इतिहास ऐसे वाकयों से भरा पड़ा हुआ है जब जीत की मुद्रा के साथ बड़े नेता अपने देश की गलियों और सड़कों पर विचरण करते हुए दिखाई दिए. उदाहरण के लिए 1944 में दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद फ्रांस के लोकप्रिया नेता चार्ल्स डी गॉल जब पेरिस की सड़कों पर जीत की खुशी का जश्न मनाने के लिए उतरे तो फ्रांस की जनता गदगद हो गई और उन लोगों ने वर्षों से दबी अपनी खुशी की इच्छा का इजहार डी गॉल के सामने किया.
लेकिन ऐसा दृश्य शायद ही कभी देखा गया हो जब किसी राष्ट्र का मुखिया किसी शव वाहन के पीछे पीछे गर्मी और उमस के माहौल में लगभग चार किलोमीटर पैदल चल कर अपने गुरु और पूर्ववर्ती को श्रद्धापूर्वक सम्मान दे रहा हो. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की शवयात्रा का नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया. मोदी का आम आदमी की तरह से सड़कों पर निकलना निश्चित रूप से इतिहास के पन्नों में एक अनूठी घटना के रूप में दर्ज हो चुका है. यहां पर एक लोकप्रिय नेता सड़कों पर अपनी जीत की खुशी मनाने नहीं निकला था बल्कि वो सड़क पर अपने उस शिक्षक को आखिरी विदाई देने निकला था जिसने उसे राजनीति का ककहरा सिखाया था. यही वजह थी कि मोदी की इस यात्रा में गम था, चेहरे पर मायूसी और अपूरणीय क्षति का एहसास था.
शवयात्रा में पीएम का पैदल चलना तत्कालिक फैसला था
मोदी की शवयात्रा के पीछे पैदल चलना, कोई सोची समझी योजना नहीं थी बल्कि ये तात्कालिक रूप से लिया गया फैसला था. जब 17 अगस्त की दोपहर में वाजपेयी की अंतिम यात्रा के लिए उनका शव वाहन बीजेपी मुख्यालय से निकलने वाला था तब उन्होंने अपने विशेष सुरक्षा अधिकारियों (एसपीजी) से तैयारियों के बारे में पूछा. एक सुरक्षा अधिकारी ने मोदी की बात का उत्तर देते हुए कहा कि 'सर कारकेड रेडी है.' मोदी ने तत्काल इस बात पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि 'आने दें, मैं शववाहन के पीछे पीछे पैदल चलूंगा.'
मोदी के इस जवाब की उम्मीद उस अधिकारी को नहीं थी. ऐसे में जब उसने सुना की मोदी खुद शवयात्रा का नेतृत्व करेंगे तो उसकी पेशानी पर बल पड़ गए. इसके बाद सुरक्षा ऐजेंसियों ने ताबड़तोड़ इतंजाम करते हुए प्रधानमंत्री के आसपास एक मजबूत घेरे का निर्माण करना शुरू कर दिया क्योंकि उन्हें मालूम था कि ये कोई मामूली पदयात्रा नहीं है. कुछ केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और बीजेपी के बड़े नेताओं ने उनका अनुसरण किया और वो मोदी के पीछे-पीछे शवयात्रा में पैदल चलते रहे और और जो नेता ऐसा नहीं कर सके वो अपनी अपनी गाड़ियों में अंत्येष्टि स्थल तक पहुंचे.
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तथ्यात्मक बात ये थी कि मोदी ने किसी को इस बात पर जोर नहीं दिया था कि वो उनके साथ साथ शवयात्रा में पैदल चलें. ये मोदी का खुद का फैसला था. दरअसल मोदी वाजपेयी से अपने आरएसएस के प्रचारक वाले दौर के समय से ही भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे. वाजपेयी और मोदी के बीच का जुड़ाव कितना गहरा था ये इस बात से पता चलता है कि, मोदी की कविताओं के संग्रह का विमोचन खुद वाजपेयी ने 1999 में प्रधानमंत्री निवास में किया था. इस समारोह में मोदी ने वाजपेयी की प्रशंसा करते हुए और उनके प्रति सम्मान प्रकट करते हुए कहा था कि 'मैं वाजपेयी जी उंगली का पकड़कर चलना सीख रहा हूं.'
