नोटबंदी के खिलाफ आयोजित जनआक्रोश दिवस के दौरान विपक्ष पूरी तरह बिखरा नजर आया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बढ़ते सियासी कद को चुनौती देने के लिए बुलाए गए इस जन आक्रोश दिवस को लेकर जरा भी जनसमर्थन नहीं दिखा.
किसी भी बड़े आर्थिक कदम के सियासी मायने तो होते ही हैं. कई बार तो राजनीति ही अर्थशास्त्र पर हावी हो जाती है लेकिन अब विपक्ष को ये अच्छी तरह एहसास हो गया है कि नोट बंदी ऐसा कदम है जिससे सारे सियासी समीकरण बदल गए हैं.
आपस में लड़ता विपक्ष
इस चुनौती से निपटने के लिए विपक्षी दलों के लिए जरूरी है कि वो इस कदम के विरोध में मजबूत तर्क सामने रखें. हालांकि, मोदी सरकार के इस फैसले के खिलाफ विपक्ष के पास सिर्फ एक तर्क है और वो है कि इस फैसले से जनता को परेशानी हो रही है. मगर, जनता को लग रहा है कि इस फैसले से अमीर और गरीब एक कतार में खड़े हो गए हैं. उन्हें लगता है कि मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए ऐतिहासिक कदम उठाया है.
सरकार को मिल रहे जनसमर्थन के मुकाबले आपस में ही लड़ता-भिड़ता विपक्ष है. जिन 18 पार्टियों ने पहले भारत बंद बुलाने का ऐलान किया था. उनमें लेफ्ट पार्टियों के अलावा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, बीएसपी और तृणमूल कांग्रेस शामिल थीं.
दिलचस्प बात ये है कि भारत बंद जनता की दिक्कतों के खिलाफ बुलाया गया था और इस बंद से जनता को ही दिक्कतें होतीं. शायद यही वजह है कि एक-एक करके कई दल इस भारत बंद से अलग होते गए. आखिर में लेफ्ट पार्टियां ही बंद के समर्थन में बची रहीं.
विपक्ष को ढूंढना चाहिए ठोस तर्क
कोलकाता में सीपीएम के नेता सूर्यकांत मिश्रा ने कहा कि हमारा मकसद बंद को कामयाब बनाना नहीं, बल्कि आवाज उठाना है. जब सब खामोश हैं तो आवाज उठानी जरूरी है. शायद लेफ्ट पार्टियों को भी एहसास हो गया था कि बंद करके जनता को परेशान करने से उनकी परेशानियों की तरफ ध्यान नहीं खींचा जा सकता.
लेफ्ट के अलावा बाकी दलों के हालात भी बेहतर नहीं. जहां प्रधानमंत्री मोदी अपने फैसले को काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बता रहे हैं. युवाओं से इससे जुड़ने की अपील कर रहे हैं. ऐसे में इसके विरोधी दलों को भी कुछ ऐसा ठोस राजनैतिक हथियार लेकर आना होगा, ताकि पीएम मोदी के तर्क का मुकाबला कर सकें.
अफसोस कि किसी भी पार्टी के पास न तो मोदी के कद का नेता है, न ही नोट बैन के खिलाफ ठोस तर्क. सिर्फ ये कहकर कि सरकार के फैसले से जनता परेशान है, काम नहीं चल सकता. आम आदमी परेशानी के बावजूद सरकार के फैसले का समर्थन करता दिख रहा है. उसे लगता है कि इससे भ्रष्टाचार कम होगा.
यहीं पर कांग्रेस हो या ममता बनर्जी, समाजवादी पार्टी या फिर मायावती, सब मात खा रहे हैं. क्योंकि सब के दामन पर भ्रष्टाचार के दाग हैं. राहुल गांधी से लेकर अखिलेश यादव तक, किसी के पास वो नैतिक बल नहीं, जिससे पीएम मोदी के दांव का मुकाबला कर सकें.
नोटबंदी के समर्थन में नीतीश
ऐसे में नीतीश कुमार जैसी साफ-सुथरी छवि के नेता, मोदी के विरोधी खेमे के लिए अच्छा नेतृत्व होते. उनके पास मोदी जैसी अपील भले न हो, लेकिन नीतीश कुमार के पास बाकी विपक्षी नेताओं के मुकाबले ज्यादा सियासी ताकत जरूर है. वो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में बीजेपी के अलावा बाकी दलों में सबसे बड़े नेता हैं. नीतीश कुमार ने जिस तरह बिहार में शराबबंदी को सख्ती से लागू किया है, उससे उनका सियासी कद और ऊंचा हो गया है.
मोदी को फिक्र की जरूरत नहीं
नीतीश ने अपने गठबंधन सहयोगी आरजेडी के स्टैंड से खुद को एकदम अलग कर लिया. अपनी ही पार्टी के सीनियर नेता शरद यादव के नोटबंदी के विरोध के खिलाफ प्रदर्शन और बयानों पर भी नीतीश ने सख्त संकेत दिए. नीतीश ने कहा कि आप इसे लागू करने के तरीकों पर भले सवाल उठाएं, मगर नोटबंदी के फैसले में कुछ भी गलत नहीं.
मोदी विरोधी खेमेबंदी से नीतीश की गैरमौजूदगी ने इसकी ताकत बेहद कमजोर कर दी. जन आक्रोश दिवस से आक्रोश नदारद दिखा. बड़े शहरों में तो जिंदगी की रफ्तार पर कोई असर नहीं दिखा.
अब नोट बंदी के खिलाफ मोर्चेबंदी कर रहा विपक्ष अगर आपसी मतभेद दूर नहीं कर सकता, तो उसके विरोध की हवा पूरी तरह निकल जाएगी. उनके संसद में हंगामे और सड़क पर प्रदर्शन का सरकार पर जरा भी असर नहीं पड़ रहा. उल्टे, ममता बनर्जी जिस तरह से अलग-थलग पड़ गई हैं, उससे साफ है कि प्रधानमंत्री मोदी को इस विरोध के फिक्र की जरूरत नहीं.
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