जब 13 अप्रैल को चुनाव के नतीजे आए तो बीजेपी के बदले सुर कुछ ऐसे थे: नंजुनगुड में लोग श्रीनिवास प्रसाद से नाराज थे. वहीं गुंडलूपेट में गीता महादेव को सहानुभूति के वोट मिले.
कर्नाटक में दोनों ही सीटों पर कांग्रेस ने जोरदार जीत दर्ज की. नंजुनगुड सीट में पार्टी ने 21 हजार वोटों से जीत हासिल की. वहीं गुंडलूपेट में कांग्रेस को दस हजार वोटों से जीत मिली.
पिछले करीब तीन हफ्ते से कर्नाटक के बीजेपी प्रमुख बी.एस येदियुरप्पा इन दोनों सीटों पर डेरा जमाए हुए थे. उन्होंने इसे निजी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था. येदियुरप्पा लगातार ये कह रहे थे कि 2018 के विधानसभा चुनाव उनके सियासी करियर के आखिरी चुनाव होंगे. इसीलिए इन सीटों के उपचुनाव, 2018 में बीजेपी की जीत की बुनियाद रखेंगे.
दक्षिण कर्नाटक में बीजेपी बहुत मजबूत हालत में नहीं थी
येदियुरप्पा ने दलित नेता श्रीनिवास प्रसाद पर भी बड़ा दांव खेला था. श्रीनिवास, सिद्धारमैया सरकार में राजस्व मंत्री थे. वो कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में उस वक्त शामिल हुए थे, जब उन्हें मंत्रिमंडल से हटा दिया गया था. वैसे बीजेपी दक्षिण कर्नाटक में कभी भी बहुत मजबूत हालत में नहीं थी.
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येदियुरप्पा को लग रहा था कि नंजुनगुड में जीत से पार्टी के हौसले बुलंद होंगे. ये सीट मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की वरुणा सीट से कुछ ही दूरी पर है. नंजुनगुड सीट जीतकर बीजेपी, कांग्रेस को तगड़ा झटका देना चाहती थी.
येदियुरप्पा इस बात का अंदाजा नहीं लगा पाए कि श्रीनिवास ने अपने साथ हुए सुलूक को प्रतिष्ठा का सवाल बनाया. उन्होंने इस्तीफा देकर उपचुनाव की राह तैयार की. मगर ये बात जनता को पसंद नहीं आई. पूरे चुनाव प्रचार में श्रीनिवास सिर्फ अपनी बात करते रहे.
अपने अपमान का हवाला देते रहे. वो सिद्धारमैया पर हमला करते रहे. जनता को ये समझाते रहे कि उन्होंने तो मुख्यमंत्री के लिए बहुत कुछ किया, मगर सिद्धारमैया ने एहसान फरामोशी की.
वहीं सिद्धारमैया को लगा कि उनके पास श्रीनिवास के बराबर के उम्मीदवार नहीं हैं. इसीलिए उन्होंने जेडी एस के नेता कलाले केशवमूर्ति को अपनी पार्टी में शामिल करके उन्हें उम्मीदवार बनाया. यानी यहां मुकाबला दो पार्टी छोड़ने वालों के बीच था.
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देवेगौड़ा की पार्टी ने दोनों ही सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारे थे. ऐसा लगता है कि लोगों ने श्रीनिवास की सियासी ताकत को बहुत ज्यादा करके आंका. 2013 के चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर श्रीनिवास को 50 हजार 784 वोट मिले थे.
बीजेपी को लग रहा था कि उसे मिले सात हजार वोट और येदियुरप्पा की पुरानी पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष के 28 हजार वोट जुड़ेंगे तो श्रीनिवास प्रसाद आसानी से चुनाव जीत जाएंगे. चार साल पहले श्रीनिवास को करीब नौ हजार वोटों से जीत मिली थी.
बीजेपी की गलती ये थी कि उसने सोचा कि श्रीनिवास को सारे वोट उनके अपने नाम पर मिले थे. बीजेपी ने ये नहीं समझा कि इसमें एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस पार्टी के नाम पर भी मिला था. जानकार मानते हैं कि सिद्धारमैया की वजह से परंपरागत पिछड़े वर्ग के वोट प्रसाद को मिले थे. इसी वजह से वो पिछली बार चुनाव जीते थे.
1993 में दलितों और लिंगायतों के बीच झगड़ा हो गया था
नंजुनगुड सीट पर दलित वोटर्स की तादाद भी काफी है. यहां लिंगायत वोट भी अच्छी खासी संख्या में हैं. बीजेपी को लगा था कि दोनों वोट मिलने से उसकी जीत तय है. लेकिन नंजुनगुड सीट पर दलित और लिंगायत एक साथ किसी एक पार्टी को वोट नहीं करते.