वाजपेयी ने ही लिया था मोदी को गुजरात का सीएम बनाने का फैसला
ये बहुत कम लोगों को पता है कि मोदी को 2001 में गुजरात का मुख्यमंत्री बना कर भेजने का फैसला अटल बिहारी वाजपेयी का ही था और उनके इस फैसले पर पार्टी में नंबर दो की हैसियत वाले नेता लालकृष्ण आडवाणी ने केवल मुहर भर लगाई थी. दरअसल उन दिनों गुजरात को लेकर बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व काफी चिंतित था क्योंकि गुजरात से लगातार नकारात्मक खबरें आ रही थीं जिससे पार्टी की छवि पर बुरा असर पड़ रहा था. राज्य के मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल एक तरफ तो राज्य में सही तरीके से शासन चलाने में अक्षम साबित हो रहे थे वहीं दूसरी ओर पार्टी नेतृत्व को भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की भी शिकायतें कई जगहों से मिल रही थीं. लेकिन इन सबसे ज्यादा केशुभाई सरकार की शिकायतें, भूकंप के बाद के राहत कार्यों को लेकर आ रही थी. 2001 में राज्य में भारी भूकंप आया था, इससे राज्य में बड़े पैमाने पर तबाही मची थी. सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला इलाका कच्छ का था और वहीं से सबसे ज्यादा शिकायतें सरकार के खिलाफ मिल रही थीं. इस तरह की खबरों के सामने आने से बीजेपी के बड़े नेता केशुभाई से खासे नाराज थे, खास करके वाजपेयी हालांकि केशुभाई आडवाणी के नजदीकी माने जाते थे.
दरअसल भूकंप की त्रासदी के बाद गुजरात राजनीतिक रूप से बहुत अस्थिर हो गया था. उसी दौरान मोदी की लोकप्रियता पार्टी कैडरों में बढ़ रही थी और उनके पार्टी के महासचिव के रूप में काम करने के तरीके से सब लोग प्रभावित हो रहे थे. ऐसे में मोदी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की सामूहिक पसंद बन कर उभरे थे. ऐसे में जब वाजपेयी ने उन्हें गुजरात का मुखिया बनाने का फैसला लिया तो सभी लोगों ने उनके इस निर्णय को हाथों हाथ स्वीकर कर लिया. यहां ये आसानी से समझा जा सकता है कि वाजपेयी के द्वारा गुजरात के सीएम के पद के लिए मोदी का चुनाव दोनों के पूर्व के संबंधों का ही परिणाम था.
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1986 में मोदी ने आरएसएस से बीजेपी में आकर अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की थी. पार्टी में गुजरात के संगठनात्मक महासचिव के पद पर रहकर मोदी ने अपनी पहचान फैसले लेने वाले दिग्गज के रूप में बना ली थी. अहमदाबाद म्यूनिसिपल चुनावों में कई बाधाओं को पार करके जीत हासिल करने और 1990 के गुजरात चुनावों में चिमन भाई पटेल के साथ गठबंधने की सटीक रणनीति तैयार करके मोदी ने जल्द ही पार्टी की नजरों में अपनी उपयोगिता साबित कर दी. इन सब के दौरान मोदी का वाजपेयी के साथ संवाद जारी रहा. मोदी ने वाजपेयी की राजनीति को काफी नजदीक से देखा और उनसे राजनीति और वाक्तृत्व के वो गुण सीखे जिससे कि वो लोगों से सीधे जुड़ जाने में कामयाब होते थे.
वाजपेयी की तरह ही मोदी भी आरक्षण के पक्षधर
सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए वाजपेयी की ही तरह मोदी भी आरक्षण के पक्षधर थे. 1980 के दशक के शुरुआती और मध्य वर्षों में गुजरात में जातीय तनाव के कई मामले सामने आए थे, उस दौरान राज्य में एंटी रिजर्वेशन आंदोलन कई जगहों पर हिंसक होने लगा था. वाजपेयी ने दृढ़तापूर्वक आरक्षण का समर्थन किया. यहां तक कि एक मीटिंग में तो उन्होंने ये तक कह दिया कि अगर भगवान भी आकर मुझसे कहें कि आरक्षण समाप्त कर दो तब भी किसी भी कीमत पर ऐसा नहीं करूंगा. बीजेपी ने इस आंदोलन से खुद को दूर रखना ही मुनासिब समझा क्योंकि इस आंदोलन ने अहमदाबाद में सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लिया. 1985 में माधव सिंह सोलंकी के मुख्यमंत्रित्व काल में अहमदाबाद 6 महीनों से ज्यादा तक सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलसता रहा था. राजनीति की बारीकियां सीख रहे मोदी ने इस दौरान वाजपेयी की चालों पर नजदीक से नजर रखी और उनसे उस दौरान काफी कुछ सीखा.
