बात उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के वक्त की है. बीजेपी के एक पोस्टर ने लोगों का ध्यान खींचा और पोस्टर को लेकर समाचारों की सुर्खियां बनीं. पोस्टर में योगी आदित्यनाथ को बाघ की सवारी करते दिखाया गया था और बाकी दल के नेताओं को गधे पर सवार. बाघों से योगी आदित्यनाथ का प्रेम तो खैर जग-जाहिर है लेकिन अभी के वाकये को देखकर लगता है बीजेपी के पोस्टर में दर्ज कहानी सचमुच खुद को एक खास मुहावरे के दायरे में सच साबित कर रही है. मुहावरे की लीक पर कहें तो जान पड़ता है यूपी के मुख्यमंत्री ने बाघ की सवारी गांठ ली है लेकिन बाघ की पीठ से उतरा कैसे जाय- इसकी तरकीब उन्हें पता नहीं. कानून के राज के प्रति घनघोर उपेक्षा का भाव ही वो बाघ है और अपने को लोक-लुभावन दबंगई की सूरत में पेश कर रहा है.
योगी आदित्यनाथ को भगवाधारी राजनेता माना जाता है, एक ऐसा राजनेता जिसने बीते वक्त में देश के कानून को अक्सर ही अंगूठा दिखाया है. योगी अब सूबे के मुख्यमंत्री हैं लेकिन गुजरे वक्त में बनी उनकी छवि अब भी अपनी सारी चमक के साथ कायम है. योगी के शासन में कानून का राज एकदम ही चरमरा गया है और इसी की दलील है जो सोमवार को बुलंदशहर में एक पगलाई हुई भीड़ ने अपने गुस्से में पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की जान ले ली.
गौर करें कि नफरत के जज्बे में सुलगती भीड़ ने किस तरह उस बहादुर पुलिस इंस्पेक्टर को मारा. भीड़ की इस करतूत में आपको एक बानगी नजर आएगी जो प्रशासन के अपराधीकरण और हद दर्जे तक नीचे गिर चुकी सियासी संस्कृति का संकेत करती है. इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह को किस लिए मारा गया ? क्या इसलिए कि वे अपनी ड्यूटी निभा रहे थे ? खुद को गोरक्षक कहने वाली खून की प्यासी वो भीड़ सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील बुलंदशहर में गड़बड़ी पैदा करना चाहती थी और इस भीड़ के आगे इंस्पेक्टर सिंह तनकर खड़े हुए.
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वे भीड़ को समझाने-बुझाने और शांत करने की कोशिश कर रहे थे कि एकबारगी चारो तरफ से अपराधियों से खुद को घिरा हुआ पाया. उनके सहकर्मी दूर छिटक गए, इंस्पेक्टर सिंह पगलाई भीड़ से निपटने के लिए एकदम अकेले रह गए.
ऐसा पहली बार नहीं हुआ
क्या यह कोई नई कहानी है ? ना, उत्तरप्रदेश के लिए बिल्कुल ही नहीं. हाल के सालों में अक्सर ऐसा होता दिखा कि कोई पुलिस अधिकारी पूरी ईमानदारी और बहादुरी के साथ अपनी ड्यूटी निभा रहा है और अचानक ही सकते की हालत में घिर गया, सहकर्मी ऐन वक्त पर साथ छोड़ गए और उसने अपमान का कड़वा घूंट पीते हुए अपनी आखिरी सांस लीं.
साल 2016 का वाकया है- अपराधियों के गिरोह में बदल चुके एक धार्मिक संप्रदाय के सदस्यों ने पुलिस के एक एडिशनल सुप्रिटेंडेंट और एक थानेदार(SHO ) की हत्या कर दी. इस धार्मिक संप्रदाय को समाजवादी पार्टी का संरक्षण हासिल था और समाजवादी पार्टी उस वक्त सत्ता में थी. पुलिस-वर्दीधारी ये दोनों अधिकारी कानून-व्यवस्था की बहाली के काम में लगे थे कि उन्हें धार्मिक संप्रदाय के सदस्यों ने एक झटके में अपने घेरे में खींच लिया और बेरहमी से मार डाला. धार्मिक संप्रदाय के नेताओं का दावा था कि उनके सर पर समाजवादी पार्टी के बड़े नेताओं का हाथ है, सो दोनों अधिकारियों के साथ गs पुलिसकर्मी घटनास्थल से मौका देखकर खिसक लिए थे.
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ऐसे ही, प्रतापगढ़ जिले के कुंडा इलाके(सूबे की विधानसभा में इस इलाके की नुमाइंदगी बाहुबली रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया करते हैं) में डीएसपी(आरक्षी उपाधीक्षक) जियाउल हक को कुछ लोगों ने एक गांव में अपने घेरे में खींचकर मार डाला था. कहा जाता है कि ये लोग इलाके के बाहुबली राजनेता के नजदीकी थे. डीएसपी के साथ गए पुलिसकर्मियों ने अपनी जान बचाने में ही खैर समझी और डीएसपी को हत्यारों के रहमो-करम पर छोड़कर मौके से दूर खिसक गए. इसके बाद जांच चली और कुछ आरोपियों की गिरफ्तारी भी हुई लेकिन पूरा मामला डर के साये में रहा. यह शर्मनाक वाकया भी समाजवादी पार्टी के सत्ता में रहते पेश आया था और अखिलेश यादव सूबे के मुख्यमंत्री थे.
