बात उस वक्त की है जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उस दौरान मोदी के करीब रहकर काम करने वाले एक अधिकारी ने उनके कामकाज के तौर-तरीके समझाने के गरज से मुझे एक वाकया सुनाया था. साल 2007 के विधानसभा चुनावों से तुरंत पहले मोदी तनिक परेशानी में थे- पटेल समुदाय के किसान और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की सरपरस्ती में चलने वाला भारतीय किसान संघ मोदी के मुखालिफ हो चले थे.
दरअसल मोदी ने एक सख्त फैसला लिया था. उन्होंने आदेश दिया था कि किसानों के लिए अलग फीडर से बिजली की आपूर्ति की जाए. किसानों को उपभोग (इस्तेमाल) की जा रही बिजली की रकम चुकानी पड़ रही थी. पहले की व्यवस्था में घरेलू उपभोग और खेती-किसानी के इस्तेमाल के लिए बिजली साझा फीडर से आपूर्ति की जाती थी और यह जान पाना मुश्किल था कि कितनी बिजली खेती-किसानी के काम में खप रही है, कितनी घरेलू उपभोग में. खेती-किसानी के मद में भारी सब्सिडी की व्यवस्था होने के कारण घरेलू उपभोग की बिजली को भी कृषि के मद में इस्तेमाल की गई बिजली मानकर दर्ज कर लिया जाता था.
अलग फीडर की व्यवस्था होने के कारण किसानों को मुश्किल हुई, उन्हें अब उपभोक्ता होने के एवज में वसूले जाने वाले शुल्क की अदायगी करनी पड़ रही थी. बकाये की अदायगी ना करने वाले सैकड़ों किसानों की गिरफ्तारी हुई. गिरफ्तार किसानों में ज्यादातर पाटीदार समुदाय के थे. इन्हें मोदी के खिलाफ बगावत के लिए बीजेपी के भीतर के ही एक गुट ने उकसाया था क्योंकि मोदी केशुभाई पटेल की जगह मुख्यमंत्री बने थे. किसानों के बगावती तेवर देख चिंता में पड़े अधिकारी ने मोदी को सलाह दी, 'सर क्या आप इसे चुनाव तक रोक नहीं सकते? चुनाव पर इसका बुरा असर पड़ सकता है.' मोदी ने अधिकारी की बात सुनी और कहा, 'चुनाव की चिंता मत कीजिए, उसे मैं संभाल लूंगा. आप बस वही कीजिए जो जनता के लिए ठीक है.' मोदी ने 2007 का चुनाव बेखटके जीत लिया, हालांकि उनके खिलाफ किसानों को भड़काने की पुरजोर कोशिश हुई थी. गुजरात बिजली के मोर्चे पर कामयाब सुधार करने वाला पहला राज्य बना, आम लोगों को अबाधित बिजली-आपूर्ति सुनिश्चित हुई.
प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मोदी की शासन की शैली वैसी ही है
मुख्यमंत्री रहते मोदी ने गुजरात में जिस तरह शासन चलाया, अगर आप उसपर गौर करें तो लगेगा कि प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनकी शासन की शैली वैसी ही है. वो एकमात्र राजनेता हैं जिन्होंने मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के रुप में लगातार 18 साल बिताए हैं. अंतरिम बजट से यह बात साफ झांक रही है कि भले ही आम चुनाव बस तीन महीने में होने वाले हों और माहौल अनिश्चितता का जान पड़े लेकिन ऐसे माहौल में भी नरेंद्र मोदी आगे के दशक को सोचकर योजना बना सकते हैं.
गौर करें कि वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने 2030 तक के लिए देश की वित्तीय स्थिति के बारे में किस तरह खाका खींचा. जो लोग निकट भविष्य के बारे में जानने को उत्सुक थे, उन्हें पीयूष गोयल ने यह कहकर आश्वस्त किया कि इनकम टैक्स के मामलों की जांच-पड़ताल बिना किसी व्यक्ति से मिले-जुले सिर्फ प्रौद्योगिकी की मदद से 2 साल के भीतर पूरी कर ली जाएगी. उद्योग और कारोबारी जगत के एक बड़े हिस्से को, जो अपने टैक्स पूरी ईमानदारी से चुकाता है- गोयल के शब्द निश्चित ही बहुत मीठे लगेंगे. अगर पीयूष गोयल की बात जमीनी तौर पर साकार होती है तो फिर इससे प्रशासन के सबसे भ्रष्ट हिस्से में जारी भ्रष्टाचार पर कारगर अंकुश लगेगा.
