क्या शहरी मतदाताओं पर बीजेपी की पकड़ कमजोर हो गई है? क्या शहरी इलाकों में भगवा पार्टी की लोकप्रियता मंद पड़ने लगी है? गोरखपुर, अजमेर और अलवर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे तो कुछ इसी ओर इशारा कर रहे हैं. एक वक्त था जब शहरी मतदाता बीजेपी का मजबूत आधार हुआ करते थे. साल 2013 से शहरी मतदाताओं के बल पर बीजेपी लगातार जीत हासिल करती आ रही थी. लेकिन अब एकाएक तस्वीर बदलना शुरू हो गई है.
ऐसा लग रहा है कि शहरी मतदाता या तो बीजेपी से दूरी बना रहे हैं या मतदान में रुचि नहीं ले रहे हैं. ग्रामीण इलाकों में सरकार के खिलाफ असंतोष के सुरों के बाद अब शहरी इलाकों में मतदाताओं की उदासीनता ने बीजेपी के लिए खतरे की घंटी बजा दी है.
गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों में बीजेपी को आशा थी कि उसके उम्मीदवार शहरी इलाकों में बड़ी बढ़त हासिल करेंगे. लेकिन हुआ इसके बिल्कुल उलट. शहरी विधानसभा क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में काफी कम रहा.
फूलपुर सीट के शहरी इलाके इलाहाबाद उत्तर में जहां 21.65 प्रतिशत वोट पड़े, वहीं इलाहाबाद पश्चिम में 31 प्रतिशत. जबकि गोरखपुर शहर में 33 प्रतिशत मतदाताओं ने वोटिंग में रुचि दिखाई. ज़ाहिर है, इतने कम मतदान का खामियाजा बीजेपी को उठाना पड़ा और उसके उम्मीदवार हार गए. इन नतीजों से स्पष्ट हो गया कि बीजेपी शहरी इलाकों में हुए नुकसान की भरपाई ग्रामीण इलाकों के वोटों के दम पर नहीं कर सकती है.
शहरी मतदाताओं ने फेरा है बीजेपी की उम्मीदों पर पानी
अकेले गोरखपुर शहर में, बीजेपी को उम्मीद थी कि वह पिछले चुनाव की तरह ही इस बार भी एक लाख से ज्यादा वोटों की अजेय बढ़त बनाएगी. लिहाजा पार्टी ने शहरी मतदाताओं पर खास ध्यान दिया और उन्हें लुभाने के लिए अपने ज्यादातर संसाधनों को झोंक दिया. लेकिन बीजेपी की सारी कवायद बेकार साबित हुई और उसके उम्मीदवार को शिकस्त खाना पड़ी.
गोरखपुर और फूलपुर की तरह ही अलवर और अजमेर में भी बीजेपी की उम्मीदों पर शहरी मतदाताओं ने पानी फेर दिया था. अलवर और अजमेर में इसी साल हुए उपचुनावों में बीजेपी की करारी हार हुई थी. अजमेर के दो शहरी हिस्सों और अलवर शहर में बीजेपी वोटों के बड़े अंतर से पीछे रही. जबकि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में इन दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में बीजेपी को शहरी मतदाताओं का भारी समर्थन मिला था.
पिछले साल के अंत में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मिली कामयाबी से यह साफ हो गया था कि, पार्टी केवल अपने शहरी मतदाताओं के आधार पर ही चुनाव जीत सकती है. गुजरात की सूरत, अहमदाबाद, वडोदरा और राजकोट सीटों पर बीजेपी ने एकतरफा जीत हासिल की थी. राज्य की 55 शहरी सीटों में से 44 बीजेपी के खाते में गईं थीं. जबकि कांग्रेस ने 127 ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी सीटों में से 68 पर जीत हासिल की थी. बड़े शहरों में बीजेपी की अजेय बढ़त ने ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन को बेअसर कर दिया था.
