देश के चार राज्यों की पांच विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए. 5 में से 3 सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की. ये आंकड़े भले ही छोटे लगें लेकिन इनके महत्व का दायरा और प्रभाव बहुत ज्यादा है. उपचुनाव में 3 सीटों पर बीजेपी की जीत सिर्फ कांग्रेस की दरकती जमीन पर खिलते कमल की कहानी नहीं है. बल्कि पश्चिम बंगाल में वामदलो और ममता के गढ़ में बीजेपी के ‘अच्छे दिन’ आने का भी संकेत है. उपचुनाव के नतीजों से समझा जा सकता है कि ग्रामीण इलाकों में बीजेपी का जनाधार लगातार बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ पूर्वोत्तर राज्यों में असम के बाद अरुणाचल प्रदेश में विजयी रथ जारी है. जबकि पश्चिम बंगाल में बिना किसी शोरशराबे के बीजेपी ने ममता के किले की घेराबंदी शुरू कर दी है.
राजनीति में उपचुनाव के नतीजों का विश्लेषण हमेशा ही मायने रखता आया है. दरअसल उपचुनाव का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि क्योंकि ऐसा माना जाता है कि उपचुनाव होने तक किसी भी लहर का असर धीरे धीरे खत्म हो जाता है. उपचुनाव के नतीजे अक्सर चौंकाने वाले आते भी रहे हैं. नतीजों के बाद ये राय बनने में देर नहीं लगती है कि पूरे ही राज्य में मौजूदा सरकार के खिलाफ असंतोष शुरू हो गया है और जनता बदलाव चाहने लगी है. ऐसे में उपचुनाव हमेशा राजनीतिक दलों के लिए साख का सवाल होते हैं.
बीजेपी की साख यूपी और अरुणाचल प्रदेश के उपचुनाव से जुड़ी हुई थी. बीजेपी ने उपचुनाव की 3 सीटें जीतकर उस कयास पर विराम लगा दिया कि मोदी लहर का असर कम हो रहा है.
सिकंदरा सीट जीतने वाली बीजेपी ही यूपी का सिकंदर
यूपी में कानपुर देहात की सिकंदरा सीट का नतीजा विपक्षी दलों के लिए भारी झटका है. जो उत्तर प्रदेश कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था वहां ही आज कांग्रेस की मजबूरी ऐसी है कि उसे बीजेपी का कमल खिलाने के लिए अपनी ही जमीन देनी पड़ रही है.
कानपुर देहात की सिकंदरा सीट बीजेपी विधायक मथुरा प्रसाद पाल के निधन के बाद खाली हुई थी. बीजेपी ने मथुरा प्रसाद के बेटे अजीत पाल सिंह को उपचुनाव में उम्मीदवार बनाकर उतारा. बीजेपी के विजयी रथ को रोकने के लिए विपक्ष ने इस सीट पर सारी ताकत झोंक दी. बहुजन समाजवादी पार्टी ने तो बीजेपी को हराने के लिए अपना उम्मीदवार तक नहीं उतारा ताकि दलितों का वोट समाजवादी पार्टी को मिल सके. कुर्मी, यादव और मुस्लिम वोटरों के दम पर समाजवादी पार्टी को अपनी जीत का पक्का यकीन था.
वहीं कांग्रेस ने खेल बिगाड़ने के लिए ब्राह्मण कार्ड खेलते हुए ब्राह्मण उम्मीदवार उतार दिया क्योंकि यहां बीजेपी का कोर वोटर ब्राह्मण है. इसके बावजूद ‘बुआ-भतीजे’ का दांव तब भी खाली चला गया और कांग्रेस को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. अजीत पाल सिंह ने समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार सीमा सचान को हरा कर सारे समीकरणों पर पानी फेर दिया.
सिकंदरा के नतीजों ने साफ कर दिया कि यूपी में आम जनता का बीजेपी से लगाव घटा नहीं बल्कि बढ़ा है और मोदी लहर का यूपी में असर बरकरार है.
