महाराष्ट्र में जातीय हिंसा ने राजनीतिक रंग ले लिया है. पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर हिंसा को हवा देने का आरोप लगा रहे हैं. हालांकि आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि, भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा और फिर उसके बाद पूरे महाराष्ट्र में हुए बवाल को किसने बढ़ावा दिया. लेकिन महाराष्ट्र की इस घटना ने देश में 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर कई राजनीतिक पार्टियों का गणित बिगाड़ दिया है. मौजूदा हालात को देखते हुए यह साफ लग रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में भीमा-कोरेगांव हिंसा का मुद्दा अहम साबित होगा.
अब यह निश्चित हो चुका है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान हमने जो जाति-विभाजन का फॉर्मूला देखा था, वह फॉर्मूला अब तेजी से अन्य राज्यों में भी दोहराया जाएगा. जाति-विभाजन के इस फॉर्मूले के जरिए बीजेपी के राजनीतिक प्रतिद्वंदी हिंदू वोट बैंक में सेंध लगाने का रास्ता खोजने का प्रयास कर रहे हैं. आगामी लोकसभा चुनाव के जाति-विभाजित होने की संभावनाओं को इस बात से और बल मिलता है कि मौजूदा वक्त में तथाकथित ऊंची जातियों और दलित समुदाय के बीच खाई और गहरी हो गई है. ऊंची जातियों ने जहां शिक्षा और नौकरी में आरक्षण की मांग को लेकर जबरदस्त अभियान छेड़ रखा है, वहीं दलित समुदाय अपने साथ दशकों से होते आ रहे सामाजिक उत्पीड़न को लेकर संघर्षरत हैं. दोनों ही पक्ष समाज में बराबरी का अधिकार और समान अवसर चाहते हैं. मामला हितों के टकराव का है, लिहाजा दोनों पक्षों के बीच तनातनी की स्थिति है.
युवाओं को संतुष्ट करने में नाकाम रही है सरकार
सामाजिक तानेबाने के इन दोनों ही छोरों की कई समस्याएं लगभग समान हैं, जिनको लेकर दोनों ही पक्ष सरकार से खफा हैं. किसानों की दिक्कतें, कृषि संकट को कम करने और लाखों युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने में सरकार नाकाम साबित हुई है. ऐसे में विपक्ष को बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने का सुनहरा मौका मिल गया है. बीजेपी के आक्रामक उदय और देश भर में उसके विस्तार की रफ्तार को थामने के लिए विपक्षी दल अब जातिगत समीकरणों का सराहा लेने पर मजबूर हो गए हैं. विपक्षी दलों को लगता है कि जातिगत विभाजन के जरिए वह नरेंद्र मोदी के अजेय रथ को रोक सकते हैं.
भारतीय समाज में जातिगत ऊंच-नीच की समस्या सदियों से चली आ रही है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान, नरेंद्र मोदी ने जनता को अच्छे दिन के सपने दिखाए थे. अपने 'आशा' अभियान के जरिए मोदी समाज में ऊंच-नीच की खाई पाटने में कामयाब हुए थे और चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल की थी. लेकिन अब, जनता की यह आशा तेजी से कम हो रही है और उसकी जगह वास्तविकता ने ले ली है. यानी समाज में जातिगत ऊंच-नीच की भावना एक बार फिर से प्रबल हो उठी है.
आरक्षण की सियासत
'इंडियन एक्सप्रेस' के एक लेख के मुताबिक, 'गरीब पटेल, जाट और मराठा अब समृद्ध ओबीसी और यहां तक कि कुछ दलितों से भी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ गए हैं. ऐसे में यह लोग अपने भविष्य को लेकर चिंतित हो उठे हैं, लिहाजा इन्होंने शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की मांग बुलंद कर दी है. मौजूदा सेवा आधारित आर्थिक विकास में शिक्षा, सामाजिक कौशल और विशेषताओं की जरूरत लगभग अनिवार्य हो गई है. प्रमुख और प्रभुत्वशाली जातियों में अक्सर इन विशेषताओं का अभाव होता है. ऐसा अभाव एससी और ओबीसी में भी व्याप्त हैं, लेकिन वह आरक्षण की मदद से आंशिक रूप से इसकी भरपाई कर लेते हैं.'
