पिछले 30 वर्षों में भारतीय राजनीति ने बहुत उठा-पटक देख ली है. बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने का बीजेपी-वीएचपी का राजनीतिक अभियान भी कई उतार-चढ़ाव से गुजर चुका है. बीच के कई साल वो नेपथ्य में गया तो स्वयं बीजेपी के चुनावी घोषणा पत्रों में भी उसकी जगह बहुत पीछे चली गई थी. तब उसकी कुछ खास सियासी वजहें थीं. आज 2018 में वह फिर बीजेपी की चुनावी राजनीति के केंद्र में है तो भी उसके बड़े कारण हैं. मगर स्थितियां बहुत भिन्न हैं.
इन 30-32 वर्षों में दुनिया और भी ज्यादा बदल गई है. विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने खूब छलांग लगाई, मानव के जीने, रहने और संवाद करने का तौर-तरीका सर्वथा नया हो गया तो धर्मांधता से उपजे आतंकवाद ने बहुत दहलाया और खून-खराबा मचाया. वैचारिक स्तर पर वाम विचार और राजनीति का प्रभाव कम होता गया और दक्षिणपंथी सोच कई देशों में राजनीति पर हावी हो गया.
1990 में लाल कृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा की खबरें देने के लिए तब हमारे पास प्राइवेट न्यूज चैनल नहीं थे, ईमेल नहीं था. मोबाइल फोन की शुरुआत भारत में जुलाई 1995 में हुई. लैंडलाइन फोन था लेकिन 145 भारतीयों में से सिर्फ 1 के पास. खबरें, नारे और अफवाहें फैलाने के लिए मोटरसाइकिलों पर सवार युवा दस्ते चीखते-चिल्लाते भगवा ध्वज फहराते सड़कों पर दौड़ते थे. अखबारों का ही सहारा था. आज टीवी-इंटरनेट छोड़िए, हर क्षण हाथ में पकड़े छोटे से मोबाइल स्क्रीन पर पल-पल का सत्य-असत्य-प्रपंच सब हाजिर है. दुनिया बदली, तौर तरीके नए हुए लेकिन सत्ता के लिए धर्म की राजनीति की रवायत नहीं बदली.
थोड़ा पीछे चलें
तब और अब के हालात को समझने के लिए थोड़ा पीछे देखना ठीक रहेगा. बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनवाने की गुन-मुन अक्टूबर 1984 में तेज होना शुरू हुई थी जब विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने राम जन्म-भूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन किया था. उस समय अयोध्या से लखनऊ तक की 130 किलोमीटर की पद-यात्रा भी की गई थी. उसके बाद धीरे-धीरे यह अभियान बढ़ाया गया. 1986 आते-आते इसकी गूंज राजनीतिक गलियारों तक पहुंच गई थी.
विश्वनाथ प्रताप सिंह के बोफोर्स हमलों से घायल राजीव गांधी को वीएचपी के राम मंदिर अभियान को हवा देने में अपना त्राण दिखाई दिया या उनके सलाहकारों ने उन्हें यह राह सुझाई. 1986 में उन्होंने बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने की पहल की और 1989 में चुनावों के ठीक पहले वीएचपी को बाबरी मस्जिद के निकट मंदिर के लिए भूमि पूजन की अनुमति दे दी.
राजीव को इस चाल का कोई लाभ होता न होता, बीजेपी ने वीएचपी का राम मंदिर अभियान लपक लिया. वो वीएचपी को पीछे कर स्वयं सामने आ गई. 1989 के चुनावों में राजीव गांधी की कांग्रेस अपार बहुमत खो कर सिमट गई तो बीजेपी लोकसभा में 2 से 84 सीटों तक आ पहुंची. अगस्त 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने हिंदू ध्रुवीकरण की बढ़ती राजनीति की काट के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू कर दी तो 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या की राम रथ यात्रा पर निकल पड़े.
इन दो घटनाओं ने भारतीय राजनीति का स्वरूप ही बदल दिया. मध्य और निम्न जातियों के उभार से चुनावी राजनीति उसी पर केंद्रित हो गई. बीजेपी भी थोड़ा रास्ता बदलने को मजबूर हुई. राम मंदिर के नाम पर भड़की भावनाओं से उपजे जुनून ने 1992 में बाबरी ढांचा तो जमींदोज कर दिया लेकिन क्या वहां राम मंदिर बनवाना इतना आसान था?
