बिहार में एनडीए के भीतर सीटों के बंटवारे के मुताबिक, लोकसभा की कुल 40 सीटों में से बीजेपी और जेडीयू 17-17 सीटों पर जबकि, एलजेपी 6 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. इसके अलावा एनडीए की तरफ से एलजेपी अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान राज्यसभा भेजे जाएंगे. माना जा रहा है कि अगले साल जून में ही असम से उन्हें बीजेपी अपने कोटे से राज्यसभा भेजेगी.
विधानसभा चुनाव में हार से सहयोगियों की बढी ताकत
लेकिन, सीटों के बंटवारे पर सहमति बनाने में बीजेपी को जिस तरह बैकफुट पर आना पड़ा, उसे बीजेपी के मुकाबले सहयोगी दलों के ‘बार्गेनिंग पावर’ के बढ़ने का एहसास करा रहा है. खास तौर से पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के प्रदर्शन के बाद ऐसा हो रहा है. बीजेपी के हाथों से मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस ने सत्ता छीन ली है. लोकसभा चुनाव से पहले इन राज्यों में हुई हार के बाद बीजेपी के लिए हार के इस ‘परसेप्शऩ’ से बाहर निकलने की चुनौती थी. लिहाजा, पार्टी ने समझौता कर एक कदम पीछे हटना ही जरूरी समझा.
बीजेपी की इसी कमजोरी का फायदा पासवान उठा ले गए. दरअससल, बीजेपी और जेडीयू ने पहले ही 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर ली थी. सूत्रों के मुताबिक, पासवान की एलजेपी के खाते में 4 और कुशवाहा की आऱएलएसपी के खाते में दो लोकसभा की सीटें दी जानी थी. इसके अलावा एक राज्यसभा सीट रामविलास पासवान को दी जानी थी. लेकिन, उपेंद्र कुशवाहा के एनडीए छोड़कर यूपीए में शामिल होने के बाद पासवान को बीजेपी पर दबाव बनाने का मौका मिल गया.
महागठबंधन भी डाल रहा था डोरे !
सूत्रों के मुताबिक, पासवान को कांग्रेस और आरजेडी दोनों की तरफ से यूपीए में वापसी का ऑफर था. कांग्रेस तो पहले से ही पासवान पर डोरे डाल रही थी, लेकिन, आरजेडी के ‘युवराज’ तेजस्वी यादव और एलजेपी के ‘युवराज’ चिराग पासवान के बीच केमेस्ट्री नहीं बन पाने के चलते आरजेडी बहुत उत्साहित नहीं थी. सूत्रों के मुताबिक, आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव की सहमति के बाद आखिरकार आरजेडी भी पासवान को अपने पाले में लाने को लेकर तैयार हो गई थी. इसी के बाद चार सालों से एनडीए के भीतर सुस्त पड़े पासवान को एक संजीवनी मिल गई.
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रामविलास पासवान ने खुद पत्ते खेलने के बजाए अपने बेटे औऱ एलजेपी संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष चिराग पासवान को आगे कर दिया. पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के अगले ही दिन चिराग ने नोटबंदी को लेकर सवाल खड़ा कर दिया. चिराग की वित्त मंत्री अरुण जेटली को लिखी गई चिट्ठी के बाद उनके ट्वीट ने बवाल मचा दिया. ट्विट में जल्द से जल्द गठबंधन का ऐलान करने की मांग की गई. एलजेपी की तरफ से 31 दिसंबर तक की डेडलाइन भी तय कर दी गई.
बीजेपी को ‘परसेप्शन’ की थी चिंता
लगातार हमले के बाद बीजेपी अचानक हरकत में आ गई. पार्टी ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के अलावा वित्त मंत्री अरुण जेटली को भी इस पूरी बातचीत में शामिल कर लिया जिसके बाद नाराज पासवान को मनाने की कवायद तेज की गई. बीजेपी जो कि पहले 4 और 1 के फॉर्मूले के तहत पासवान को मनाने की कोशिश कर रही थी, उसे कुशवाहा के खाते की दोनों सीटें पासवान को देनी पड़ी और अब फॉर्मूला 6 लोकसभा और 1 राज्यसभा की सीट के साथ तय हुआ. गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भी रामविलास पासवान की पार्टी को 7 सीटें दी गई थी, जिनमें 6 सीटों पर जीत मिली थी. इस बार भी लोकसभा की 6 सीटें दी गई हैं जबकि राज्यसभा की 1 सीट पर जीत तो पक्की ही है.
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इस पूरी कवायद में बीजेपी ही घाटे में रही. 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में जेडीयू ने अलग चुनाव लड़ा था, उस वक्त बीजेपी कुल 40 में से 30 सीटों पर जबकि, एलजेपी 7 और आरएलएसपी 3 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. लेकिन, जेडीयू की एनडीए के भीतर एंट्री के बाद अब बीजेपी को सबसे ज्यादा त्याग करना पड़ा है. बीजेपी ने 30 में से 22 सीटों पर जीत दर्ज की थी, फिर भी उसे महज 17 सीटों पर संतोष करना पड़ा है. मतलब उसे अपनी जीती हुई 5 सीटें भी छोड़नी होगी. ऐसे में बिहार में बीजेपी की खुद की सीटों की संख्या 2014 के मुकाबले 2019 में कम होनी तय है.