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एससी और ओबीसी समुदायों को मिल रही यह सहूलियत समाज के कई वर्गों में असंतुष्टि की स्थिति पैदा कर रही है. लेकिन कई राजनीतिक दलों को इस विवाद में अपना फायदा नजर आ रहा है. लिहाजा इस मुद्दे पर सियासी रोटिंयां सेंकने का सिलसिला शुरू हो गया है. जिसकी शुरूआत कांग्रेस ने की. भीमा-कोरेगांव हिंसा के बाद पुणे और महाराष्ट्र के अलग-अलग इलाकों में जमकर बवाल हुआ. इस दौरान दलित युवकों ने सड़कों पर जमकर उत्पात मचाया. हिंसा के तुरंत बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस मामले में एक ट्वीट किया. राहुल का यह ट्वीट न सिर्फ एक संवेदनाहीन और खतरनाक वक्तव्य था, बल्कि पार्टी की रणनीति के खिलाफ भी था.
महाराष्ट्र में हुई जातीय हिंसा में एक मराठी युवक की दर्दनाक मौत हो गई, एक 35 वर्षीय पुलिस कांस्टेबल को गंभीर चोटें आईं, कुछ इलाकों में कर्फ्यू लगाया गया, 187 सरकारी बसों और दर्जनों निजी वाहनों में तोड़फोड़ की गई, रेलमार्ग अवरुद्ध किए गए, दुकानों और वाणिज्यिक संस्थानों को जबरन बंद कराया गया लेकिन राहुल गांधी को हिंसा में दलितों के प्रतिरोध का 'शक्तिशाली प्रतीक' नजर आया.
कांग्रेस का रुख निंदनीय
भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष के रूप में किंचित जिम्मेदार व्यवहार दिखाने के बजाय, राहुल के ट्वीट ने समाज में ऊंच-नीच की खाई को और भी ज्यादा गहरा और चौड़ा करने की कोशिश की. दरअसल राहुल को महाराष्ट्र की जातीय हिंसा में अपना और अपनी पार्टी का राजनीतिक लाभ दिखाई दे रहा है. कांग्रेस की तरफ से ऐसी कोशिश सिर्फ राहुल गांधी ही ने नहीं की है. राहुल की देखा-देखी उनकी पार्टी के कई नेताओं ने इसी तरह के बयान जारी करना शुरू कर दिए. उसके बाद कई और विपक्षी नेताओं ने भी महाराष्ट्र के नाजुक हालात को ताक पर रखते हुए संवेदनहीन बयान दे डाले.
ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के महाराष्ट्र प्रभारी मोहन प्रकाश ने दावा किया कि जहां-जहां भी बीजेपी की सरकार है, उसके समर्थक और आरएसएस कार्यकर्ता दलित सम्मान से जुड़े कार्यक्रमों में ऐसे ही व्यवधान पैदा करते हैं. वहीं वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के मुताबिक, 'कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा जानबूझकर राज्य की कानून-व्यवस्था को बिगाड़ने की कोशिश की गई. चव्हाण ने महाराष्ट्र के बिगड़े हालात के लिए मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को दोषी ठहराया है. जबकि एनसीपी प्रमुख शरद पवार का कहना है कि, 'मुझे जानकारी मिली है कि, कुछ बाहरी लोगों और दक्षिणपंथी तत्वों ने हिंसा को उकसाया है.'
बीते सोमवार को भीमा-कोरेगांव और पुणे से सटे गांवों में हुई हिंसक घटनाओं की जांच अब एक 'सिटिंग जज' को सौंपी जा चुकी है. लेकिन इस मुद्दे पर आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर जारी है. हिंसा को लेकर बुधवार को संसद में पक्ष और विपक्ष ने एक-दूसरे पर जमकर आरोप मढ़े.
दो स्थानीय दक्षिणपंथी हिंदू नेताओं- हिंदू एकता अघाड़ी संगठन के सदस्य मिलिंद एकबोटे और शिव प्रतिष्ठान के अध्यक्ष संभाजी भिड़े के खिलाफ हिंसा भड़काने का केस दर्ज हो चुका है. वहीं युवा दलित नेता और गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी और जेएनयू छात्र उमर खालिद के खिलाफ भी एक शिकायत दर्ज की गई है. जिग्नेश और उमर को भीमा-कोरेगांव युद्ध की 200वीं वर्षगांठ से जुड़े कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था. आरोप है कि दोनों ने भीड़ को उकसाया.
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जिग्नेश मेवाणी के खिलाफ पुलिस में दर्ज शिकायत बताती है कि गुजरात के इस दलित नेता ने कहा था कि, 'लोगों को सड़कों पर उतर आना चाहिए और जवाबी कार्रवाई करना चाहिए.' आरोप है कि जिग्नेश के इस बयान के बाद इलाके में दो समुदायों के बीच तनाव पैदा हुआ.
क्या RSS-BJP के पास कोई कारण है?