शेर की सवारी
आज यह सवाल फिर बीजेपी के सामने खड़ा है, जबकि वो राम मंदिर अभियान को अपनी सत्ता बचाने के लिए इस्तेमाल कर रही है. आज उसकी दुविधाएं बहुत हैं. पहला तो यही कि 1990 के अयोध्या कूच के दौरान केंद्र और उत्तर प्रदेश में उसकी विरोधी दलों की सरकारें थीं. केंद्र में नरसिंह राव और लखनऊ में मुलायम सिंह यादव थे. आज दोनों जगह बीजेपी की पूर्ण बहुमत वाली सरकारें हैं. तब कानून व्यवस्था बनाए रखना बीजेपी के लिए कोई चुनौती नहीं थी, बल्कि 'परिंदा भी पर नहीं मार सकता' जैसी मुलायम की घोषणा को ध्वस्त करने की चुनौती उनके सामने थी.
अयोध्या में आज भी सुरक्षा बंदोबस्त तगड़े हैं लेकिन उस समय तो चप्पे-चप्पे पर चौकसी थी. बीजेपी-वीएचपी के नेता तब खेतों, जंगलों, नदियों को पार कर चोरी से अयोध्या पहुंचे थे. आज उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है. बल्कि, ज्यादा से ज्यादा भीड़ वो खुद जुटा रहे हैं. तब वीएचपी को पीछे कर बीजेपी नेता स्वयं भीड़ का नेतृत्व करने लगे थे तो आज वीएचपी नेताओं-संतों को आगे आने दिया जा रहा है. आज की चुनौती राम मंदिर के प्रति समर्पण दिखाना है लेकिन अपनी ही सरकारों के लिए समस्या नहीं बनना है.
बीजेपी की इन दुविधाओं को शिवसेना खूब भुना रही है जो महाराष्ट्र की राजनीति में फिलहाल उसके खिलाफ है. बीजेपी को कठघरे में खड़ा करते हुए वो पूछ रही है कि राम मंदिर बनाने की नीयत वास्तव में है तो अध्यादेश क्यों नहीं ला रहे? निर्माण शुरू करने की तारीख क्यों नहीं बता रहे?
शेर की सवारी तो नहीं?
अयोध्या में राम मंदिर बनाने का अभियान अगर बीजेपी के लिए उग्र हिंदू ध्रुवीकरण कर के राजनीतिक सत्ता पाने की रणनीति थी तो उसमें वो कुछ सीमा तक कामयाब भी हुई किंतु मंडल राजनीति उस पर हावी हो गई. 2014 का उसका केंद्र में सत्तारोहण और पिछले 4 वर्षों में कोई 22 राज्यों की सत्ता तक पहुंचने का श्रेय राम मंदिर अभियान को नहीं दिया जा सकता. 2014 और उसके बाद बीजेपी की राजनीति विकास, पारदर्शिता और परिवर्तन के नारे पर केंद्रित रही. 2019 के आम चुनावों में विजय के लिए उसे यह नारे कई कारणों से तारणहार नहीं लग रहे. उसने फिर कमंडल हाथ में थामा है.
संकट के समय ही बीजेपी को राम याद आते हैं लेकिन आज परिस्थितियां बहुत भिन्न हैं. राम मंदिर बनाने-बनवाने का यह अभियान आज ठीक उसी तरह बीजेपी का खेवनहार नहीं बन सकता जिस तरह 1990-92 में बना था. यह उसके लिए शेर की सवारी ज्यादा साबित हो सकता है.
उन तमाम हिंदू धर्मावलंबियों, संतों, आदि को बीजेपी कैसे समझाएगी जो राम मंदिर निर्माण को राजनीति नहीं, अपने धर्म से सीधे जोड़ कर देखते हैं? कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी राम मंदिर की राह में रोड़ा थे तो अब क्या बाधा है जबकि केंद्र और राज्य में बीजेपी की भारी बहुमत वाली सरकारें हैं? यह सवाल भी उससे उसके समर्थक धर्म प्राण हिंदू पूछ ही सकते हैं कि केंद्र में साढ़े 4 साल सत्ता में रहते राम मंदिर बनवाने के लिए क्या किया? अब ऐन चुनावों के समय ही यह क्यों याद आया?
अयोध्या के राम घाट का पानी आज वही नहीं है जो 30 साल पहले था.
हंदवाड़ा में भी आतंकियों के साथ एक एनकाउंटर चल रहा है. बताया जा रहा है कि यहां के यारू इलाके में जवानों ने दो आतंकियों को घेर रखा है
कांग्रेस में शामिल हो कर अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत करने जा रहीं फिल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर का कहना है कि वह ग्लैमर के कारण नहीं बल्कि विचारधारा के कारण कांग्रेस में आई हैं
पीएम के संबोधन पर राहुल गांधी ने उनपर कुछ इसतरह तंज कसा.
मलाइका अरोड़ा दूसरी बार शादी करने जा रही हैं
संयुक्त निदेशक स्तर के एक अधिकारी को जरूरी दस्तावेजों के साथ बुधवार लंदन रवाना होने का काम सौंपा गया है.