सिंकदरा उपचुनाव की सीट अगर बीजेपी गंवा जाती तो ये संदेश दिया जाता कि विपक्षी दलों की एकता ही मोदी लहर का जवाब दे सकती है. लेकिन उपचुनाव के जरिए एक बार फिर विपक्षी एकता की टेस्टिंग फेल हो गई. सिकंदरा के नतीजे उनको भी जवाब है जो कि बीजेपी को शहरी इलाकों की पार्टी मानते हैं. जबकि बीजेपी अब ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस को पछाड़कर लगातार मजबूत होती जा रही है.
इससे पहले यूपी निकाय चुनाव के नतीजों ने भी उन अनुमानों को धराशायी कर दिया था जिसने मुताबिक यूपी में जीएसटी के बाद मोदी और योगी सरकार के खिलाफ असंतोष पनप रहा था. निकाय चुनाव में मिली भारी जीत के बाद अब सिकंदरा के नतीजे एलान कर रहे हैं कि बीएसपी, एसपी और कांग्रेस मिलकर भी बीजेपी को टक्कर नहीं दे सके हैं.
अरुणाचल प्रदेश में मोदी के 'मिशन विकास' की लहर
यूपी की तरह ही अरुणाचल प्रदेश में भी बीजेपी की सरकार है. अरुणाचल प्रदेश की दो सीटों पाक्के कसांग और लिकाबली सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस से दो सीटें छीन ली. पाक्के कसांग सीट पर बीजेपी के बी.आर वाघे ने कांग्रेस के पूर्व उपमुख्यमंत्री कामेंग डोलो को शिकस्त दी.
इन दो सीटों पर जीत के साथ ही अरुणाचल प्रदेश की 60 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी के 49 विधायक हो गए तो कांग्रेस का केवल एक ही विधायक रह गया. क्या माना जाए कि अरुणाचल प्रदेश कांग्रेस मुक्त की तरफ बढ़ रहा है?
अरुणाचल प्रदेश में भी बीजेपी की सरकार होने की वजह से दो सीटों का उपचुनाव साख का सवाल था. लेकिन जनता ने बीजेपी के ही पक्ष में फैसला सुनाया. इसकी बड़ी वजह ये है कि पीएम मोदी ने उत्तर-पूर्वी राज्यों के विकास के लिए बहुत जोर लगाया है. उनकी विकासोन्मुखी छवि का फायदा बीजेपी को सीधे तौर पर उपचुनाव में मिला.
जब मोदी बीजेपी की तरफ से पीएम उम्मीदवार थे तब उन्होंने अरुणाचल प्रदेश की रैली में कहा था कि ‘विकास का सूर्योदय अरुणाचल प्रदेश से होगा’. पीएम बनने के बाद मोदी अरुणाचल प्रदेश की यात्रा पर भी गए थे और उन्होंने पांच साल में कई योजनाओं को पूरा करने का वादा किया था. मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने के मौके पर असम में चीन सीमा के पास लोहित नदी पर बने देश के सबसे लंबे पुल ढोला-सदिया ब्रिज को जनता को सौंपा था जिससे असम और अरुणाचल प्रदेश की 165 किमी की दूरी तकरीबन पांच घंटे कम हो गई.
इसके अलावा वो मिजोरम और मेघालय में भी विकास की कई सौगातों की घोषणा कर चुके हैं. जहां मेघालय में 47 हजार करोड़ की लागत से 15 नई रेल लाइनें बिछाने का काम होगा तो वहीं उन्होंने मेघालय में 30 हजार करोड़ के हाइवे प्रोजेक्ट को भी मंजूरी दी. मोदी सरकार लगातार उत्तर पूर्वी राज्यों को रेल लाइन से जोड़ने का काम कर रही है. साथ ही उत्तर पूर्वी राज्यों में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सैकड़ों करोड़ की फंडिंग को भी मंजूरी दी है.
