जवाहर लाल नेहरू से अपनी लड़ाई में भाजपा, संघ और उसके कार्यकर्ता चाहते हैं कि इतिहास के किताबों से उनका नाम हटा दिया जाए.
ऐसे लोगों के लिए एक सुझाव है. वे क्यों नहीं अपने घर में रखी किताबों को जलाना शुरू कर देते हैं.
27 मई 1964 को दोपहर ढाई बजे भारतीय संसद को जवाहर लाल नेहरू के देहांत की सूचना दी गई थी.
इसके कुछ घंटे बाद तीन मूर्ति हाउस के सामने भारी भीड़ इकट्ठा होना शुरू हो गई. यहां पर अंतिम संस्कार के लिए उनका शव रखा गया था.
जल्द ही लाखों की संख्या में लोग अपने नेता को अंतिम विदाई देने के लिए जुट गए. प्रधानमंत्री नेहरू को सबसे भावभीनी श्रद्धांजलि देने वालों में विपक्ष में बैठा एक युवा राजनेता था.
अधूरा सपना
संसद में इस युवा सांसद ने नेहरू की मौत पर कहा,' एक सपना अधूरा रह गया. एक गीत अब मूक हो गया और एक प्रकाश कहीं खो गया है.'
'यह सपना दुनिया को भूख और भय से मुक्त करने का था. यह गीत महान महाकाव्य गीता की भावना के साथ सुनाई देता था और इसमें गुलाब की खुशबू थी. यह प्रकाश एक ऐसे मोमबत्ती का था जो पूरी रात जलता था और हमें रास्ता दिखाता था.'
'एकता, अनुशासन और आत्मविश्वास से हमें इस गणतंत्र को मजबूत बनाना होगा. हमारा नेता चला गया है लेकिन उनके अनुयायी अभी जिंदा हैं. सूर्य अस्त हो गया है पर तारों की रोशनी में हमें राह तलाशनी होगी.'
'यह समय चुनौतीपूर्ण है पर हमें एक बड़े लक्ष्य के लिए खुद को समर्पित करना होगा. जिससे भारत को मजबूत, सक्षम और समृद्ध बनाया जा सके.'
'यह वक्ता कौन था? दरअसल संसद में यह भाषण पूर्व प्रधानमंत्री और दशकों तक भाजपा का चेहरा रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया था.'
किसी व्यक्ति की महानता को जानने का यह तरीका नहीं होता कि उसके दोस्तों, समर्थकों और चापलूसों ने उनके बारे में क्या कहा है.
इसका निर्णय करने का सबसे सही तरीका है कि उनके विरोधियों और प्रतिस्पर्धियों ने उनके बारे में क्या कहा है.
वाजपेयी ने नेहरू को बनाचा आइकॉन
जब संघ की छत्रछाया में बड़े हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में यह भाषण दिया तब उन्होंने नेहरू को महान भारतीय आइकॉन बना दिया था.
अगर संघ-भाजपा चाहते हैं कि नेहरू को उनके प्रभामंडल से वंचित कर दिया जाय. वे यह चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियां आधुनिक भारत के इस निर्माता के बारे में न जाने तो उन्हें सबसे पहले नेहरू की याद में कहे गए वाजपेयी जैसे विरोधियों के शब्दों को हटाना होगा.
अगर एक मशहूर नारे को बदला जाय तो वह कुछ ऐसा बनेगा. जब तक वाजपेयी का स्पीच रहेगा, नेहरू का भी नाम रहेगा.
एक बार एक आगंतुक ने तब के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से पूछा कि अगर महात्मा गांधी ने नेहरू की जगह पटेल को चुना होता.
इस वार्तालाप के गवाह रहे एक पत्रकार के अनुसार देसाई ने जवाब दिया पटेल महान नेता और बेहतरीन प्रशासक थे, लेकिन उन्हें देश के बाहर कोई नहीं जानता था.
जब भारत आजाद हुआ था तब वह बड़ी आर्थिक या सामरिक ताकत नहीं था. नेहरू ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के लिए सम्मान जुटाया जो पटेल के लिए बहुत मुश्किल होता.
दुर्भाग्यवश नेहरू के योगदान को जानने के बजाय उनके कुछ विरोधी आज उनका नाम इतिहास से मिटाना चाह रहे हैं.
पूर्व प्रधानमंत्री पर चर्चा नहीं करना चाहते
यहां तक कि वे पूर्व प्रधानमंत्री पर चर्चा तक नहीं करना चाह रहे हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान सरकार ने स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों से पूर्व प्रधानमंत्री के सभी संदर्भों को हटा दिया है.
नए पाठ्यपुस्तक में नेहरू का नाम का जिक्र सिर्फ दो बार भारतीय संविधान के अध्याय में बहुत ही साधारण तरीके से किया गया है.
भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष नाम के अध्याय में उन्हें पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है.
पूर्व प्रधानमंत्री की विरासत पर यह हमला पहली बार नहीं किया गया है. नेहरू के बारे में तथ्यों को मरोड़ना नरेंद्र मोदी और भाजपा की दूसरी अन्य राज्य सरकारों का प्रिय शगल रहा है.
पिछले कुछ सालों में झूठे और जाली दस्तावेजों के आधार पर गलत सूचना, आक्षेप व दुर्भावनापूर्ण प्रचार के जरिये नेहरू की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया है.
नेहरू की विरासत को लेकर संघ की सनक को आसानी से समझा जा सकता है. नेहरू का विचार उदार और धर्मनिरपेक्ष है.
इसके विपरीत संघ द्वारा सांप्रदायिक राजनीति की जाती रही है. दशकों में संघ एक भी ऐसा नेता नहीं बना पाया है जो नेहरू से बड़ा हो और नेहरू के विचार से अलग विकल्प दे पाया हो.
नेहरू और पटेल के बीच बंटवारे की फर्जी कोशिश
इसके चलते नेहरू और पटेल के बीच बंटवारे की फर्जी कोशिशें भी की जा रही हैं. इस तरह की बेबुनियाद खबरें पूर्व प्रधानमंत्री के सभी प्रतिस्पर्धियों सुभाष चंद्र बोस, बीआर आंबेडकर, सरदार पटेल के बारे में भी फैलाई जा रही हैं.
इस बारे में संघ का विचार बहुत स्पष्ट है. अगर आप नेहरू की महानता को हासिल नहीं कर सकते हैं तो उन्हें नीचे गिराकर अपनी संकीर्णता के दायरे में ले आएं.
नेहरू के विचार भारत के लोगों की जड़ों में गहरे से समा गया है. संघ लोगों की याद से उसे कभी नहीं हटा पाएगा.
वे वाजपेयी जैसे हर उदार, धर्मनिरपेक्ष और विवेकशील भारतीय के दिमाग में चेतन व अवेचतन दोनों अवस्था में हमेशा रहेंगे.
पाठ्यपुस्तकों से नेहरू का नाम मिटाकर भुला देने की रणनीति कभी कारगर नहीं होगी. शिक्षा का असली मकसद सच की खोज करना होता है.
जब बच्चे संघी इतिहास पढ़ते हुए बड़े होंगे तो भी वह सवाल पूछना सीखेंगे. उसके बाद वह सही तथ्य और प्रोपेगैंडा में फर्क करना सीख जाएंगे.
इससे वे नेहरू के बारे में अपनी धारणा बनाने में सफल होंगे. अंत में उनकी इस तलाश में वाजपेयी के शब्द मददगार साबित होंगे.
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