकार के दौरान 55 फीसदी कम थी. जबकि, जेटली को पता है कि कैग की रिपोर्ट में ऐसी कई बातों को उठाया गया है जो एनडीए की डील से जुड़ी हुई है और जिसके कारण एनडीए सरकार के पसीने तक निकल सकते हैं.
एनडीए सरकार के जरिए की गई डील में सबसे बड़ी कमी इस डील में किसी तरह की कोई बैंक या स्वतंत्र गारंटर का न होना है. मोदी सरकार किसी गैरंटर की जगह बड़ी ही आसानी से फ्रांसिसी सरकार के जरिए दी गई एक ‘लेटर ऑफ कंफर्ट’ से ही संतुष्ट हो गई. इतना ही नहीं एक एलओसी भी दोनों पक्षों को उपलब्ध कराया गया जो इन विमानों के कल-पूर्जों के असल उत्पादक यानि दसॉ को भी मिला. इस एलओसी की बदौलत दसॉ के पास ऐसे कई कानूनी उपाय या हथियार होते जो उसे लेटर ऑफ एग्रीमेंट के फेल होने के बाद भी मिलता रहता या जिनका इस्तेमाल वो भविष्य में कोई विवाद होने पर अपने हक में कर सकता था.
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कैग रिपोर्ट के मुताबिक, '36 राफेल विमानों के आईजीए यानि इंटर गवर्मेंटल एग्रीमेंट के संदर्भ में साल 2007 में दसॉ एविएशन के जरिए दिए गए ऑफर में एडवांस पेमेंट के एवज में 15 फीसदी बैंक गारंटी देने की बात कही गई थी. जिसमें से 5-5 फीसदी परफॉर्मेंस गारंटी और वॉरंटी के लिए थी. आमतौर पर किसी भी कॉन्ट्रैक्ट को तोड़ने पर या उसमें वादाखिलाफी करने पर बैंक गारंटी का इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन, साल 2015 को दिए गए ऑफर में फ्रांसिसी कंपनी ने किसी भी तरह का आर्थिक या परफॉर्मेंस से जुड़ा बैंक गारंटी उपलब्ध नहीं कराया था.'
बैंक गारंटी
कैग रिपोर्ट में आगे लिखा गया है 'जिस कंपनी के साथ ये सौदा हुआ, उसे बैंक शुल्क में जो छूट मिली, उससे उसे आर्थिक तौर पर फायदा हुआ. उसकी जानकारी रक्षा मंत्रालय को दिया जाना चाहिए था. क्योंकि मंत्रालय ऑडिट का कैल्कुलेशन ही बैंक गारंटी के आधार पर करने को तैयार हुआ था, लेकिन उसने बाद में माना कि ये बचत मंत्रालय के हिस्से में ही जाता है, क्योंकि डील के दौरान बैंक गारंटी शुल्क नहीं दिया गया था. लेकिन, ऑडिट विभाग का कहना था कि अगर इस डील की तुलना साल 2007 में दिए गए ऑफर से किया जाए तो पाएंगे कि ये बचत बिजनेस करने वाली कंपनी दसॉ एविएशन के हिस्से ही जाती है.'
देखा जाए तो डील के खिलाफ जो विरोध दर्ज किया जा रहा है, वो पूरी तरह से तार्किक और वैध है. साथ ही सरकार पर ये दबाव जायज है कि वो ये बताए कि उसने दसॉ एविएशन से बैंक गारंटी की मांग क्यों नहीं की. कैग की रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि डील के दौरान फ्रांसिसी कंपनी किसी तीसरी पार्टी के जरिए दी जाने वाली निलंब लेखा या अकाउंट के लिए भी तैयार नहीं हुआ था. जो ये बताता है 'अगर किसी वजह से दोनों पार्टियों के बीच ये कॉन्ट्रैक्ट टूट जाता है या उसमें किसी तरह की बाधा आती है. तब वैसे में भारत की पार्टी यानि रक्षा मंत्रालय को इसे पहले सीधे मध्यसतता के जरिए ही फ्रांसिसी व्यापारियों से सुलझाना पड़ेगा. अगर मध्यस्तता के जरिए फैसला भारतीय पार्टी (रक्षा मंत्रालय) के पक्ष में होता है. जिसे फ्रेंच कंपनी पूरा करने (पेंमेंट) में नाकाम होती है, तब भारतीय पक्ष उसे पाने के लिए कानूनी तरीकों का इस्तेमाल कर सकता है. जिसके बाद ही फ्रांसिसी सरकार अपने व्यापारियों की तरफ से भारत सरकार को पेमेंट करेगा.
