उत्तरप्रदेश में ऐतिहासिक जीत के साथ चुनावी समर में बाजी मारकर ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 के पहले विपक्षी एकता को ध्वस्त करने की तैयारी शुरू कर दी है.
इस वास्तविकता पर विचार करना थोड़ा अजीब लग सकता है कि विपक्ष अपनी रणनीति को लेकर मुश्किल से एक इंच बढ़ पाया हो. लेकिन उत्तरप्रदेश के नतीजे आने के बाद से ही कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, वामपंथी पार्टियां (सीपीआई,सीपीएम दोनों ही), नीतीश कुमार की जेडीयू और लालू प्रसाद यादव की आरजेडी जैसी अनेक विपक्षी पार्टियों के नेताओं के एक के बाद एक बयान आते रहे हैं.
सिर्फ समाजवादी पार्टी ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जिसकी तरफ से इस पर किसी भी तरह का बयान नहीं आया है. सवाल है कि कैसे, कब और किस तरह विपक्षी पार्टियों की यह एकता अपना ठोस आकार लेगी, इसका कयास कोई भी नहीं लगा पा रहा है.
सजग हैं बीजेपी और मोदी
लेकिन मोदी को इस फैसले का कोई इंतजार नहीं है. यही कारण है कि उन्होंने सिस्टम के नट वोल्ट को टाइट करने के साथ आने वाली राजनीति को ठोस आकार देने के लिए चीजों को व्यवस्थित करना शुरू कर दिया है.
इस बजट सत्र के अंतिम सोमवार को प्रधानमंत्री, जो राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन के प्रमुख भी हैं, ने अपने गठबंधन में शामिल सभी पार्टियों को रात्रिभोज में आमंत्रित किया. उसमें कम से कम 32 पार्टियों के शीर्ष शामिल हुए.
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उस बैठक में गठबंधन का एक तरह से अखिल भारतीय स्वरूप देखने को मिला. एनडीए ने हाल ही में अपना विस्तार उत्तर पूर्व (एनईडीए के झंडे तले) में भी किया है और इस बैठक में एनईडीए के प्रतिनिधि भी शामिल थे.
बैठक में बीजेपी ने अपने पुराने मित्र दलों के प्रति जहां अपनी सहृदयता दिखाई, वहीं नए मित्र दल बनाने की उत्सुकता भी देखी गई. मीडिया के एक समूह ने इस बैठक के बारे में अनुमान यह लगाया कि आने वाले महीनों में राष्ट्रपति चुनाव होना है और एनडीए की उस बैठक में उसी को लेकर चर्चा की गयी होगी.
2019 की अग्रिम तैयारी
लेकिन वास्तविकता तो यही है कि राष्ट्रपति चुनाव संबंधित बातें पूरी बैठक का एक छोटा सा हिस्सा था. एनडीए की बैठक खत्म होने के बाद जो बयान जारी किया गया.
इसमें कहा गया कि एनडीए की साझेदार पार्टियों ने इस मजबूत सरकार और गरीबों को लेकर उसके द्वारा उठाई गई नीतियों के प्रति अपने-अपने विश्वास जताए हैं. बयान में यह भी दोहराया गया कि 2019 के चुनाव नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व में ही लड़े जाएंगे.
हालांकि बीजेपी अपने गठबंधन के स्तंभों को मजबूती देने में लगी हुई है, लेकिन वह तमिलनाडु तथा केरल जैसे राज्यों में नए साथियों की तलाश में भी लगी हुई है.
केरल में बीडीजेएस तथा तमिलनाडु में एमकेएमके और आईजेके जैसे कम प्रभाव वाले छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन बनाने की कोशिश की जा रही है. हालांकि खुश होने का कोई कारण नहीं था, फिर भी केरल और तमिलनाडु में अपने मतों की हिस्सेदारी में हुई बढ़ोत्तरी से यहां बीजेपी को अपने बड़े साथी दलों की तलाश में एक नई उम्मीद जरूर दिखी है.
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कोई शक नहीं कि ये सब कमजोर या नहीं जीते गए राज्यों में बीजेपी संगठन को मजबूत करने वाली अमित शाह की योजना की कीमत पर कुछ भी नहीं किया जाएगा.
संभवत: इससे कार्यकर्ताओं के बीच नई ऊर्जा का संचार होगा और सदस्य जोड़ने में सहूलियत होगी और अपनी कमियों को दूर करने के लिए प्रभावशाली असंतुष्टों को आमंत्रित में सहजता होगी.
पश्चिम बंगाल में घुसपैठ की कोशिश
पार्टी नेतृत्व ने यह साफ कर दिया है कि पश्चिम बंगाल बीजेपी की प्राथमिकताओं में से एक है. बीजेपी के लिए बंगाल की राजनीति आसान तो नहीं है, लेकिन ममता बनर्जी ने मुसलमानों को तुष्ट करने में जिस तरह से पिछले तमाम रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया है, उससे बंगाल में हिंदू अचानक से संघ परिवार की तरफ मुड़ने शुरू हो गए हैं.
इस आकर्षण से बहुत पहले ही संघ ने बीजेपी के लिए वोट जुटाना शुरू कर दिया है. उत्तरपूर्व में हेमंत विश्व शर्मा ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के पूर्ण समर्थन के साथ एनईएडी के विस्तार के कार्य को गंभीरतापूर्वक करना शुरू कर दिया है.
अपने भौगोलिक विस्तार के लिए भी पार्टी ने अपनी दीर्घकालीन रणनीति पर कार्य शुरू कर दिया है, इस बीच इसके सामाजिक आधार की बढ़ोत्तरी को भी नई ऊंचाई मिली है.