आरोपों के पीछे की सच्चाई आखिरकार सबके सामने उभरकर आएगी. यह संभव हो सकता है कि इस हिंसक संघर्ष के पीछे दक्षिण पंथी समूहों का हाथ हो. हालांकि यह बात बड़ी विचित्र लगती है कि आरएसएस या बीजेपी हिंदू समुदायों को विभाजन के लिए उकसाएगी. ऐसा करने से जाहिर तौर पर बीजेपी और आरएसएस के 'वन इंडिया' का सपना ही चकनाचूर होगा.
अगर बीजेपी राजनीतिक खुदकुशी के मिशन पर नहीं है तो, हिंदू समुदायों के बीच विभाजन की कोशिश से उसके प्रतिद्वंद्वियों को ही लाभ पहुंचता दिख रहा है. लिहाजा यह बात कतई विवेकपूर्ण नहीं लग रही है कि बीजेपी की तरफ से दलितों और मराठों के बीच दरार पैदा करने की कोशिश की जा रही है.
बीजेपी इस समय अपना वोट बैंक बढ़ाने और पार्टी को 'गरीब समर्थक पार्टी' के रूप में पेश करने की पुरजोर कोशिश कर रही है. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी प्रबल प्रयास कर रहे हैं कि बीजेपी को 'बनिया-व्यापारी-ऊंची जाति' के लोगों की पार्टी की छवि से निजात मिल सके. अपनी इस कवायद से बीजेपी को अतीत में शानदार फायदा भी मिल चुका है. ऐसे में यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि बीजेपी अचानक अपने मिशन के खिलाफ भला ऐसा काम क्यों करेगी. वह भी तब जब अगली साल देश में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. लिहाजा, जैसी कि अपेक्षा थी, बीजेपी ने अपने नेताओं को सतर्क कर दिया है. स्थिति को नियंत्रित करने और नुकसान की भरपाई के लिए बीजेपी नेता अब बयान जारी कर रहे हैं.
'इंडियन एक्सप्रेस' में छपी एक रिपोर्ट में बीजेपी के एक सांसद का हवाला दिया गया है. इस बीजेपी सांसद के मुताबिक पार्टी महाराष्ट्र में हुई हिंसक घटनाओं को लेकर चिंतित है. बीजेपी सांसद का कहना है कि, 'भीमा-कोरेगांव में गुजरात के दलित नेता मेवाणी की मौजूदगी इस बात का इशारा करती है कि जातिगत खाई और भी ज्यादा गहराती जा रही है. यह हमारे लिए अच्छा संकेत नहीं है. इस एक बात ने साफ कर दिया है कि बीजेपी की चुनौतियां अब बढ़ गई हैं. जातिगत खाई को पाटने के लिए बीजेपी को अब अपने विकास के वादे को जल्द पूरा करना होगा.'
OBC वोटबैंक में इजाफे से आश्वस्त है कांग्रेस
इसके विपरीत, गुजरात के प्रयोग से कांग्रेस खासी आश्वस्त है. कांग्रेस को लगता है कि जातिगत समीकरणों पर फोकस करने से उसे लाभ होगा. दरअसल कांग्रेस की रणनीति है कि जातिगत विभाजन के जरिए बीजेपी के वोट बैंक में आसानी से सेंध लगाई जा सकती है.
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न्यूज 18 पर प्रकाशित पोस्ट-गुजरात लोकनीति स्टडी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 'हाल ही में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में 36 फीसदी पटेलों (पाटीदार समुदाय) के वोट कांग्रेस के हिस्से में गए. कांग्रेस को सबसे ज्यादा 46 फीसदी लेउवा पटेल समुदाय ने वोट दिए. जोकि 2012 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले 31 फीसदी ज्यादा हैं. साल 2012 में सिर्फ 15 फीसदी लेउवा पटेलों ने ही कांग्रेस को वोट दिया था. कांग्रेस को इस बार 27 फीसदी कडवा पटेलों के वोट मिले. जबकि साल 2012 में यह संख्या सिर्फ 9 फीसदी ही थी. यानी कांग्रेस को इस बार कडवा पटेलों के 18 फीसदी वोट ज्यादा मिले. यह सीधे तौर पर कांग्रेस के ओबीसी वोट बैंक में इजाफा है.'
ये आंकड़े बताते हैं कि, 'मोदी मैजिक' का मुकाबला करने के लिए जातिगत संघर्ष विपक्ष के लिए जादुई छड़ी साबित हो सकते हैं. लिहाजा महाराष्ट्र में फिलहाल जो कुछ चल रहा है, संभवतः वह महज एक ट्रेलर भर हो.
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