यूपी में भी गढ़ बचाने की चुनौती
कुछ ऐसे ही संकेत यूपी, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से मिल रहे हैं. इन सभी हिंदी भाषी क्षेत्रों में बीजेपी ने मोदी लहर में लोकसभा चुनाव के दौरान अधिकतम सीटें जीती थीं. बीजेपी ने यूपी में लोकसभा की 80 सीटों में से पार्टी को 71 जबकि उसकी सहयोगी अपना दल को 2 सीटें मिली थीं, इस तरह यूपी में एकतरफा 73 सीटों पर जीत मिल गई थी. लेकिन, इस बार बीजेपी के लिए इस प्रदर्शन को दोहरा पाना बड़ी चुनौती होगी.
चुनौती की बात इसलिए कही जा रही है, क्योंकि, इस बार एसपी और बीएसपी के साथ चुनाव लड़ने के संकेत मिल रहे हैं. सूत्रों के मुताबिक, यूपी में बीएसपी 38, एसपी 37, आरएलडी 3 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है जबकि कांग्रेस को महज सोनिया गांधी और राहुल गांधी की परंपरागत रायबरेली और अमेठी सीट छोड़ी जा सकती है.
यूपी में मायावती, अखिलेश और अजीत सिंह के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की हालत में बीजेपी के लिए पिछले प्रदर्शन को दोहरा पाना सबसे बड़ी चुनौती होगी. इसकी एक झलक उस वक्त दिख गई जब गोरखपुर और फूलपुर के बाद कैराना लोकसभा उपचुनाव में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा.यहां मायावती और अखिलेश की जुगलबंदी का असर जमीन पर साफ-साफ दिख रहा था.
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उधर अपना दल में भी दो-फाड़ हो गया है जबकि विधानसभा चुनाव के वक्त बीजेपी के साथ आए ओमप्रकाश राजभर भी बीजेपी से नाराज चल रहे हैं.पूर्वांचल में राजभर समुदाय पर इनकी अच्छी पकड़ रही है. ऐसे में उनकी नाराजगी का असर भी दिख सकता है. ऐसे में बीजेपी के लिए पिछले लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहराने की चुनौती बड़ी होगी.
हालाकि बीजेपी का दावा है कि इन दोनों के मिलने के बावजूद पार्टी फिर से जीत दर्ज करेगी और यूपी में पिछले प्रदर्शन को दोहराने की चुनौती होगी. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कई मौकों पर कह चुके हैं कि हमारी कोशिश इस बार यूपी मे 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर हासिल करने की है, अगर हकीकत में शाह की रणनीति काम कर गई तो फिर बीजेपी के दावे में दम दिखता है, वरना यूपी में भी उसकी सीटें घट सकती हैं.
हिंदी भाषी प्रदेशों में लोकसभा में कांग्रेस से मिलेगी टक्कर
उधर, बात मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की करें तो इन तीनों प्रदेशों में लोकसभा की कुल सीटें 65 हैं. बीजेपी ने पिछली बार इन 65 में से 62 सीटों पर जीत दर्ज की थी. बीजेपी ने मध्यप्रदेश की 29 में से 27, छत्तीसगढ की 11 में से 10 और राजस्थान की 25 में से सभी 25 सीटों पर जीत दर्ज की थी. लेकिन, वो माहौल दूसरा था. उस वक्त लोकसभा चुनाव से पांच महीन पहले इन तीनों राज्यों में बीजेपी की प्रचंड बहुमत की सरकार बनी थी. लेकिन, इस बार हालात कुछ अलग हैं. इन तीन राज्यों में छत्तीसगढ़ में तो बीजेपी का सफाया हो गया है, केवल मध्यप्रदेश और राजस्थान में ही पार्टी लड़ाई दे पाई है.
अब बदले हालात में इन राज्यों में 65 में से 62 सीटें जीत पाना बीजेपी के लिए चुनौती होगी. ऐसे में पार्टी की सीटों की संख्या इन प्रदेशों में भी घट सकती है. ऐसे में बीजेपी के लिए लोकसभा चुनाव 2019 में चुनौती बड़ी है. यह चुनौती पिछले लोकसभा चुनाव से बड़ी होगी क्योंकि पार्टी के लिए अपने मजबूत गढ़ हिंदी भाषी प्रदेशों में पिछली बार की तरह एकतरफा जीत का प्रदर्शन दोहरा पाना आसान नहीं होगा.
राजनीतिक ‘मौसम’ के मिजाज को समझने वाले ‘मौसम वैज्ञानिक’ ने भी पहले ही लगता है बीजेपी की इस कमजोरी को भांप लिया है, वरना इस तरह बीजेपी बैकफुट पर आकर पासवान के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं होती.
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