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अतीत में, शहरी मतदाता बीजेपी के वोट बैंक की रीढ़ माने जाते थे. ग्रामीण इलाकों से उठी बीजेपी विरोधी लहर को शहरी मतदाता आसानी से बेअसर कर देते थे. या यूं कहें कि शहरी मतदाता बीजेपी की जेब में हुआ करते थे. शहरी मतदाताओं के समर्थन के चलते चुनावी मैदान में उतरने से पहले ही बीजेपी को पर्याप्त आत्मविश्वास मिल जाया करता था. शहरी इलाके में भारी बढ़त बनाकर बीजेपी उम्मीदवार चुनाव जीत लिया करते थे. लेकिन अब उपचुनावों में मिली हार से बीजेपी का यह आत्मविश्वास डगमगाने लगा है.
नए रुझानों से संकेत मिलता है कि अब बीजेपी को शहरी मतदाताओं से मिलने वाले बोनस की गारंटी खत्म हो गई है.
शहरों में क्यों पिछड़ रही है बीजेपी?
शहरी इलाकों में बीजेपी के घटते जनाधार और कम होती लोकप्रियता की कई वजहें हैं. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण गांवों की तुलना में शहरी इलाकों में ज्यादा असर करता है. ग्रामीण इलाकों में दूसरे मुद्दों की अपेक्षा जाति सबसे निर्णायक कारक है. इसके अलावा बीजेपी के ज्यादातर मुख्य मतदाता यानी ऊंची जाति के लोग, युवा, व्यापारी-कारोबारी और सरकारी कर्मचारी शहरों में रहते हैं.
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अगर ऐसे में भी बीजेपी शहरों में पिछड़ रही है, तो जाहिर है कि मुख्य मतदाता पार्टी से नाखुश हैं. वे या तो बीजेपी के विरोधियों के पक्ष में मतदान कर रहे हैं या फिर मतदान के दिन वोट डालने ही नहीं जा रहे हैं. फूलपुर और गोरखपुर में तो ऐसा ही कुछ नजर आया. जहां मतदान का प्रतिशत बेहद कम रहा.
बीजेपी के प्रति उसके कट्टर समर्थक मतदाताओं की उदासीनता और नाराजगी के कई कारण हो सकते हैं. जीएसटी लागू होने के शुरुआती महीनों के दौरान शहरों में व्यापारियों और कारोबारियों का काम खासा प्रभावित हुआ था. जिससे उन्हें काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा.
जीएसटी का असर छोड़े व्यावसायियों, कारीगरों और मजदूरों पर भी पड़ा. लिहाजा वे भी सरकार से नाराज हो सकते हैं. इसके अलावा नौकरियां पैदा करने में नाकाम रही सरकार से युवा वर्ग भी खफा है. जबकि अब सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से ज्यादा चुनावी फायदे की उम्मीद रखना बेमानी हो गया है.
बीजेपी के लिए सबसे गंभीर समस्या यह है कि ग्रामीण इलाकों में पार्टी के खिलाफ असंतोष गहराता जा रहा है. ग्रामीण इलाकों में बीजेपी के खिलाफ यह असंतोष गुजरात में साफ नजर आया, जहां कांग्रेस ने इसका जमकर फायदा उठाया.
मध्यप्रदेश और राजस्थान के उपचुनाव में यह प्रवृत्ति फिर से उजागर हुई थी, जहां सभी 14 विधानसभा क्षेत्रों के ग्रामीण इलाकों में बीजेपी बुरी तरह से पिछड़ गई थी. उपचुनाव के नतीजों के अलावा, महाराष्ट्र और राजस्थान के किसानों के हालिया प्रदर्शनों से पता चलता है कि केंद्र सरकार के खिलाफ लोगों में भारी नाराजगी है.
उपचुनाव में हार के बाद बीजेपी को अब अपने शहरी मतदाताओं की चिंता करना चाहिए. बीजेपी को चाहिए कि वह यह सुनिश्चित करे कि उसके शहरी मतदाता उससे और छिटकें नहीं. बीजेपी को चाहिए कि वह अपने शहरी मतदाताओं को ग्रामीण इलाकों के मतदाताओं से प्रभावित होने से रोके. वरना शहरी और ग्रामीण मतदाताओं का यह विभाजन बीजेपी के मंसूबों पर बहुत भारी पड़ सकता है. शहरी मतदाताओं की नाराजगी और उदासीनता से बीजेपी के मिशन 2019 का सपना चकनाचूर हो सकता है.
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