इसी तरह, 2 हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों को सालाना 6,000 रुपए देने के फैसले के बारे में सोच सकते हैं. देश के 90 प्रतिशत किसान इस फैसले के दायरे में हैं. किसानों को रकम यह मानकर नहीं दी जा रही कि इससे उन्हें गुजर-बसर करने में मदद मिलेगी- बल्कि इसका उद्देश्य किसानों में बैंकिंग से जुड़ी आदतों के विकास का है. साथ ही, किसानों के खाते में रकम देने के क्रम में पूरे देश में जमीन से संबंधित दस्तावेजों को अद्यतन करने और उन्हें डिजिटल रुप में लाने की कवायद शुरु होगी. भू-स्वामी किसानों की सही संख्या जानने के लिए विशेष जनगणना करनी होगी. फिलहाल की स्थिति में जमीन के दस्तावेजों के डिजिटलीकरण और जमीन की मिल्कियत के रुपाकार में ढेर सारी विसंगतियां मौजूद हैं.
पेंशन योजना ‘फ्री का माल’ परोसने जैसी कोई कवायद नहीं
असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए लाई गई पेंशन योजना ‘फ्री का माल’ परोसने जैसी कोई कवायद नहीं बल्कि समाज के सबसे वंचित वर्ग के भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में की गई पहलकदमी है. कार्यबल में असंगठित क्षेत्र के कामगारों की तादाद 94 प्रतिशत है और इन्हें योजना में नाममात्र की रकम का योगदान करके 60 साल की उम्र के बाद से 3000 रुपए की मासिक पेंशन हासिल होगी. बेशक, इस योजना की मंशा असंगठित क्षेत्र के कामगारों को अपना भविष्य सुरक्षित करने की दिशा में कदम उठाने के लिए बढ़ावा देने की है. योजना ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटने की नहीं बल्कि एक महत्वाकांक्षी तबके को उसके सपने साकार करने और भविष्य संवारने की दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित करने की है.
गांधीनगर और दिल्ली में मोदी ने शासन की जो शैली अपनाई है उसपर एक बारीक नजर डालें तो उसमें एक पैटर्न (खाका) नजर आएगा. वो अपनी पहलकदमियों के जरिए एक नव-मध्यवर्ग बनाने के अथक प्रयास कर रहे हैं- यह समाज का एक बेशक्ल सा हिस्सा है जो अभी-अभी गरीबी के चंगुल से बाहर निकला है और शहर में रहने-बसने के अपने सपने को साकार करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा है. गांधीनगर के अपने दौर में मोदी ने इस तबके को आवास मुहैया कराया, पूरे राज्य में रहने-जीने की साफ-सुथरी शहरी जगह दिलाई. इसमें कोई शक नहीं कि इस तबके पर मोदी का व्यापक असर है और इस तबके के वोट बड़ी तादाद में हैं.
बीते पांच वर्षों में मोदी ने पूरे देश में जोरदार स्वच्छता अभियान चलाकर और शहरों के बीच साफ-सफाई के मामले में एक-दूसरे से बेहतर दिखने, लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की एक होड़ पैदा कर इस नव-मध्यवर्ग को गढ़ने-उभारने की पुरजोर कोशिश की है. साथ ही, सरकारी एजेंसियों के मार्फत (जरिए) वो इस वर्ग को सामाजिक जकड़बंदी से बाहर निकलने और सुनहरे भविष्य के सपने साकार करने के लिए भी बढ़ावा दे रहे हैं. एक चायवाला से प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने की उनकी प्रेरक कहानी इस वर्ग के लिए एक संदेश है कि वो भविष्य को आशा और उम्मीद से देखे ना कि हताशा के भाव से.
मोदी के पास लोगों की जिंदगी के लिए बेहतरी का एक सपना
अगर आप जानने चाहते हैं कि पिछले पांच वर्षों में राजनीति का व्याकरण कैसे बदलता रहा है, तो फिर पीयूष गोयल के बजट भाषण की आखिरी की चंद पंक्तियों पर गौर करें जहां जिक्र आता है कि भारत में नवकरणीय ऊर्जा (रिन्यूएबल एनर्जी) और बिजली से चलने वाली कारों की इफरात होगी. साथ ही समाज पारदर्शी और समतापरक बनेगा. बीते वक्त में वित्त मंत्री चुनाव से तुरंत पहले के बजट भाषण अक्सर गरीबों की हकदारी के जुमले उछालते रहे हैं- पीयूष गोयल का बजट भाषण उससे बिल्कुल अलग तेवर का है.
साफ जाहिर है कि मोदी के पास लोगों की जिंदगी के लिए बेहतरी का एक सपना है जबकि विपक्ष भारत की एक पिछड़ी और बेरंग तस्वीर बनाने पर तुला है. जो मॉडल गुजरात में नाकाम रहा था- विपक्ष दरअसल उसी को दोहराने की बात कर रहा है. जो मॉडल गुजरात में नाकाम रहा उससे पूरे देश में कामयाब होने की क्या उम्मीद पाली जाए!
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