असल में 1993 में यहां एक मंदिर के पुनरुद्धार को लेकर दलितों और लिंगायतों के बीच झगड़ा हो गया था. इसी के बाद से दोनों समुदायों में तनातनी रहती है.
स्थानीय राजनैतिक जानकार सुगता राजू कहते हैं कि, 'कागज पर तो दलित और लिंगायत वोट मजबूत दिखते हैं. इसीलिए प्रसाद को लगा था कि वो जीतेंगे. पर हकीकत में लिंगायतों ने प्रसाद को वोट नहीं दिया. जबकि बीजेपी लिंगायतों की पार्टी मानी जाती है'.
जातिगत समीकरण देखते हुए सिद्धारमैया को गुंडलूपेट सीट पर चुनौती ज्यादा बड़ी दिख रही थी. यहां लिंगायत वोट बहुमत में हैं. पहले के चुनाव में महादेव प्रसाद अपनी निजी लोकप्रियता की वजह से चुनाव जीते थे. उनकी बेवा गीता महादेव की जीत में भी इस बात का बड़ा रोल रहा.
गीता की जीत में एक और बड़ी वजह रही मैसूर के सांसद प्रताप सिम्हा का उन पर लगातार हमले करना. चामराजनगर में एक चुनावी सभा में प्रताप सिम्हा ने कहा कि, 'जब गीता के पति जिंदा थे तो सारी ताकत गीता के हाथ में ही थी, क्योंकि महादेव मंत्री थे. महादेव का अंतिम संस्कार करने के तुरंत बाद से ही गीता सियासी समीकरण बैठाने लगी थीं.'
प्रताप सिम्हा ने मतदाताओं से अपील की कि गीता को वोट देने का मतलब है इस क्षेत्र के विकास पर पानी फेरना. विरोध के बाद प्रताप सिम्हा को माफी मांगनी पड़ी थी. लेकिन तब तक तो जो नुकसान होना था, वो हो चुका था.
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गुंडलूपेट में हार से येदियुरप्पा को निजी तौर पर करारा झटका लगा है. वो अपनी पार्टी को लिंगायत वोट नहीं दिला सके. ये इस बात का भी संकेत है कि सिर्फ लिंगायत वोटों के बूते, बीजेपी 2018 का चुनाव जीतने के सपने नहीं देख सकती. वैसे बीजेपी, कर्नाटक में एक गैर लिंगायत नेता की जोर-शोर से तलाश कर रही है.
अमित शाह ने कहा कुछ और था, हो कुछ और गया
श्रीनिवास प्रसाद को पार्टी में लाने का फैसला यही दिखाता है. वोक्कालिगा समुदाय के एस एम कृष्णा को पार्टी में शामिल करने का फैसला भी यही संकेत देता है.
मगर एस एम कृष्णा अपने असर वाले इलाके यानी नंजुनगुड सीट पर भी बीजेपी को जीत नहीं दिला सके. अब पार्टी को सोचना होगा कि कृष्णा के आने से उसे कितना फायदा हुआ.
कांग्रेस के लिए बेहतर यही होगा कि वो उपचुनाव में जीत से बहुत उत्साहित न हो. हां, इन जीतों से सिद्धारमैया को राहत जरूर मिली है. इस जीत के बाद वो अपनी पसंद का प्रदेश अध्यक्ष बनवा सकेंगे.
ऊर्जा मंत्री डी के शिवकुमार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद की रेस में सबसे आगे बताए जा रहे हैं. हालांकि ऐसा माना जाता है कि बीजेपी को टक्कर देने के लिए सिद्धारमैया लिंगायत नेता एस आर पाटिल को अध्यक्ष बनाना चाहते हैं.
बीजेपी के लिए चुनौती बड़ी है. एस एम कृष्णा को पार्टी में शामिल करने का फैसला साफ तौर से कारगर नहीं रहा. कृष्णा के साथ पंचायत स्तर का नेता भी बीजेपी में नहीं आया. अब बीजेपी को वोक्कालिगा समुदाय को लेकर अपनी रणनीति पर फिर से सोचना होगा.
उप चुनाव में हार के बाद येदियुरप्पा के नेतृत्व पर भी सवाल उठेंगे. लेकिन बीजेपी, येदियुरप्पा को हल्के में लेने की गलती भी नहीं कर सकती. 2013 में उन्होंने अलग पार्टी बनाकर बीजेपी की हार की पटकथा लिख दी थी. बिना येदियुरप्पा के बीजेपी की हालत और खराब होने का डर है.
उप चुनावों से अमित शाह के उस दावे पर भी सवाल उठ रहे हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि बीजेपी इस बार कर्नाटक की 224 में से 150 सीटें जीतेगी. अगर बीजेपी को इतनी सीटें जीतनी हैं तो उन्हें और मेहनत करनी होगी. नई सियासी रणनीति पर काम करना होगा.
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