पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजों से तस्वीर साफ हो गई है. एक राज्य में जनता ने जहां स्पष्ट जनादेश दिया है, वहीं बाकी के दो राज्यों को खंडित जनादेश मिला है. त्रिपुरा में बीजेपी ने सीपीएम के 25 साल के शासन को उखाड़ फेंका है और पार्टी भारी जनादेश के साथ सरकार बनाने के लिए तैयार है. त्रिपुरा विधानसभा की 60 में से 59 सीटों पर हुए चुनाव में भगवा ब्रिगेड और उसके सहयोगियों ने 43 सीटें जीती हैं जबकि सीपीएम के हिस्से में सिर्फ 16 सीटें ही आई हैं.
पूर्वोत्तर में बीजेपी की बढ़ती लोकप्रियता राष्ट्रीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत है. इस बात को हम दो आंकड़ों पर विचार करके समझ सकते हैं. नरेंद्र मोदी और अमित शाह के राष्ट्रीय राजनीति में आने से पहले कांग्रेस पूर्वोत्तर के सात राज्यों में से पांच में सत्ता में थी. जबकि बीजेपी का वहां अस्तित्व तक नहीं था. फिलहाल, बीजेपी और उसके सहयोगी पांच राज्यों (असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नगालैंड, सिक्किम) में सत्ता में हैं. वहीं कांग्रेस के पास पूर्वोत्तर के सिर्फ दो राज्य मिजोरम और मेघालय बचे हैं. हालांकि मेघालय में कांग्रेस का भविष्य अभी पुख्ता नहीं है.
विचार करने वाला तथ्य यह है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में त्रिपुरा में बीजेपी के 50 उम्मीदवारों में से 49 की जमानत जब्त हो गई थी. लेकिन अब पांच साल बाद त्रिपुरा में बीजेपी 43 फीसदी वोट शेयर के साथ सरकार बनाने के लिए तैयार है. कहावत है कि, हमें अपनी रणनीति को जितना जाहिर करना चाहिए उससे ज्यादा उसे छिपाना चाहिए. लेकिन इस मामले में बीजेपी ने कई कहावतों और आंकड़ों को गलत साबित करते त्रिपुरा की राजनीतिक में जोरदार एंट्री मारी है. त्रिपुरा चुनाव के नतीजे बीजेपी की रणनीति में आए बदलाव और पार्टी के लचीलेपन को जाहिर करते हैं.
नई बीजेपी : रूपांतरित और पुनः परिभाषित पार्टी
पूर्वोत्तर में विस्तारित उपस्थिति ने बीजेपी को एक शुद्ध अखिल भारतीय पार्टी बना दिया है. बीजेपी के अखिल भारतीय चरित्र को मोदी-शाह ने मजबूत बनाया है. इन दोनों नेताओं की अथक मेहनत और पुख्ता रणनीति के चलते ही पूर्वोत्तर भारत में बीजेपी को जड़े जमाने और पनपने का मौका मिला. पूर्वोत्तर में पार्टी को असरकारी बनाने के लिए मोदी-शाह की जोड़ी ने बीजेपी का कायाकल्प करके उसे पुनः परिभाषित करने का काम किया. इसके लिए बीजेपी ने अपनी हिंदुत्व की छवि से भी समझौता किया. हालांकि यह बात बीजेपी के लिए उससे कहीं ज्यादा जटिल है जितनी जाहिर तौर पर जटिल नज़र आती है.
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हर राजनीतिक पार्टी के लिए खुद को रूपांतरित और पुनः परिभाषित करना आसान नहीं होता है. यह काम कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए तो आसान है क्योंकि वह अलग-अलग सामाजिक समूहों और समुदायों से जुड़ी हुई है. लेकिन बीजेपी के लिए यह रूपांतरण यकीनन मुश्किल था. क्योंकि हमेशा से बीजेपी की छवि एक ऐसी पार्टी की रही है कि जिसकी एक खास विचारधारा है. इसके अलावा बीजेपी का संबंध अलग-अलग समूहों और समुदायों के बजाए खास वर्ग के लोगों से ही रहा करता था. लेकिन वक्त के तकाज़े के मद्देनजर बीजेपी ने अपनी छवि और रणनीति में बदलाव किए, जिसका उसे पूर्वोत्तर में भरपूर फायदा मिला.
दरअसल पूर्वोत्तर में कदम जमाने के लिए बीजेपी की पहली लड़ाई खुद अपने खिलाफ थी. बीजेपी नेता बखूबी जानते थे कि पूर्वोत्तर में एंट्री के लिए उन्हें हिंदुत्व वोट बैंक को लुभाने वाली अपनी सामाजिक परियोजनाओं को त्यागना होगा. इसके अलावा बीजेपी को अपनी उस छवि से भी निजात पाना था जैसी कि उसने हिंदी भाषी प्रदेशों में बना रखी है. यानी पूर्वोत्तर में बीजेपी को मौजूदगी दर्ज कराने के लिए अपनी छवि और विचारधारा के एकदम उलट काम करना था. जो कि बीजेपी ने बखूबी किया और वह पूर्वोत्तर की राजनीति में मजबूत विकल्प बनकर उभरी.
