6 दिसंबर 1992 का दिन यानी मेरे 23वें जन्मदिन से कुछ दिन पहले की बात है, जब मैं शाम को अपने दोस्त राजीव देसाई के घर पर था और उसने बताया कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया है.
मैं ये ख़बर सुनकर काफ़ी उत्साहित हुआ था, मुझे ऐसा लगा था कि हमारे देश में कुछ नया और विलक्षण हुआ है. अगले दिन सुबह जब मैं सूरत के टेक्सटाइल मार्केट में अपनी छोटी सी दुकान खोलने गया तो वहां सबकुछ बंद था. मैंने अपने पिता से फोन करके पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए, तो उन्होंने कहा कि मुझे थोड़े समय इंतज़ार करना चाहिए और अगर ठीक न लगे तो घर वापिस लौट आना चाहिए. दुकान से घर लौटते वक्त़ रास्ते में, मेरी बाइक को हमारे घर के पड़ोस में कुछ लोगों ने रोका, उन्होंने मुझसे मेरा नाम भी पूछा, फिर उनमें से एक ने कहा कि- ‘कृपा करके अब दोबारा यहां वापिस मत आना.’
मुसलमानों के पूजास्थल को नष्ट किया
सूरत की अपनी उस आंठवी मंज़िल के फ्लैट से, मैं ये बड़ी आसान से देख पा रहा था कि, दोपहर के एक बजते-बजते शहर के कई कोनों से आग और धूंए की लपटें आसमान पर छा रही हैं. मैंने इससे पहले कभी भी इस तरह का बड़े पैमाने पर होने वाला नरसंहार नहीं देखा था, न ही ये जानता था कि अगले कुछ दिनों के भीतर हमारे शहर में रहने वाले पांच सौ से ज्य़ादा लोग, जो मुसलमान थे उन्हें बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया जाएगा. आग और धुएं की ये कतार, ज्य़ादातर मुस्लिम घरों और दुकानों से निकला करते थे, जिन्हें बड़े ही व्यवस्थित तरीके से चुन-चुनकर पहले लूटा गया फिर उनमें आग लगा दी गई.
इसके साथ ही एक दिन पहले जो ख़बर सुनकर मैं काफ़ी उत्साहित हुआ था, वो इन धुओं में जलकर खत्म हो गया और मुझे बदले हुए हालात की गंभीरता का अंदाज़ा हुआ. मैं समझ गया था कि कुछ नया और विलक्षण ज़रूर हुआ है, लेकिन जो हुआ है उसे किसी भी तरह से सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है.
हमलोगों ने पहले मुसलमानों के पूजास्थल को नष्ट किया, फिर उन्हें ही इसकी सज़ा भी दे रहे थे. आख़िर क्यों? इसका जवाब दे पाना आसान नहीं था.
लेखक वी.एस नायपॉल, जो किसी भी भारतीय भाषा के जानकार नहीं थे, लेकिन जो हमारे समाज के ताने-बाने को काफ़ी गहराई से समझते थे, उन्हें ऐसा लगा कि बाबरी मस्जिद के ख़िलाफ़ चलाया गया ये आंदोलन काफ़ी हद तक सही था. उनके मुताबिक- भारतीय समाज एक अलग किस्म का समाज था- गरीब, गंदा और पुरातनपंथी, क्योंकि हमारे देश का जो हिंदू समाज है वो आज भी गुलाम मानसिकता से ग्रस्त था, जिसे आज़ाद करना बहुत ज़रूरी था. उनके हिसाब से बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के बाद जो विध्वंस और ऊर्जा हमारे समाज में पैदा हुई है उससे सकारात्मक बौद्धिक बदलाव होंगे.
नायपॉल की ये बात किसी स्कॉलरशिप या रिसर्च का नतीजा नहीं थी, बल्कि ये उनके खुद के विचार थे. अगर कोई उनकी इस बात को गंभीरता से सोचे तो उसे ये काफी हास्यपद लगेगा. उनकी इस धारणा के अनुसार- सदियों तक भारत में जिन विदेशी शासकों का राज रहा है जिनमें अफ़गान, तुर्क, मुग़ल और पर्शियन शामिल थे- जहां ये सब एक-दूसरे से लड़ते रहे, ये एक निरंतर चल रही प्रक्रिया थी. यहां ये मान लिया गया था कि वे आक्रमणकारी शासक जो मुसलमान नहीं थे, जैसे- बरोदा के मराठा गायकवाड़ और ग्वालियर के सिंधिया, वे इन विदेशी शासकों से अलग थे और अपने देश के लोगों पर न तो टैक्स लगाते थे और न ही किसी अन्य तरीके से अत्याचार करते थे. इस सोच के अनुसार संपूर्ण भारत में मुसलमानों का राज था, जो कि सही नहीं है.