इसमें एनडीए सरकार की प्रतिक्रिया को भी शामिल किया गया है, ‘जिसमें मंत्रालय ने लिखा है कि ये आईजीए (एग्रीमेंट) दो रणनीतिक सहयोगियों के बीच साइन किया गया है, और ये दोनों पार्टी स्वतंत्र राष्ट्र हैं. जिनके बीच लंबे समय से रणनीतिक रिश्ते चल रहे हैं.’ यहां ये बात भी सामने आती है कि एनडीए ने जो 36 जेट विमानों की डील की है, वो यूपीए सरकार के जरिए की गई डील से ज्यादा तेजी से पूरा नहीं हो पाएगा. इस समझौते से जो असल फायदा होगा वो सिर्फ विमानों की डिलीवरी, तय समय से एक महीने पहले होगा. तकनीकी तौर पर ये भले ही सरकार के उस दावे को सही साबित करे कि एनडीए की डील, खरीदे गए जेट विमानों की डिलीवरी जल्द कराएगी. लेकिन सिर्फ एक महीने यानि 30 दिन पहले की जल्द डिलीवरी किसी भी तरह से शान बघारने की बात नहीं है. यहां ये बताना भी जरूरी है कि रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि 18 राफेल जेट विमानों की जो पहली खेप भारत पहुंचेगा वो यूपीए की डील में तय समय-सीमा से लगभग पांच महीने पहले डिलीवर हो जाएगा.
‘चौकीदार ऑडिटर जनरल’
कुल मिलाकर देखा जाए तो राहुल गांधी के पास सरकार के खिलाफ कहने के लिए इस चुनावी मौसम में काफी कुछ मसाला मौजूद है, जिसका इस्तेमाल वो राफेल विमान मुद्दे पर मोदी सरकार को बड़ी चुनौती दे सकते हैं. लेकिन, उन्होंने कैग पर हमला करके उसे ‘चौकीदार ऑडिटर जनरल’ का खिताब देकर उसकी रिपोर्ट को बकवास कहा. हालांकि राहुल गांधी की इस हरकत को राजनीतिक अपरिक्वता से ज्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता है. वो भी ऐसे समय पर जिसे अंग्रेजी में पुअर टाइमिंग यानि गलत समय पर की गई हरकत कहा जाता है. ऐसा करके कांग्रेस अध्यक्ष ने कहीं न कहीं बीजेपी को मौका दे दिया है कि वो कैग की रिपोर्ट की विवेचना कर सके. कैग के जरिए जारी की गई रिपोर्ट -अलग स्तर पर ही सही लेकिन राफेल डील की आलोचना करती है- जो कहीं न कहीं बीजेपी के पक्ष में जाएगी और उसके दावों को मजबूत करेगी कि कैग की जांच रिपोर्ट पूरी तरह से स्वतंत्र है.
राहुल गांधी ने जिस तरह से कैग की रिपोर्ट के बारे में ये कहा है ‘उसका मूल्य इस कागज के बराबर भी नहीं है, जिस पर ये रिपोर्ट लिखी गया है.' ऐसा कहकर उन्होंने कहीं न कहीं अपनी उसी रणनीति को मजबूत किया है, जो वो शुरू से कहते आ रहे हैं. लेकिन, जब कोई व्यक्ति लगातार और बार-बार देश की हर संवैधानिक संस्था, जैसे सुप्रीम कोर्ट या कैग की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है, तब वो कहीं न कहीं खुद को ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है.
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