पूर्वोत्तर में बीजेपी अपना कायाकल्प करने में मोदी और शाह की वजह से कामयाब रही. मोदी-शाह देश में बीजेपी के विस्तार के लिए वैचारिक समझौतों की अहमियत को अच्छी तरह से समझते थे. ऐसे में उन्होंने कई जगहों पर बीजेपी की विचारधारा से समझौता किया और सहयोगी दलों के विचारों को तरजीह दी. क्योंकि भारत न केवल एक बहुत बड़ा देश है, बल्कि यहां विविध समूहों का अदभुत संयोजन भी है. भारत में अलग-अलग धर्मों और समुदायों से संबंध रखने वाले लोग रहते हैं. ऐसे में उन्हें एक ही विचारधारा के नाम पर साथ लाना मुमकिन नहीं. लिहाज़ा वैचारिक समझौतों से ही अलग-अलग समूहों को एक प्लेटफॉर्म पर लाया जा सकता है.
फिलहाल पूर्वोत्तर के सात राज्यों में से पांच बीजेपी की झोली में हैं. यह पूर्वोत्तर में मोदी की रणनीतिक सफलता का सबूत है. मोदी की इस रणनीति की शुरुआत बीजेपी की मार्गदर्शक विचारधाराओं में लचीलापन लाने के साथ हुई थी.
पूर्वोत्तर में बीजेपी का बढ़ता ग्राफ
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजों से पता चलता है कि बीजेपी के वोट शेयर में जबरदस्त इजाफा हुआ है. 2013 में बीजेपी का वोट शेयर महज 1.5 फीसदी था जो कि 2018 में बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया है. हालांकि त्रिपुरा में बीजेपी ने भले ही 25 साल से सत्ता पर काबिज़ माणिक सरकार को उखाड़ फेंका है, लेकिन सीपीएम ने अभी भी 43 फीसदी वोट शेयर बरकरार रखा है. ऐसे में सवाल उठता है कि बीजेपी के हिस्से में इतना ज़्यादा वोट शेयर आया कहां से है? इसका जवाब कांग्रेस है.
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देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को त्रिपुरा चुनाव में भारी नुकसान उठाना पड़ा है. 2013 के त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 36 फीसदी था, जो कि 2018 के विधानसभा चुनाव में घटकर दो फीसदी से भी कम रह गया है.
कायदे में त्रिपुरा में कांग्रेस को माणिक सरकार के खिलाफ एंटी इंकंबेंसी का फायदा उठाना चाहिए था. क्योंकि त्रिपुरा में कांग्रेस का पहले से स्थापित वोटर बेस और पार्टी का मजबूत आधार था. लेकिन कांग्रेस वहां रणनीतिक तौर पर नाकाम साबित हुई. वहीं बीजेपी जिसका कि त्रिपुरा में नामोनिशान तक नहीं था, वह खुद को राजनीतिक विकल्प के तौर पर पेश करने में कामयाब रही. बीजेपी ने अपनी रणनीति के तहत मतदाताओं की उस नई पीढ़ी को लुभाया जो राज्य की सत्ता पर बीते ढाई दशकों से काबिज माणिक सरकार के बजाए किसी नए चेहरे और नई पार्टी की तलाश में थी. यानी बीजेपी ने माणिक सरकार के खिलाफ एंटी इंकंबेंसी का भरपूर फायदा उठाया.
पूर्वोत्तर में बीजेपी की शून्य से शिखर तक की चमत्कारिक यात्रा दो-तरफा दृष्टिकोण की वजह से संभव हो पाई है. एक ओर तो बीजेपी के रणनीतिकारों राम माधव, सुनील देवधर और अमित शाह ने आरएसएस की मदद से पूर्वोत्तर में जमीन तैयार करने के लिए और संगठन बनाने में कई साल लगाए. वहीं दूसरी ओर मोदी के नेतृत्व में पार्टी के शीर्ष नेताओं ने पूर्वोत्तर के लिए कई लुभावनी योजनाओं की शुरूआत की. इनमें एक्ट ईस्ट और नेशनल बैंबू मिशन जैसी योजनाएं भी शामिल थीं, जिन्होंने युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसरों को पैदा किया.
त्रिपुरा में कांग्रेस के पास कोई रणनीति या नेतृत्व नहीं था, लिहाजा वाम सरकार को सत्ता से बेदखल करना मुश्किल था. ऐसे में बीजेपी ने कांग्रेस की रणनीतिक नाकामी का पूरा फायदा उठाया. बीजेपी एक मजबूत उद्देश्य और रणनीति के साथ मैदान में उतरी. उसने वामपंथ के करात धड़े और येचुरी धड़े की आपसी कलह का लाभ उठाते हुए माणिक सरकार को धराशाई कर दिया.
त्रिपुरा में बीजेपी का कैडर तैयार
राज्य में जब तक कांग्रेस मुख्य विरोधी पार्टी थी, तब तक सीपीएम आसानी से त्रिपुरा में अपनी शासनात्मक विफलता को संगठनात्मक ताकत से ढंक दिया करती थी. लेकिन त्रिपुरा में जैसे ही बीजेपी का उभार हुआ तब से सीपीएम के लिए अपनी विफलता छिपाना मुश्किल हो गया. क्योंकि सीपीएम के कैडर की तरह ही बीजेपी के पास भी त्रिपुरा में जमीनी स्तर पर कैडर तैयार हो चुका था. जमीनी स्तर के इसी कैडर के चलते बीजेपी त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने में कामयाब हो पाई है.
संक्षेप में,पूर्वोत्तर में बीजेपी की शानदार जीत और विस्तार पार्टी की पुख्ता और लंबी योजना का परिणाम है. वहीं बीजेपी की रणनीति में आए गुणात्मक बदलाव ने पार्टी को भारतीय राजनीति की सबसे मजबूत शक्ति बना दिया है.
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