पीएम मोदी के ‘मिशन विकास’ को ही उत्तर-पूर्वी राज्यों में लगातार समर्थन मिल रहा है. दो सीटों के उपचुनाव के नतीजे साबित करते हैं कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में मोदी के ‘मिशन विकास’ की वजह से आम लोगों में उनके प्रति भरोसा बढ़ता जा रहा है.
पश्चिम बंगाल में बीजेपी के आएंगे ‘अच्छे दिन’?
असम के जरिए बीजेपी पूर्वोत्तर में दाखिल हो चुकी है तो अब विधानसभा चुनाव, निकाय चुनाव और उपचुनावों के नतीजे पश्चिम बंगाल में बीजेपी की एन्ट्री साबित कर रही है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी नए विकल्प के तौर पर उभर रही है.
पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में दो सीटें जीतने के बाद बीजेपी ने यहां के विधानसभा चुनाव में तीन सीटें जीतकर खाता खोला था. साथ ही बीजेपी के मत-प्रतिशत में 6 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी जो कि पहले के 4 फीसदी वोट प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत हो गई.
इस बार सबांग की सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी भले ही हार गई लेकिन उसके वोटों की गिनती ममता सरकार की नींद उड़ाने के लिए काफी है.
सबांग सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी की अंतरा भट्टाचार्य कांग्रेस को पछाड़कर तीसरे नंबर पर रहीं और उनको 37 हजार 476 वोट मिले. जबकि चौथे स्थान पर रही कांग्रेस को सिर्फ 18 हजार 60 वोट ही मिले. साल 2016 में बीजेपी को 5 हजार 600 वोट मिले थे जो बढ़कर अब 37 हजार को पार कर गए. वहीं कांग्रेस और नोटा के बीच महज तीन हजार का ही अंतर रह गया.
ममता की सांप्रदायिक राजनीति से बीजेपी के हौसले बुलंद
वोटों की बढ़ती संख्या से समझा जा सकता है कि ममता बनर्जी पर लगते सांप्रदायिक राजनीति के आरोपों की वजह से मतदाता बीजेपी में अपना विकल्प देख रहा है. बीजेपी खामोशी के साथ पश्चिम बंगाल में मतदाताओं के मन में झांकने में कामयाब हो गई है. इससे पहले निकाय चुनावों में भी बीजेपी ने ममता के एकछत्र राज को चुनौती देने का काम किया था. भले ही निकाय चुनाव में सत्ता के केंद्र में तृणमूल कांग्रेस हो लेकिन सात नगरपालिकाओं की 148 सीटों के चुनाव में बीजेपी 77 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी.
बीजेपी ने निकाय चुनाव में 7 सीटें भी जीतीं थीं. वामपंथियों और ममता के गढ़ में बीजेपी की धमक के साथ ये दस्तक है. ऐसे में सबांग उपचुनाव में तीसरे स्थान पर बीजेपी की मौजूदगी समय के साथ उसे ऊपरी पायदान पर भी ला सकती है. क्योंकि कुछ ऐसे ही ममता बनर्जी ने भी वामपंथी विरोध के साथ अपनी राजनीति की शुरुआत की थी जो कि अब बीजेपी विरोध में सिमट गई है और यही बीजेपी को पश्चिम बंगाल में मजबूत करने का काम कर रही है.
बहरहाल यूपी और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ने बस जमानत ही नहीं खोई. मतदाताओं ने उसे नैतिक जीत के साथ छोड़ दिया. नोटबंदी और जीएसटी के बाद अब हर चुनाव को जनमत संग्रह के तौर पर देखा जाने लगा है. किसी एक उपचुनाव के नतीजे को भी तत्काल ही मोदी सरकार के फैसले के विरोध में नतीजा करार दिया जाने का दस्तूर बन चुका है. लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के बाद भी मोदी सरकार की लोकप्रियता और मोदी-लहर में कमी नहीं दिखाई दी है. गुजरात के हालिया नतीजो के बाद उपचुनाव यही एलान कर रहे हैं.
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