लेकिन मोदी के जीवन में वाजपेयी की तरफ से सबसे बड़ा हस्तक्षेप 1995 में किया गया. उस समय केशुभाई पटेल के खिलाफ शंकर सिंह वाघेला ने बगावत कर दी और केंद्रीय नेतृत्व से ये मांग रखी की राज्य में पार्टी के महासचिव नरेंद्र मोदी को राज्य से बाहर भेज दिया जाए. वाजपेयी ने दोनों गुटों में सुलह के लिए मध्यस्थता की, और सुलह कराने के लिए बेमन से शंकर सिंह वाघेला की मांग मान ली. मोदी को उनके अपने ही राज्य से राज्य निकाला मिल गया था. लेकिन नियति देखिए, मोदी एक बार फिर से 2001 में अपने राज्य गुजरात वापस पहुंचे लेकिन इस बार वो पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री बनाकर भेजे गए थे. मजेदार बात ये कि इस बार उनके गुजरात वापस पहुंचने की वजह भी वाजपेयी ही थे.
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निश्चित रूप से वाजपेयी ने ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मोदी के राजनीतिक करियर को संवारा. मोदी ने भी वाजपेयी की उस परंपरा को जीवंत बनाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. ये सच बात है कि गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगों के बाद वो चाहते थे कि मोदी अपने पद से इस्तीफा दे दें. लेकिन जैसे ही उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि, ऐसे फैसलों से पार्टी के कैडरों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा, उन्होंने अपने विचार वापस ले लिए. वो गुजरात दंगों को सही तरह से हैंडल नहीं किए जाने से नाराज थे, लेकिन कभी भी उन्होंने अपने व्यक्तिगत विचारों को पार्टी की मूल विचारधारा के साथ टकरा देने की कोशिश नहीं की. 2004 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार के बाद उन्हें समझ में आ गया था की पुरानी राजनीति की भी अपनी एक सीमा होती है. उन्हें अपनी गिरती सेहत का भी एहसास था.
वाजपेयी की राजनीतिक विरासत को बढ़ाया आगे
अपने लगभग 13 साल के कार्यकाल में मोदी ने वाजपेयी से सीखा कि किस तरह से विचारधारा और परिस्थितियों के बीच सामंजस्य बैठाया जा सकता है और वो भी जनमानस में अपनी लोकप्रियता को बरकरार रखते हुए. मुख्य रूप से कहें तो मोदी ने वाजपेयी की राजनीतिक विरासत को आगे विस्तारित करते हुए बीजेपी के लिए एक विशाल संगठनात्मक ढ़ांचे का निर्माण किया. इसके लिए उन्होंने कई दलों को अपना सहयोगी बनाया, लेकिन बीजेपी की मूल विचारधारा से समझौता किए बिना. इसी दौरान वो लोगों की नजरों में शीर्ष तक पहुंचने में भी कामयाब रहे.
जब मोदी जबरदस्त गर्मी का सामना करते हुए शववाहन के पीछे पीछे चल रहे थे, तो वो न केवल अपने उस लीडर को मौन श्रद्धांजलि दे रहे थे जिनके पदचिह्नों पर चलकर वो यहां तक पहुंते थे, बल्कि वो ये जताने की भी कोशिश कर रहे थे कि भारतीय राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी जैसा चमकता सितारा कोई और नहीं है. हालांकि ये संघ परिवार के स्वभाव के विपरीत है, जहां व्यक्ति पूजा का कोई रिवाज नहीं है. लेकिन मोदी बहुत लोगों से बेहतर समझते हैं कि पार्टी को अपने उज्जवल भविष्य के लिए अत्यंत उत्कृष्ट प्रतिरूप की जरुरत है और इसके लिए अटल बिहारी वाजपेयी से सुयोग्य और बढ़िया कौन हो सकता है.
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