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नायपॉल एक शिक्षाविद् नहीं थे, इसलिए उन्हें उनके थीसिस यानी शोध के आधार पर बहुत ज़्यादा विरोध नहीं झेलना पड़ा और ही चुनौती दी जा सकी. कोई भी अकादमिक स्कॉलर इस तरह के अधूरे दावे नहीं कर सकता है और किसी ने आज तक किया नहीं है. क्या भारत का संपूर्ण हिंदू मानस 6 दिसंबर 1992 के बाद मुक्त या आज़ाद हो गया ? ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ है. हम किसी भी तरह से बदले नहीं हैं. हमारी देश की सोच में जो बड़ा सामूहिक बदलाव आया है वो डॉ मनमोहन सिंह की 1991 में लायी गई उदार आर्थिक नीतियों की वजह से आया है, न कि 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद के तांडव के बाद.
शायद नायपॉल ने जो कहा वो दूरगामी असर के नज़रिए से कहा होगा, लेकिन फिर 25 साल कोई कम समय भी नहीं होता है- ये एक अच्छा-खासा लंबा समय है. और इस समय हम एक ऐसे भारत में रह रहे हैं, जहां उसकी आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा उन लोगों से बनता है जिनका जन्म बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद हुआ है. तो ज़ाहिर है इस घटना का असर उनपर नहीं हुआ होगा.
कहीं किसी तरह की कोई मुक्ति हमें नहीं मिली है. जो एक बड़ा बदलाव हम सब में आया है वो ये है कि एक राष्ट्र के तौर पर अपने आचार-व्यवहार में हमलोग अब पहले कहीं ज़्यादा सांप्रदायिक हो गए हैं.
आज जिस तरह से हमारे राजनीतिक दल और मास-मीडिया कुछ भी आपत्तिजनक कहकर, बड़ी आसानी से बच निकल जाते हैं, वैसा वे 1992 से पहले कहने से पहले हिचकते थे.
ऐसा कहा जा रहा है कि, वीएचपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कम से कम दो लाख से ज्य़ादा लोग अयोध्या में इकट्ठा हो रहे हैं. पांच हज़ार के आसपास शिवसैनिक भी वहां पहुंच गए हैं, उद्दव और आदित्य ठाकरे पहले ही वहां पहुंच चुके हैं. उन लोगों ने लगभग किसी अनिष्ठ की भविष्यवाणी करते हुए इस बात का ऐलान कर दिया है कि अयोध्या में होने वाला ये आख़िरी ‘धर्मसभा’ है.
उनके ऐसा करने के पीछे की वजह बीजेपी सरकार पर अगले आम- चुनाव से पहले राममंदिर के निर्माण को लेकर दबाव बनाना है. मानो, बीजेपी के ऐसा करने के लिए किसी अन्य के सहारे या प्रोत्साहन की ज़रूरत है.
सच्चाई ये है कि भारतीय जनता पार्टी आज सत्ता में है और देश पर राज कर पा रही है तो इसकी इकलौती बड़ी वजह 1992 में उनके द्वारा की गई हरकत है.
भड़काऊ भाषणों को सुनने की ज़रूरत है
उस समय जब ये घटना घटी तब लोगों के बीच बीजेपी को जो प्रसिद्धी मिली वो काफी हद तक नकारात्मक थी. उसपर सांप्रदायिक होने के आरोप लगे. लोगों में जो संदेश गया वो ये थी को बाबरी मस्जिद के ख़िलाफ़ है न कि राम-मंदिर की हिमायती. यही वो वजह कि मस्जिद ढहाये जाने और उसके बाद हुई हिंसा के बाद राम मंदिर आंदोलन ही पूरी तरह से खत्म हो गया था.
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सच ये है कि आज भी उस आंदोलन को लेकर लोगों में एक किस्म की नाराज़गी और गुस्सा ज़िंदा है, जिसकी सज़ा वो अन्य भारतीयों को देना चाहती है. इसलिए, ये जो लोग वहां इकट्ठा हो रहे हैं- वे न तो भगवान की भक्ति या धार्मिक कारणों से नहीं हो रहे हैं, बल्कि इन लोगों के वहां इकट्ठा होने की वजह उनके अंदर बैठी घृणा और नफ़रत है. इस बात की तस्दीक करने के लिए आपको सिर्फ़ एक बार उनके नारों और भड़काऊ भाषणों को सुनने की ज़रूरत है.
इस तरह की नकारात्मक सोच, नफ़रत और ज़हरीली भावनाओं से हम कुछ भी अच्छा होने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं. नायपॉल को ये बात शायद समझ में नहीं आयी थी. वे ज़्यादा से ज़्यादा ये कर सकते थे कि हमारे समाज और इसके सामाजिक ताने-बाने पर कोई भी लापरवाह विचार सामने रख दें और फिर फ्लाइट पकड़कर अपने घर लंदर वापिस चले जाते.
हमें इस देश में ही जीना और मरना है, अपने अन्य भारतवासी भाई-बहनों के साथ. इसलिए हमें उन दानवों से सावधान रहने की ज़रूरत है, जिसे हम सामूहिक हिंदू चेतना को आज़ाद या मुक्त करने की कोशिश के दौरान पैदा कर सकते हैं.
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