सदस्यों के लिहाज से विश्व का सबसे बड़ा संगठन बनने के बाद उत्तरप्रदेश में तीन चौथाई बहुमत हासिल करते हुए मंडल किला को भी ध्वस्त करने में बीजेपी सफल हुई है.
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वास्तव में अगर अखिलेश-मुलायम तथा मायावती की पार्टियां इस महत्वपूर्ण राज्य में अपने खोये हुए जनाधार को फिर से पाना चाहती है, तो उन्हें कुछ करने के लिए बहुत सारी बातों पर पुनर्विचार करना होगा.
असम, हरियाणा, महाराष्ट्र और हाल-फिलहाल में ओडीशा में पार्टी बड़े पैमाने पर गरीबों और वंचितों का भरोसा जीतने में कामयाब रही है. पार्टी अनुसूचित जातियों से आने वाले सांसदों की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा तो करती ही है, साथ ही हिंदी भाषी प्रदेशों के साथ-साथ विभिन्न प्रांतों में भी पार्टी का जनाधार पिछड़ी जातियों में बढ़ा है.
सब कुछ अच्छा नहीं है बीजेपी के लिए
हालांकि ऐसा नहीं है कि सबकुछ बहुत अच्छा है. विभिन्न प्रांतों में से दो आखिरी विधानसभा चुनावों के आंकड़ों का विश्लेषण करें, तो हम पाते हैं कि बीजेपी को वोटों और वोट प्रतिशत के लिहाज से अनेक राज्यों में पर्याप्त फायदा हुआ है.
लेकिन अगर बीजेपी के खिलाफ तमाम पार्टियों की हिस्सेदारी को जोड़ दिया जाये, तो तस्वीर अलग नजर आती है.
2014 के बाद जिन-जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं, उनमें से सिर्फ झारखंड में ही विपक्षियों को मिले कुल वोटों के मुकाबले बीजेपी को मामूली बढ़त (लगभग 1 प्रतिशत) हासिल हुई है.
इस वास्तविकता के साथ जोड़ने पर ऐसा लगता है कि बहुत सारे उत्तरी राज्यों में बीजेपी उस जगह पर आ गयी है, जहां उसमें ठहराव आ गया है और यह सही अर्थों में पार्टी के लिये एक नई चुनौती बन गई है.
यह मानते हुए कि विपक्षी पार्टियां अपनी ताकत को अगर इकट्ठा कर लेती हैं, तो ऐसे में नरेंद्र मोदी को एक बड़ी लाइन खींचनी पड़ेगी.
मोदी का सबसे बड़ा हथियार है 'न्यू इंडिया'
पार्टी के विस्तार के अलावा मोदी सेना के लिए सबसे बड़ा हथियार 'न्यू इंडिया' बनाने के उद्देश्य से चलाये जा रहे वो कार्यक्रम हैं, जो गरीबों के लिए चलाए जा रहे हैं और जिसके बारे में प्रधानमंत्री अपना जुनून बार-बार दिखाते भी हैं.
उज्ज्वला, स्टैंड अप इंडिया, मुद्रा, सस्ता घर (ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में), स्किल इंडिया जैसे कार्यक्रम कुछ उन महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों में से हैं, जिसमें किसी भी तरह के जाति या समुदाय आधारित अभियान को ध्वस्त करने की क्षमता है.
हालांकि इस तरह की ज्यादातर योजनाएं, जो पिछली सरकारों में चलाई गई थीं, भ्रष्टाचार के ब्लैक होल का शिकार हो चुकी हैं.
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इन्हें लेकर मोदी लोगों को विश्वास दिला सकते हैं कि इन योजनाओं का क्रियान्वयन भ्रष्टाचार मुक्त होगा तथा ये पूरी तरह पारदर्शी होंगी.
‘समान अवसर’ पर जोर, युवाओं में रोजगार को लेकर नये सृजनकर्ता के रूप में ऊर्जा भरने तथा कमजोर तबकों के सशक्तिकरण जैसी पहल ने परिणाम दिखाना शुरू कर दिया है.
नोटबंदी के साथ ही मोदी ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें और भी कठोर कदम उठाने से कोई परहेज नहीं है, अगर अभूतपूर्व कदम उठाना पड़े, तो उसे उठाने से वो गुरेज नहीं करेंगे.
मुस्लिम महिलाओं का भरोसा जीतने की कोशिश
नीतियों तथा कार्यक्रमों में बड़ा परिवर्तन लाते हुए मोदी ने नए सामाजिक और भौगोलिक सीमाओं को जीता है, उनकी अगली चुनौती अल्पसंख्यक के विश्वास को जीतना है.
इस चुनौती से निपटने की शुरुआत भी तीन तलाक पर स्पष्ट रुख अपनाते हुए सरकार ने शुरु तो कर ही दी है. साफ है कि केंद्र इस मुद्दे पर बिल्कुल नहीं झुकने वाला है.
इस भेदभाव वाली प्रथा के खिलाफ खुलकर सामने आतीं मुस्लिम महिलाओं के साथ मोदी पहले ही चर्चित हो चुके हैं. बहुत जल्द ही इस दिशा में कदम उठाए जाने की उम्मीद है।
हालांकि एक अच्छा सेनापति सिर्फ अपनी ताकत के बूते ही लड़ाई की तैयारी नहीं करता है. अपने दुश्मनों की कमजोरी पर कार्य करना भी युद्ध कला का जरूरी हथियार है.
प्रमुख विपक्षी दलों और उनके नेताओं के आंतरिक विरोधाभासों को महत्व देते हुए नरेंद्र मोदी ने भविष्य में विपक्षी पार्टियों की एक व्यापक भागीदारी को रोकने पर भी कार्य करना शुरू कर दिया है. नीतीश कुमार, के.चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक, शरद पवार इस संभावित गठबंधन के कुछ चेहरे हो सकते हैं.
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