अखिलेश यादव ही नहीं बल्कि उनसे पहले सूबे में सत्ता की बागडोर संभाल चुके मायावती और मुलायम सिंह यादव भी विधि-व्यवस्था की हेठी करके ही चलते थे. इनके राज में भी कानून को अपने ठेंगे पर लेकर चलने वालों को बढ़ावा मिला, बाहुबलियों की सरपरस्ती हुई. एक अरसे तक सूबे को एक लाइलाज मर्ज की मिसाल माना जाता रहा.
लोगों की योगी से उम्मीदें धरी की धरी रह गईं
ठीक इसी कारण लोगों ने योगी से बहुत उम्मीदें बांध रखी थीं. राज्य के प्रशासन को जंगलराज के मुहाने से खींचकर वापस पटरी पर लाने के एतबार से शायद योगी से बेहतर स्थिति में कोई और नहीं था.
साल 2017 के विधानसभा चुनावों के बाद योगी जब सत्ता में आए तो उनके पास एक अप्रत्याशित जनादेश था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उन्हें भरपूर समर्थन हासिल था. योगी की स्थिति मायावती या फिर अखिलेश से एकदम उलट थी क्योंकि इन नेताओं के नाम घोटालों और भ्रष्टाचार में आ चुके थे जबकि योगी का नाम इस मामले में एकदम ही बेदाग था. बहरहाल, योगी की राह की एक बड़ी बाधा थी उनकी छवि. यह एक गुस्सैल सांप्रदायिक नेता की छवि थी जो अपने समर्थकों के सहारे कानून को हाथ में लेने में जरा भी संकोच नहीं करता था और जिसने हिंदू युवा वाहिनी नाम से लड़ाकों की एक निजी सेना तैयार कर रखी थी. गोरखपुर, मऊ और आजमगढ़ में हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के नाम पर गड़बड़झाला फैलाने के एतबार से हिंदू युवा वाहिनी एक तरह से बदनाम हो चली थी.
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लगता यही है कि योगी ने मुख्यमंत्री की गद्दी संभालने के बाद विधि-हीनता के जानवर को खूंटे से बांधने की जगह उसे पुचकारना और खुली छूट देना जारी रखा. पद की शपथ लेने के तुरंत बाद पूरे राज्य में हिंदू युवा वाहिनी की सदस्यता में तेजी से इजाफा हुआ. ये भांपकर कि ‘हिंदू वाहिनी सेना’ गंभीर परेशानी का सबब बन सकती है, योगी आदित्यनाथ ने इसे भंग कर दिया. इसके बाद हिंदू वाहिनी सेना के समर्थक गो-रक्षा पर उतारु लठैत बन गए और सूबे के कई इलाकों में अपना समानांतर प्रशासन चलाना शुरू किया. सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील इलाकों में इन गोरक्षक लठैतों की खास सक्रियता रही.
सूबे में राजकाज की एक संस्कृति बनी चली आ रही थी कि कानून का राज सियासी मकसद को साधने भर के लिए होता है और योगी आदित्यनाथ ने राजकाज की इस संस्कृति को जारी रखा. उनसे सबसे बड़ी गलती यहीं हुई. मिसाल के लिए याद कीजिए कि सूबे की पुलिस ने किस तरह ‘अपराधियों’ की ‘हत्या’ का अपना बेखौफ अभियान चलाया और योगी आदित्यनाथ ने इसी खुली छूट दी जबकि यह सीधे-सीधे कानून को ताक पर रखकर राजकाज चलाने का मामला था.
लोगों को लगने लगा है कि योगी आदित्यनाथ सूबे के पिछले मुख्यमंत्रियों के ही नक्श-ए-कदम पर हैं, वे पिछले मुख्यमंत्रियों की भ्रष्ट विरासत के संरक्षक के समान बरताव कर रहे हैं. फर्क बस इतना भर आया है कि कानून के राज को ठेंगा दिखाने का चलन पहले उन्नीस था तो आज बीस हो गया है. देश के सबसे बड़े सूबे में विधि-हीनता इस हद तक बढ़ चली है कि आज के मुहावरे में उसे जंगलराज कहा जाए तो अनुचित ना होगा.
योगी अब भी नाथ संप्रदाय के सबसे बड़े मठ गोरखनाथ पीठ के धर्माधीश हैं. जगत की व्यवस्था को जिस कर्मफल के सिद्धांत ने स्वयं के भीतर धारण कर रखा है उसे अध्यात्म की राह पर दीक्षित योगी आदित्यनाथ भली-भांति जानते हैं. उन्हें कर्मफल का वह शाश्वत नियम पता है कि जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे भी!
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